लाइव टीवी

Agriculture bill 2020: किसानों को मीठी लगेगी उप सभापति की चाय पार्टी?

Updated Sep 22, 2020 | 13:21 IST

कृषि बिल पर रार इस हद तक बढ़ा कि विपक्षी दलों के कुछ सांसदों ने संसदीय परंपरा को तार तार कर दिया। लेकिन राज्यसभा के उपसभापति सांसदों के धरनास्थल पर खुद चाय लेकर गए, यह बात अलग है कि सांसदों ने चाय नहीं पी।

Loading ...
उपसभापति हरिवंश ने रतजगा करने वाले सांसदों को खुद चाय लेकर गए
मुख्य बातें
  • विपक्षी दलों के आठ सांसदों ने कृषि बिल का आक्रामक तरीके से किया था विरोध
  • राज्यसभा के वेल में पहुंच सभापति आसन की माइक को उखाड़ने की कोशिश की थी
  • सभापति ने अनुशासन तोड़ने के मामले में आठों सांसदों को किया निलंबित

(अश्विनी कुमार)
मंगलवार (आज) सुबह संसद परिसर में एक राहत की तस्वीर दिखी. राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश नारायण सिंह 8 सांसदों के लिए खुद गर्मागर्म चाय लेकर पहुंचे. ये सांसद अपने निलंबन के खिलाफ ‘मौन गांधी मूर्ति’ के आगे धरने पर बैठे थे. इनका निलंबन किसान बिल पर संसद में इनके आचरण की वजह से हुआ था. इन्होंने जो कुछ किया था उसे पूरे देश ने देखा था और अब चाय के बहाने सबको सुनने-समझने की लोकतंत्र की सबसे खूबसूरत तस्वीर भी सबने देखी.

हालांकि अपनी इस उदारता से उच्च सदन के डिप्टी चेयरमैन को अपने किसी भी संवैधानिक कर्तव्य के प्रति कोई छूट नहीं मिल जाती. न ही कृषि बिल पेश होने के वक्त उनके फैसलों पर उठाए जा रहे विपक्ष के सवालों का महत्व कम हो जाता है. किसी भी बिल को पेश करने से लेकर पास होने तक सदन की एक निश्चित प्रक्रिया है. उनका पालन ही दीर्घ अवधि में पक्ष-विपक्ष सबके हित में है. क्योंकि लोकतंत्र के बने रहने की यही गारंटी है.

फिर भी हरिवंश जी की चाय पार्टी स्वागत योग्य है. क्योंकि चाय की गर्माहट के साथ लोकतंत्र में घुस आया जिद का कठोर तत्व उसी संसद परिसर में पिघलता दिखा, जहां पर दो रोज पहले पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे पर लोकतंत्र के मर्दन का आरोप लगा रहे थे. उम्मीद है यहां से चीजें थोड़ी पटरी पर आएंगी. विपक्ष ने अगर लक्ष्मण रेखा लांघी है, तो प्रायश्चित करेगा और अगर सरकारी पक्ष ने विपक्ष के किसी हक की अनदेखी की है, तो वे भी भूल सुधार करेंगे.

लेकिन देश को जिस बात की सबसे ज्यादा अपेक्षा रहेगी वह यह कि किसानों के हित सुरक्षित होने की गारंटी मिलेगी. क्योंकि किसानों से जुड़े बिलों पर बहुत असमंजस है और विरोधाभासी बातें भी बहुत हो रही हैं.

मीठी चाय...अब सरकार लौटाए किसानों के दिलों में मिठास

वापस बड़ा सवाल यही है कि केंद्र सरकार जो नया कानून लेकर आई है, उसका वाकई किसानों पर काफी असर होगा? उन्हें लाभ होगा या हानि होगी? या ज्यादा लाभ होगा और थोड़ी हानि भी? या नए कानूनों के पीछे किसानों की सिर्फ हानि ही हानि है?

इसकी अंतिम व्याख्या यहां नहीं की जा सकती. विशेषज्ञों की राय आनी जारी है, लेकिन वे भी एकमत नहीं हैं. कोई कह रहा है कि मंडियों का वजूद खत्म हो जाएगा. किसी की दलील है कि कृषि उत्पादों की सरकारी खरीद धीरे-धीरे खत्म हो जाएगी और किसान औद्योगिक घरानों के हाथों का खिलौना बन जाएंगे. जबकि खुद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि ये बिल किसानों के हक में है और क्रांतिकारी है. 2014 से ही पीएम मोदी ने जिस जोरदारी के साथ किसानों की आय दोगुनी करने की बात कही है और तमाम दूसरे कृषि सुधार के उपाय चलाए हैं, उसे देखते हुए पीएम की बातों को सिरे से खारिज करने की सूरत तो नहीं बनती.

हरसिमरत के इस्तीफे ने सरकार पर शक बढ़ाया !

हरसिमरत का इस्तीफा इस कयास को मजबूत जरूर करता है कि इन बिलों से किसानों को कुछ-न-कुछ तो परेशानी आ सकती है. क्योंकि ऐसा नहीं होता, तो बादल एक ऐसे मजबूत साथी से क्यों छिटककर दूर जा रहे होते, जिनके 2024 में फिर से लौटने की अभी से भविष्यवाणी होने लगी है? और वो भी इस हकीकत को समझते हुए कि पंजाब में मजबूत कांग्रेस के सामने अकालियों के पास बीजेपी के सिवा और कोई विकल्प ही नहीं है?

