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इकोनॉमिक ग्रोथ, रुपये की वैल्यू और महंगाई सहित अन्य अहम मुद्दों पर क्या है अर्थशास्त्री सुरांजली की राय?

Updated Jul 14, 2022 | 17:47 IST

Indian Economy: कोरोना काल के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था में बदलाव हुए हैं। इसके कारण हैं सप्लाई चेन में बाधा, उपभोक्ता व्यवहार बदलना और बिजनेस का तरीका बदल जाना। इन बदलावों के चलते अनिश्चितता का माहौल भी बना है।

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नई दिल्ली। संभावित वैश्विक मंदी के बीच अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने तकरीबन सभी देशों के आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान को घटाया है। आईएमएफ ने दुनिया की आर्थिक रफ्तार को लगातार तीन सालों के लिए कम रहने का अनुमान लगाया है। भारत (Indian Economy) के लिए भी अनुमान बहुत उत्साहित करने वाला नहीं हैं। हाल में आई नोमुरा की रिपोर्ट में भी भारत के आर्थिक वृद्धि के अनुमान को कम किया गया है। नोमुरा ने अगले साल यानी 2023 के लिए सिर्फ 4.7 फीसदी वृद्धि का अनुमान लगाया है। 

सरकार के हर छोटे-बड़े फैसले पर नजर
इकोनॉमिक ग्रोथ, मार्केट, रुपये की वैल्यू , महंगाई, आज हमारे लिए नए शब्द नहीं रह गए हैं, बल्कि ये बातें अब देश की राजनीति, दशा और दिशा तय करने लगे हैं। आज हमारी पैनी नजर बाजार के उतार-चढ़ाव से लेकर आरबीआई और सरकार के हर छोटे-बड़े फैसले पर बनी हुई है क्योंकि इन सबका सीधा सरोकार हमारी जेब और किचन पर पड़ता है। 

अर्थव्यवस्था की इन्हीं बातों को लेकर टाइम्स नाउ नवभारत पहुंचा वित्त मंत्रालय के संस्थान राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीति संस्थान की अर्थशास्त्री सुरांजली टंडन के पास और उनसे अर्थव्यवस्था की सेहत जानी। आइए जानते हैं इसपर उनका क्या कहना है। 

प्रश्न- रुपये की वैल्यू लगातार कम होने के क्या मायने हैं? क्या ये स्थिति सरकार और आरबीआई दोनों के लिए सिरदर्द है?
सुरांजली टंडन-
हमने पिछले 2 सालों में देखा है कि तेल की खपत लगातार घटी है। कोरोना काल में ईंधन का इस्तेमाल सीमित हुआ था। प्रतिबंध हटने के बाद लोग बाहर निकलना शुरू हुए, जिससे मांग में लगातार इजाफा हुआ। रूस और यूक्रेन के युद्ध का भी प्रभाव पड़ा रहा है, जिससे कमोडिटी प्राइस बढ़ रही हैं। हालांकि भारत ने कोविड-19 के समय में आयात पर निर्भरता काम करी थी, जिससे हम करंट अकाउंट पर पकड़ बनाए हुए थे। आज की स्थिति में इस पर कंट्रोल बनाए रखना मुश्किल है। जैसे-जैसे हमारे तेल का आयात बढ़ रहा है वैसे-वैसे हमारा व्यापार घाटा भी लगातार बढ़ रहा है। इससे रुपये की कीमत में गिरावट देखने को मिल रही है। महंगाई बढ़ने का दूसरा कारण यह है कि जिन देशों को हम अपना सामान बेच रहे हैं उन देशों में अगर आर्थिक स्थिति ठीक ना हो तो हमारा निर्यात कम होगा। ऐसे में आयात अपने पूर्व रूप में रहा, तो डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत घटेगी। एक तरफ निर्यात करना फायदेमंद है पर आयात में हमें नुकसान उठाना पड़ेगा, जो चिंता का विषय है।

प्रश्न- महंगाई के क्या कारण हैं? 
सुरांजली टंडन-
बहुत सालों बाद हम देख रहे हैं कि कई देशों में एक ही समस्या है। जापान जैसे देश में, जहां ब्याज दरें बहुत ही कम थीं, उन्हें भी दरें बढ़ानी पड़ी हैं। अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई देशों में इन्फ्लेशन यानी महंगाई रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। इनके बहुत सारे कारण हैं, जिनमें पहला यह है कि कोविड-19 के चलते हमारे बिजनेस करने के तरीकों में काफी बदलाव हुआ है, आज की स्थिति में इकाइयों को भी पता नहीं है कि इनपुट और आउटपुट का कितना लक्ष्य रखा जाए, कितना रोजगार टारगेट किया जाए। इसकी वजह से सप्लाई चेन प्रभावित हुई है और इससे कीमतों में अस्थिरता देखी गई है। दूसरा कारण युद्ध का प्रभाव है। युद्ध का कमोडिटी प्राइसे पर काफी असर पड़ा है और महगांई बढ़ी है।

