नई दिल्ली : स्टीफन हॉकिंग ने विज्ञान में अपना योगदान तब दिया, जब उनके शरीर के तमाम अंगों में से बस दिमाग ही काम करता था। 21 साल की उम्र में उनको पता चल गया था कि वह मोटर न्यूरॉन डिसीज (MND) से पीड़ित हैं। तब डॉक्टर्स ने उन्हें कुछ ही साल का मेहमान बताया था लेकिन इस उनकी ये बीमारी धीमी गति से बढ़ी और उन्होंने करीब 50 साल विज्ञान को समर्पित कर दिए। बता दें कि 14 मार्च को बिग बैंग और ब्लैक होल की थ्योरी समझाने वाले इस महान वैज्ञानिक का 76 साल की उम्र में निधन हो गया।
1973 वह साल था जब 21 साल के स्टीफन हॉकिंग ऑक्सफ़ोर्ड से फिजिक्स में फर्स्ट क्लास डिग्री लेने के बाद कॉस्मोलॉजी में पोस्टग्रेजुएट रिसर्च करने के लिए कैम्ब्रिज चले गए। यहां आने के बाद खुद में कमजोर महसूस करने लगे थे और उनको चलने में दिक्कत आने लगी थी। जांच करवाने पर जो सामने आया, वह हैरान करने वाला था। स्टीफन तो पता चला कि वो मोटर न्यूरॉन बीमारी से पीड़ित हैं। घुड़सवारी और नौका चलाने के शौकीन स्टीफन के शरीर का ज्यादातर हिस्सा लकवाग्रस्त हो गया था।
क्या है मोटर न्यूरॉन डिसीज (MND)
बीबीसी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि ये एक असाधारण स्थिति है जो दिमाग और तंत्रिका पर असर डालती है। ये बीमारी दिमाग और तंत्रिका के सेल में परेशानी पैदा होने की वजह से होती है। ये सेल काम करना बंद कर देते हैं। न्यूरॉन मोटर बीमारी को एमीट्रोफ़िक लैटरल स्क्लेरोसिस (ALS) भी कहते हैं।
जिन लोगों को मोटर न्यूरॉन डिसीज या उससे जुड़ी परेशानी फ्रंटोटेम्परल डिमेंशिया होती है, उनसे करीबी संबंध रखने वाले लोगों को भी ये हो सकती है। लेकिन ज्यादातर मामलों में ये परिवार के ज्यादा सदस्यों को होती नहीं दिखती। इससे शरीर में कमजोरी पैदा होती है जो समय के साथ बढ़ती जाती है। ये बीमारी हमेशा जानलेवा होती है और जीवनकाल सीमित बना देती है। हालांकि कुछ लोग, जिनमें यह धीमी गति से बढ़ती है, वे ज्यादा जीने में कामयाब हो जाते हैं। शायद ऐसा ही हॉकिंग के मामले में भी हुआ।
हालांकि इस बीमारी का कोई सटीक इलाज नहीं है लेकिन कई ऐसी तकनीक हैं जो आम जीवन पर पड़ने वाले इसके असर को सीमित बना देती है। आमतौर पर MND 60 और 70 की उम्र में हमला करती है लेकिन ये सभी उम्र के लोगों को हो सकती है। इस बीमारी में समय के साथ चलने-फिरने, खाना निगलने, सांस लेने में मुश्किल होती जाती है। खाने वाली ट्यूब या मास्क के साथ सांस लेने की जरूरत पड़ती है। ये बीमारी आखिरकार मौत तक ले जाती है लेकिन किसी को अंतिम पड़ाव तक पहुंचने में कितना समय लगता है, ये अलग-अलग हो सकता है।
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क्या हैं लक्षण
इस बीमारी के लक्षण धीरे-धीरे सामने आते हैं और ये हो सकते हैं :
- - एड़ी या पैर में कमज़ोरी महसूस होना
- - बोलने में दिक्कत होने लगती है और कुछ तरह का खाना खाने में भी परेशानी होती है
- - पकड़ कमजोर हो सकती है
- - मांसपेशियों में क्रैम्प आ सकते हैं
- - वजन कम होने लगता है. हाथ और पैरों की मांसपेशिसां दुबली होने लगती हैं
- - इमोशंस काबू में नहीं रहते
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कैसे लगाते हैं पता
शुरुआती चरणों में इस बीमारी का पता लगाना मुश्किल है क्योंकि इसके लिए कोई टेस्ट नहीं है। हालांकि ब्लड टेस्ट, दिमाग और रीढ़ की हड्डी का स्कैन, मांसपेशियों और तंत्रिका में इलेक्ट्रिकल एक्टिविटी को आंकने का टेस्ट, लम्पर पंक्चर जिसमें रीढ़ की हड्डी में सुई डालकर फ्लूड लिया जाता है आदि के जरिए इसका पता लगाया जाता है।
कैसे होता है इलाज
इस बीमारी के ट्रीटमेंट में स्पेशलाइज्ड क्लीनिक या नर्स की जरूरत होती है जो ऑक्युपेशनल थेरेपी अपनाते हैं ताकि रोजमर्रा के कामकाज करने में कुछ आसानी हो सके। फिजियोथेरेपी और दूसरे व्यायाम कराए जाते हैं ताकि मसल्स की ताकत बची रहे। स्पीच थेरेपी और डाइट पर ध्यान दिया जाता है। दवाइयों के साथ ही इमोशनल केयर भी जरूरी होती है।