- भोपाल में 2-3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात यूनियन कार्बाइड कैमिकल प्लांट से जहरीली गैस का रिसाव हुआ था
- तकरीबन 50 हजार लोग इसकी चपेट में आ गए, जो आज भी इसके जख्म के साथ जीने को मजबूर हैं
- यहां की मिट्टी व भूमिगत जल में लगातार रसायन का रिसाव हुआ, जिसका असर आज भी देखा जाता है
नई दिल्ली : मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 35 साल पहले 2-3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात हजारों लोगों के लिए कहर बनकर आई, जो कड़ाके की ठंड के बीच सर्द आधी रात में बेखबर सो रहे थे। उन्हें शायद ही मालूम था कि वे अगली सुबह का सूरज नहीं देख पाएंगे। यूनियन कार्बाइड कैमिकल प्लांट से निकली जहरीली गैस ने 24 घंटे के भीतर हजारों लोगों को निगल लिया तो उन लोगों के लिए जिंदगीभर का दंश दे गया, जो इस भीषण गैस कांड में बच तो गए, पर कई विसंगतियों के साथ जीवन जीने को मजबूर हुए।
यूनियन कार्बाइड कैमिकल प्लांट से निकली जहरीली गैस के कारण जान गंवाने वालों की संख्या सरकारी आंकड़ों में यूं तो 3800 के आसपास बताई गई है, जबकि पीड़ितों के लिए न्याय की मांग को लेकर आज भी अभियान चला रहे कई संगठनों का मानना है कि उस भीषण त्रासदी में लगभग 20,000 लोगों की जान गई। गैस कांड की चपेट में सिर्फ भोपाल की धरती पर जिंदा लोग ही नहीं आए, बल्कि वे मासूम भी आए, जिनका सामना इस बाहरी दुनिया से अब तक नहीं हुआ था, बल्कि वे मां के गर्भ में ही एक अलग दुनिया में पल रहे थे।
हादसे का शिकार हुए कई लोग जिंदगीभर के लिए विकलांग हो गए तो कई लोगों को फेफड़ों से जुड़ी बीमारी हो गई और पूरी जिंदगी हांफते-हांफते बीती। स्थानीय लोगों का कहना है कि गैस रिसाव कांड के 35 बीत जाने के बाद भी वे मूलभूत सुविधाओं को तरस रहे हैं और जिंदगी अब भी हादसे के जख्मों और कई तरह के स्वास्थ्य विकारों के साथ जी रहे हैं, जबकि बच्चे अब भी कई तरह की स्वास्थ्य विसंगतियों व विकलांगता के साथ पैदा हो रहे हैं और इसी तरह जिंदगी जीने को मजबूर हैं।
इस तरह 2 दिसंबर, 1984 की स्याह रात को हुए इस हादसे ने न सिर्फ उस वक्त के लोगों का जीवन बर्बाद किया, बल्कि आने वाली कई नस्लों को भी अभिशप्त जिंदगी जीने को मजबूर किया। भोपाल में 35 साल पहले हुई इस त्रासदी में लगभग 50 हजार लोग प्रभावित हुए थे, जो इस शहर की तकरीब दो-तिहाई आबादी के बराबर है। ये सब यूनियन कार्बाइड रासायनिक संयंत्र से निकली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस व अन्य जहरीले रसायन की चपेट में आ गए थे।
पीड़ितों के लिए अभियान चलाने वालों का मानना है कि यहां की मिट्टी व भूमिगत जल में लगातार रसायन का रिसाव हुआ, जिसका असर आज भी देखा जा रहा है। यही वजह है कि यहां एक पाइप के जरिये लोगों को साफ पानी पहुंचाया जाता है। यह घटना सरकार के कामकाज के तौर-तरीकों पर भी सवाल खड़े करती है, जिसने इस बारे में कई चेतावनियों को अनसुना करते हुए अमेरिकी रासायनिक कंपनी डाव केमिकल्स को भोपाल में तमाम सुरक्षा पहलुओं की अनदेखी करते हुए अपना कारोबार चलाते रहने की अनुमति दी और लोगों की सुरक्षा को दरकिनार किया।
भोपाल में 1969 में यूनियन कार्बाइड का कीटनाशक कारखाना खोले जाने के कुछ वर्षों बाद स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय मीडिया तक ने इस मुद्दे को उठाया था कि कंपनी तमाम सुरक्षा नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अपना कारोबार जारी रखे हुए है, जो किसी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता है। लेकिन राज्य से केंद्र तक की तत्कालीन सरकारों ने इसे अनसुना कर दिया और फिर 2-3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात वह मनहूस आशंका सच साबित हो गई, जिसने हजारों मासूम जिंदगियों को निगल लिया।
घटना के बाद यूनियन कार्बाइड का मुख्य प्रबंध अधिकारी वॉरेन एंडरसन तब रातोंरात भारत छोड़कर अपने देश अमेरिका फरार हो गया। हादसे के 35 साल बाद भी इस मामले में गुनहगारों को सजा नहीं मिली, जिसका पीड़ितों को अब भी इंतजार है।