प्रश्न- क्या आरबीआई महंगाई को भांपने में लेट हुआ है? उठाए गए कदम कितने कारगर होंगे? महंगाई से राहत कब तक मिलेगी?
सुरांजली टंडन-
दरअसल आरबीआई भी इसी सवाल में उलझा नजर आ रहा है, ब्याज दरों का बढ़ाना और घटाना एक बड़ी जिम्मेदारी होती है। ब्याज दरों के बढ़ने की स्थिति से निवेश प्रभावित होता है, जो देश में रोजगार को प्रभावित करेगा। आरबीआई के सामने भी इन सभी पहलुओं को संतुलित करने कि एक बड़ी चुनौती है पर सबसे बड़ी राहत यह है कि आरबीआई ने अनुमान जताया है कि चौथी तिमाही में स्थिति नियंत्रित होगी।

प्रश्न- बेरोजगारी के आंकड़े भले ही कम हों पर यह जमीन पर ज्यादा दिखती है, स्किल इंडिया जैसी योजनाओं या मैनुफैक्चरिंग सेक्टर की तेजी अभी भी बाकी ही है, ऐसा क्यों है और इसका क्या रास्ता है?
सुरांजली टंडन-
इसके बहुत सारे कारण हैं। एक तो यह है कि कोविड-19 के समय में बहुत सारे लोगों को लेबर फोर्स से निकलना पड़ा और कोरोना के समाप्त होने के बाद भी वह लेबर फोर्स का हिस्सा नहीं बन पाए। लेबर फोर्स में उनके वापस लौटने की दर काफी कम है। बाजार में नौकरियां उस तरह से नहीं बढ़ी हैं जिस तरह से पहले थी। दूसरी बात यह है कि स्किल इंडिया जैसी योजनाओं के सफल होने के लिए जरूरी शर्त यह है कि मार्केट में जॉब हों और वह जॉब उस स्किल से मैच करते हों, अब जरूरत है एक नए दौर की जिसमें कंपनियां अपनी जरूरत के स्किल को परिभाषित करें और हम नए लक्ष्य के साथ इन योजनाओं को परिभाषित करें। वहीं मैन्युफैक्चरिंग को बूस्ट करने के लिए हमें एक डेडिकेटेड प्लान की जरूरत है, जो मैन्युफैक्चरिंग और एक्सपोर्ट में हमारा लक्ष्य परिभाषित करे, जिनमें ज्यादा रोजगार रहेंगे। हमें अभी भी रोजगार सृजन करने मे सफलता नहीं मिला है।

प्रश्न- क्या भारत की आर्थिक स्थिति भी श्रीलंका जैसी हो रही है? ये शंकाएं भारत के लिए कितनी जायज हैं?
सुरांजली टंडन-
भारत की स्थिति बिल्कुल भी वैसी नहीं है जैसी तस्वीरें श्रीलंका से आ रही हैं। श्रीलंका की ऐसी स्थिति के लिए उनकी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार रही हैं जिसे श्रीलंका समझने में नाकाम रहा। आज उनके पास फॉरेक्स की कमी है, जो सिर्फ 15 हजार करोड़ रुपये है। वहीं भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 49 लाख करोड़ रुपये है। श्रीलंका में बेसिक कमोडिटीज जैसे तेल और खाने की चीजों की भी बहुत कमी है। इसके साथ ही वो अन्य देश से भी इस्तेमाल की चीजें नहीं खरीद पा रहे हैं। खुद भारत ने उनको आर्थिक सहायता दी है। श्रीलंका ने आइएमएफ से भी आर्थिक सहायता को बढ़ाने को कहा है। आज श्रीलंका की स्थिति भारत से किसी भी पैरामीटर पर तुलना योग्य नहीं है। जो लोग तुलना करना चाह रहे हैं वो इसका आधार महंगाई को बना रहे हैं।

भारत ने बहुत सारे नीतिगत फैसले लिए हैं। बाकी उपायों के साथ और भी उपाय जैसे विंडफॉल टैक्स, गेहूं के निर्यात को बैन लगाना और इसके अलावा तेल किस भाव पर खरीदें, ये ध्यान रखने की कोशिश की गई है। साथ ही साथ रुपये को भी ध्यान में रखते हुए आयात और निर्यात को संतुलित करने के प्रयास हो रहे हैं। कैपिटल फ्लो चिंता का विषय बना हुआ है, जो अस्थिर जरूर बना रहेगा लेकिन ये स्थिति भारत के लिए नहीं, बल्कि पुरे विश्व के लिए है। इसलिए मैं इससे असहमत हूं कि श्रीलंका जैसी स्थिति भारत की हो सकती है।

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