- उत्तर प्रदेश की 403 विधान सभा सीटों में से 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं।
- साल 2012 से यह देखा गया है कि 84 सीटों में से जिस दल को ज्यादा सीटें मिलीं, उसके लिए बहुमत हासिल करना आसान हो गया।।
- प्रदेश में 20-21 फीसदी दलित हैं। जिसमें 54 फीसदी के करीब जाटव की आबादी है।
नई दिल्ली। उत्तर प्रदेश में 2022 के विधान सभा चुनावों को देखते हुए भाजपा ने नई रणनीति बनानी शुरू कर दी है। इसी के तहत बनारस में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक की तैयारी है। जिसमें दलित वोटरों को साधने की रणनीति पर फोकस होगा। यह बैठक अगले महीने आयोजित की जा सकती है। अहम बात यह है कि बनारस प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है। ऐसे में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक 2022 के चुनावों के मद्दनेजर काफी अहम साबित हो सकती है।
सूत्रों के अनुसार 2022 के चुनावों के मद्दनेजर इस बैठक में कई अहम प्रस्ताव पारित हो सकते हैं। जिसमें दलित वोटरों को साधने पर खास तौर से फोकस रहेगा। जिसके जरिए पार्टी गैर जाटव वोटरों के साथ-साथ जाटव वोटों में बड़ी सेंध लगाने की कोशिश करेगी। भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के एक वरिष्ठ पदाधिकारी का कहना है कि पार्टी के लिए यह बैठक काफी अहम होने वाली है। और 2022 में ज्यादा से ज्यादा दलित वोटरों को भाजपा के साथ जोड़ने में अहम भूमिका निभाएगी।
यूपी में कितने मजबूत हैं दलित वोटर
उत्तर प्रदेश में ओबीसी वोटरों के बाद दलित वोटरों की बड़ी संख्या है। प्रदेश में 20-21 फीसदी दलित हैं। जिसमें सबसे ज्यादा जाटव वोटर हैं। जिनकी कुल दलित वोटर में 50 फीसदी से ज्यादा संख्या है। जो कि बहुजन समाज पार्टी के सबसे बड़े वोट बैंक हैं। जिसका सबसे बड़ा फायदा पार्टी प्रमुख और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्य मंत्री मायावती को मिलता रहा है। इसके अलावा गैर जाटव में पासी, धोबी, कोरी, वाल्मीकि, गोंड, खटिक, धानुक जैसे दलित हैं। जो कि कुल दलितों में 40-45 फीसदी हिस्सेदारी रखते हैं। इन जातियों में भारतीय जनता पार्टी की अच्छी पकड़ हैं और 2014 से उसे मजबूत समर्थन मिल रहा है।
84 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित
उत्तर प्रदेश की 403 विधान सभा सीटों में से 84 सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं। और 2012 से यह देखा गया है कि जिस राजनीतिक दल को 84 सीटों में ज्यादा से ज्यादा सीटें मिलीं उसके लिए बहुमत बहुमत का जादुई आंकड़ा छूना काफी आसान हो गया है। मसलन 2017 के विधान सभा चुनावों में भाजपा को 84 में से 70 सीटें मिलीं थी, इसी तरह जब 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार बनीं तो उसे 58 सीटें और 2007 में जब मायावती ने सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला अपनाकर बहुमत हासिल किया था तो बसपा को 62 सीटें मिली थी। उत्तर प्रदेश में 42 ऐसे जिलें हैं, जहां दलितों की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक है। जाहिर है बहुमत के लिए 84 सीटें काफी मायने रखती हैं और भाजपा 2022 में इन्हें बनाए रखना चाहती है। जिससे कि 20217 वाला इतिहास दोहाराया जा सके।
दलित राजनीति में नए चेहरे
यूपी की दलित राजनीति में 90 के दशक से काशीराम और मायावती प्रमुख चेहरा रहे हैं। और आज भी मायावती के साथ दलितों का एक बड़ा वोट बैंक उनके हैं। दलितों में पैठ बनाने के लिए भीम आर्मी प्रमुख चंद्रशेखर आजाद नया चेहरा बन कर उभरे हैं। और उनकी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रभाव भी बढ़ा है। जो सबसे बड़ी चुनौती बसपा और मायावती के लिए खड़ी कर सकते हैं। इसी को देखते हुए मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को नेशनल कोऑर्डीनेटर बनाया है। जो कि युवाओं को बसपा के साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
भाजपा ने दलित वोटों में बढ़ाई सेंध
लोकनीति की रिपोर्ट के अनुसार भाजपा को बड़े पैमाने पर दलित मतदाताओं का साथ बढ़ता जा रहा है। लोकसभा चुनावों के आधार पर देखा जाय तो पूरे देश में 1971 में भाजपा (जनसंघ) को 10 फीसदी दलित वोट मिला था, जो साल 2014 तक 24 फीसदी पहुंच गया। वहीं कांग्रेस 1971 में 46 फीसदी वोट हासिल करती थी जो कि 2014 में गिरकर केवल 19 फीसदी रह गया । उसी तह बसपा को साल 2004 में 24 फीसदी वोट मिले थे, जो 2014 में गिरकर 14 फीसदी रह गया है।
क्या कहते हैं एक्सपर्ट
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर विवेक कुमार टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल से कहते हैं "2012 में बहुजन समाज पार्टी को करीब कुल 1.96 करोड़ मत मिले थे और वह 2017 में घटकर 1.92 करोड़ हो गया। वही समाजवादी पार्टी को 2012 में 2.10 करोड़ मत मिले जो 2017 में कांग्रेस के साथ गठबंधन के बाद 1.89 करोड़ रह गया। इसके अलावा एक बात और समझनी होगी कि 2021 के पंचायत चुनावों में बड़ी संख्या में ब्राहम्ण उम्मीदवार जीत कर आए हैं। साफ है कि ब्राह्मणों का मोबलाइजेशन हो रहा है। ऐतिहासिक आंकड़े गवाह है कि ब्राह्मण का जब भी मोबालाइजेशन होता है तो दलितों का भी मोबलाइजेशन होता है। ऐसा इसलिए होता है कि जमीनी स्तर पर अभी भी ब्राह्मण लोगों को प्रभावित करते हैं। जहां तक भाजपा की बात है तो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती सत्ता की सभी वर्गों तक साझेदारी करना है। जहां तक गैर जाटव वोट की बात है तो वाल्मिकी,खटिक, पासी (ज्यादातर समय) ,कोरी जैसे दलित उनके साथ हमेशा से साथ रहे हैं।" जहां तक चंद्रशेखर की बात है तो एक बात समझना जरूरी है आंदोलन और राजनीति दो अलग-अलग चीजे हैं। आंदोलन के समय भीड़ इकट्ठा करना आसान है लेकिन उसे वोट में परिवर्तित करना दूसरी बात है। यह बहुत बड़ा सवाल है। दूसरा उनके पास संगठन की मजबूत नहीं है। ऐसे में चुनाव में उनके लिए चमत्कार करना आसान नही है।
साफ है कि भाजपा, सपा से लेकर बसपा, भीम आर्मी चीफ सभी को दलित वोटर की अहमियत पता है। आने वाले दिनों में सभी दल दलित वोटर को अपने साथ जोड़ने की कोशिश करेंगे। ऐसे में देखना है कि 2022 में दलित वोटर का साथ देते हैं।