शायद पंजाब-हरियाणा के 70 प्रतिशत तक किसानों की सरकारी खरीद पर निर्भरता और इस वजह से उनकी नाराजगी के भय ने बादल को मजबूर किया. नतीजे में हरसिमरत कौर के इस्तीफे ने ही सबसे ज्यादा इस बिल पर शक की वजहों को मजबूत किया.

शिवसेना के यू-टर्न में भी कहानी?

हरसिमरत के जरिए बिल के इसी नब्ज को शिवसेना ने भी पकड़ा है. पहले बिल के समर्थन का संकेत दे रही शिवसेना अब कह रही है कि सरकार जब मंत्री को ही नहीं समझा पाई, तो किसानों को कैसे समझाएंगे? संजय राउत बीजेपी और केंद्र सरकार को एक सलाह भी दे रहे हैं. उनका कहना है कि मोदी सरकार किसानों से जुड़े इतने बड़े मुद्दे पर शरद पवार जैसे कद्दावर किसान नेता की सलाह ले. सलाह लेने की इस सलाह में कोई परेशानी नहीं है. विरोधियों को भी सुनने की राजनीति में खत्म होती परिपाटी को इसी बहाने जीवित की जाए, तो क्या बुरा है? लेकिन तभी राउत से एक सवाल जरूर बनता है कि क्या शिवसेना तब भी केंद्र की बीजेपी सरकार से पवार से सलाह लेने के लिए कहती, अगर वह पूर्ववत बीजेपी के साथ गठबंधन में होती? क्योंकि लोग तो पूछेंगे न कि कहीं ये महाराष्ट्र के बेमेल गठबंधन वाली सरकार के चलते रहने की सबसे बड़ी गारंटी यानी शरद पवार को सम्मान बख्शने और आशीष लेने की एक और कोशिश तो नहीं है? रही बात सामने वाले की सलाह सुनने और समझने की, तो मुंबई में जो कुछ चल रहा है, उसमें शिवसेना ही कहां किसी की सुनने के लिए तैयार है?

कांग्रेस और बीजेपी के बस रोल बदल गए हैं?

सुषमा स्वराज का 2012 में लोकसभा में दिये एक भाषण को याद किया जा रहा है. इसमें खेती-किसानी में कॉरपोरेट की घुसपैठ के खिलाफ सुषमा यूपीए सरकार पर बरस रही हैं. सुषमा अपने भाषण में एक किसान के लिए आढ़तियों की अहमियत बता रही हैं. आढ़तियों को किसानों का ‘एटीएम’ कहती हैं और उनके वजूद पर किसी भी तरह के हमले को किसान पर हमला बता रही हैं. साथ में

सरकार से (तत्कालीन मनमोहन सरकार) यह भी सवाल करती हैं कि किसान की बेटी या बहन की शादी होगी तो क्या वॉलमार्ट या दूसरे कॉरपोरेट घरानों के दिल में वही संवेदना होगी, जो किसानों के लिए आढ़तियों में होती है?अब कांग्रेस विपक्ष में है तो ठीक वही बातें राहुल कह और पूछ रहे हैं, जो सुषमा स्वराज ने कही थीं. राहुल का कहना है कि- “ नया कृषि कानून जमींदारी का नया रूप है और मोदी जी के कुछ ‘मित्र’ नए भारत के जमींदार होंगे. कृषि मंडी हटी, देश की खाद्य सुरक्षा मिटी.”

अजीब इत्तेफाक है. किसान वहीं का वहीं खड़ा है. बस पार्टियों के रोल बदल रहे हैं और बदलते रोल के साथ उनके तर्क बदल रहे हैं. ऐसे में सवाल उठा रही कांग्रेस पर तो सवाल है ही. बीजेपी और मौजूदा सरकार पर इस बात की जिम्मेदारी है कि वह देश और खासतौर से किसानों को समझाए कि कांग्रेसी सरकार के जिन कदमों का वह विपक्ष में रहते हुए विरोध कर रही थी, मौजूदा बिल उससे कैसे और कितना अलग है?

वैसे, खुद कांग्रेस की एक विचित्र स्थिति दो सीनियर नेताओं के बयानों से जाहिर हुई. पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की नजर में हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा ड्रामा है. वहीं, पार्टी के सांसद दिग्विजय सिंह केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफे के लिए हरसिमरत को बधाई दे रहे हैं. अब यह कांग्रेस ही बता सकती है कि किसी का कोई फैसला अगर ड्रामा है, तो उसी फैसले के लिए उसी शख्स को बधाई कैसे दी जा सकती है?

फिर भी सोचना तो पड़ेगा !

सहयोगी पार्टी अकाली दल ने मंत्रिमंडल से रिश्ता तोड़ लिया. तमाम विवादित बिलों पर संसद में बीजेपी का साथ देने वाली बीजेडी ऐन मौके पर कृषि बिल के खिलाफ हो गई. यूं ही विरोध के लिए विरोध न करने वाली के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस ने सवाल किया- कृषि बिल ऐतिसाहिक तो किसान जश्न क्यों नहीं मना रहे? और तो और, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ तक ने बिल को किसानों के खिलाफ बता दिया. इसकेबाद केंद्र सरकार की मंशा भले ही अच्छी हो, उसे अच्छी मंशा का पूरा लेखा-जोखा भी किसानों के सामने रखना होगा. उन्हें आश्वस्त करना ही होगा.

डिस्क्लेमर: टाइम्स नाउ डिजिटल अतिथि लेखक है और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।

Times Now Navbharat पर पढ़ें India News in Hindi, साथ ही ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें गूगल न्यूज़ पर फॉलो करें ।