क्या हमने इरफान खान की आखिर फिल्म देख ली है? क्या इरफान अब किसी और फिल्म में अभिनय नहीं करेंगे? क्या अब हम बड़े पर्दें पर जाकर उनकी कोई नई फिल्म नहीं देख पाएंगे? क्या अब हमारे पास उनकी सिर्फ पुरानी फिल्में बची हैं? क्या अंग्रेजी मीडियम इरफान की आखिरी फिल्म है? ये सभी सवाल ऐसे हैं, जिनका जवाब हम सब जानते हैं, और इन जवाबों को अब कभी नहीं बदला जा सकता, लेकिन ये एक ऐसा सच है, जिसे स्वीकारते हुए आप ऐसा महसूस कर सकते हैं कि जैसे आपसे वो सब छिन लिया गया है, जो इरफान आने वाले सालों में आपको देने वाले थे। जिस पर इरफान से ज्यादा उनके दर्शकों का और सिनेमा का हक था।
इरफान का यूं चले जाना सिर्फ भारतीय सिनेमा का नुकसान नहीं है, ये उन दर्शकों का नुकसान है, जो सिनेमा को लेकर अपनी समझ विकसित कर रहे थे। ये उस विश्वास को ठेस हैं, जो पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड ने बनाया था। ये रियलस्टिक सिनेमा को थोड़ी देर के लिए थाम देने जैसा है। ये एक युग का अंत है, जो बहुत पहले हो गया। ये उस कारवां का रुकने जैसा है, जिसने अभी तो गति पकड़ थी, लेकिन बहुत पहले ही वो बिखर गया।
सालों साल चला इरफान का संघर्ष
30 साल से ज्यादा अभिनय करने वाले इरफान के लिए क्यों कहा जा रहा है कि अभी तो उनका बेस्ट आना बाकी था। 1984 में नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (NSD) में दाखिला लेने और 1988 में सलाम बॉम्बे में छोटा सा किरदार निभाकर बॉलीवुड में शुरुआत करने वाले इरफान को ख्याति हासिल करने के लिए सालों लग जाते हैं। 2003 में तिग्मांशु धूलिया की हासिल और फिर 2004 में मकबूल से अपने अभिनय का डंका पीटने से पहले इरफान न जाने कितने टीवी सीरियल और कई फिल्मों में छोटे-छोटे किरदार निभाते हैं। वो कई ऐसी फिल्में भी करते हैं जिन पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता।
2011 में आया बड़ा टर्निंग प्वाइंट
हासिल के लिए उन्हें बेस्ट विलेन कैटेगरी में फिल्मफेयर अवॉर्ड मिलता है। इसके बाद उनका करियर पटरी पर आता है और वो लगातार अच्छे किरदार और फिल्में करते हैं। द किलर, लाइफ इन मेट्रो, स्लमडॉग मिलेनियर, बिल्लू समेत कई फिल्मों में वो अपनी छाप छोड़ते हैं। लेकिन 2011 में आई पान सिंह तोमर जैसे सबकुछ बदलकर रख देती है। इस फिल्म से ना सिर्फ उनके फैन फॉलोइंग में इजाफा होना शुरू होता है, बल्कि अब वो मुख्य किरदार में भी दिखने लगते हैं और फिल्म को हिट भी करवाते हैं। रियलिस्टक सिनेमा के साथ-साथ कमर्शियल सिनेमा में भी वो फिट बैठ जाते हैं।
हिंदी मीडियम से लगाई लंबी छलांग
पान सिंह तोमर के लिए उन्हें नेशनल अवॉर्ड मिलता है। इसी साल वो पद्म श्री से भी सम्मानित होते हैं। इसके बाद वो द लंच बॉक्स, हैदर, पीकू, तलवार, जज्बा, मदारी जैसी फिल्में करते हैं, और अपने काम के लिए खूब तारीफ बटोरते हैं। लेकिन 2017 में आई हिंदी मीडियम से वो एक बार फिर ऊंची छलांग लगाते हैं, जो उन्हें एकदम से बॉलीवुड के सुपरस्टार्स के समक्ष ले जाकर खड़ी कर देती है। कहानी और उनके अभिनय के दम पर फिल्म खूब पैसा कमाती है और सुपरहिट होती है। इसे बेहद पसंद किया जाता है। इसके लिए इरफान को बेस्ट एक्टर फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिलता है।
हाल ही में आई अंग्रेजी मीडियम
इसके बाद इरफान करीब-करीब सिंगल, ब्लैकमेल, कारवां में दिखते हैं। हालांकि इसी दौरान इरफान कैंसर से पीड़ित हो जाते हैं, और इसके खिलाफ एक लंबी जंग लड़ते हैं। वो हिंदी मीडियम के सीक्वल अंग्रेजी मीडियम के लिए साइन कर चुके थे और वो इसे करना भी चाहते थे तो बीमार रहते हुए वो फिल्म की शूटिंग पूरी करते हैं। मार्च 2020 में फिल्म बड़े पर्दे पर रिलीज होती है, लेकिन कोरोना वायरस के चलते हुए लॉकाडाउन से सिनेमाघर बंद हो जाते हैं, कुछ दिनों बाद फिल्म OTT प्लेटफॉर्म पर आ जाती है और इरफान अपनी एक्टिंग के लिए एक बार फिर ताली बटोरते हैं।
हॉलीवुड में भी कमाया नाम
इरफान सिर्फ बॉलीवुड तक ही सीमित नहीं थे, बल्कि हॉलीवुड में भी उन्होंने खूब नाम कमाया। स्पाइडर मैन, लाइफ ऑफ पाई, जुरासिक वर्ल्ड, इन्फर्नो आदि फिल्मों से उन्होंने हॉलीवुड में भी अपनी धमक दिखाई। यहां भी उन्हें खूब सफलता मिली। 2001 में आई द वॉरियर भी इरफान के करियर की टर्निंग प्वाइंट साबित हुई थी, ये एक ब्रिटिश फिल्म थी जिसका निर्देशन आसिफ कपाड़िया ने किया था और ये फिल्म कई अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में दिखाई गई। इससे इरफान को खूब पहचान मिली।
इतना काम कर चुके और सिनेमा को इतना कुछ दे चुके इरफान के लिए यही लगता है कि उन्हें तो अभी बहुत कुछ करना था, अभी तो उनके पास बहुत कुछ बाकी था। लेकिन सच इससे लग था, दरअसल, इरफान के पास समय नहीं था। इरफान हमारे बीच से चले गए हैं और बड़ा खालीपन छोड़ गए हैं।