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EXCLUSIVE:ऑटोवाले से 'महा'समर के नायक तक! एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र का साहेब बनने का सपना किसके इशारे पर देखा?

Updated Jun 25, 2022 | 21:17 IST

एकनाथ शिंदे कभी बाला साहेब ठाकरे से राजनीति सीखी। वो अचानक ठाकरे परिवार के खिलाफ बगावत पर क्यों उतर आए ? आखिर एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र का साहेब बनने का सपना किसके इशारे पर देखा? TIMES NOW नवभारत पर EXCLUSIVE रिपोर्ट।

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महाराष्ट्र में सियासी खींचतान चरम पर है। लड़ाई आर-पार की है। एक तरफ गुवाहाटी में बैठे एकनाथ शिंदे खुलकर बगावत कर रहे हैं। सत्ता और पार्टी पर कब्जे की प्लानिंग कर रहे हैं। दूसरी ओर उद्धव ठाकरे ने बागी विधायकों को सख्त एक्शन की चेतावनी दी है। इस बीच शिंदे गुट ने नई पार्टी बना ली है नाम दिया है- शिवसेना बाला साहेब ठाकरे। जिसके बाद महाराष्ट्र में किसकी सरकार की लड़ाई किसके बाला साहेब तक पहुंच गई है। जिसकी खबरें आप लगातार TIMES NOW नवभारत पर देख रहे हैं लेकिन अब हम आपको एक EXCLUSIVE रिपोर्ट दिखाने जा रहे हैं। ये बताने जा रहे हैं कि जिस एकनाथ शिंदे कभी बाला साहेब ठाकरे से राजनीति सीखी। वो अचानक ठाकरे परिवार के खिलाफ बगावत पर क्यों उतर आए ? आखिर एकनाथ शिंदे ने महाराष्ट्र का साहेब बनने का सपना किसके इशारे पर देखा? और वो कौन सी शक्ति है जिसकी प्रेरणा से शिंदे, आज महाराष्ट्र का किंग बनना चाह रहे हैं? 

सामने हैं उद्धव ठाकरे, पार्टी है शिवसेना। वही शिवसेना जिसकी स्थापना 1966 में बाला साहेब ठाकरे ने की थी। मकसद था सरकारी नौकरियों में मराठी समाज को प्राथमिकता दिलाना, मराठी भाषा और मराठी संस्कृति को बढ़ावा देना लेकिन 1980 के दशक में बाला साहेब ने शिवसेना में हिन्दुत्व और क्षेत्रवाद को मिला दिया और बन गए हिन्दुत्व के सबसे बड़े ब्रैंड ऐम्बेस्डर।

आज महाराष्ट्र में हिंदुत्व के सबसे बड़े ब्रैंड ऐम्बेस्डर बनना चाहते हैं एकनाथ शिंदे। इसी हिंदुत्व के नाम पर शिंदे ने यलगार कर दी। पार्टी से विधायकों को अपने पाले में किया। नंबर गेम में आगे निकल गए। मुंबई टू गुवाहाटी भाया सूरत सरकार बनाने और शिवसेना के असली उत्तराधिकारी का दावा ठोंक दिया। इस सियासी जंग में शिंदे के सामने हैं उद्धव ठाकरे हैं। जो तस्वीरें और खबरें आ रही हैं उसके मुताबिक उद्धव कमजोर पड़ रहे हैं। नंबर गेम में पिछड़ रहे हैं। इमोशनल कार्ड खेल रहे हैं।

सवाल है आखिर बागी एकनाथ शिंदे की ताकत में अचानक इजाफा हुआ या फिर शिंदे को ये सुपरपावर कहीं और से मिला। आज स्पेशल रिपोर्ट में हम आपको शिंदे के सुपर पावर से मिलवाएंगे। शिंदे की शक्ति का सोर्स बताएंगे लेकिन उससे पहले आपको शिंदे के सियासी सफर पर लिए चलते हैं।

मुंबई से लगा हुआ है ठाणे शहर, 80 के दशक में यहां का एक ऑटो ड्राइवर आज की तारीख में महाराष्ट्र के महासमर का सबसे बड़ा नायक बन चुका है। महाराष्ट्र के सतारा के रहने वाले एकनाथ शिंदे ने भले ही स्कूली शिक्षा की शुरुआत अपने गांव से की थी लेकिन सियासत का ककहरा उन्होंने ठाणे में ही सीखा। ठाणे में एकनाथ शिंदे आनंद दिघे के संपर्क में आए। 90 के दशक में आनंद दिघे को ठाणे का बाल ठाकरे कहा जाता था। ये वो दौर था जब शिवसेना में बाला साहेब के बाद किसी दूसरे नेता का नाम आता था तो वो आनंद दिघे ही थे। दिघे की अंगुली पकड़कर एकनाथ शिंदे सियासत की सीढ़ियां चढ़ने लगे। शिंदे ने 33 साल की उम्र में सियासी पारी की शुरुआत की और 1997 में ठाणे नगर निगम में पार्षद चुने गए।

अब मुंबई और महाराष्ट्र में लगे इन पोस्टरों को देखिए इसमें आपको शिंदे के साथ बाला साहेब के साथ जो तीसरा शख्स दिख रहा है। वो आनंद दिघे ही हैं। आनंद दीघे के राजनीतिक कद का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि महाराष्ट्र में बाला साहब को भी लगने लगा था कि कहीं वे पार्टी से बड़े नेता न बन जाएं। ठाणे में तो दीघे के सामने किसी राजनीतिक हस्ती की कोई बिसात ही नहीं थी।

सियासी पारी शुरू करते ही शिंदे को बड़ा पारिवारिक झटका तब लगा जब सतारा में आंखों के सामने उनके दो बेटे शुभदा और दीपेश नदी में डूब गए। शिंदे राजनीति छोड़ अपने गांव की ओर रुख करने का मन बना रहे थे लेकिन आनंद दिघे ने उन्हें समझाया। हमेशा के लिए ठाणे छोड़ने से रोका। शिंदे मान गए। 2001 में नगर निगम में सदन के नेता बन गए।     

एकनाथ शिंदे अभी सियासत में पूरी तरह से जमे भी नहीं थे कि 26 अगस्त 2001 को एक हादसे में आनंद दिघे की मौत हो गई। उनकी मौत को आज भी कई लोग हत्या मानते हैं। दीघे के निधन के बाद पूरे ठाणे इलाके में शिवसेना के नेतृत्व में खालीपन आ गया। पार्टी की पकड़ कमजोर होने लगी लेकिन बाला साहेब ने एकनाथ शिंदे को ठाणे की कमान सौंप दी। ठाणे की जनता भी दिघे के शिष्य को हाथों हाथ लिया। जनता का भी उन्हें प्यार मिला और पार्टी का परचम पूरे इलाके में फिर से लहराने लगा। 2004 में एकनाथ शिंदे पहली बार शिवसेना की टिकट पर विधायक बने।

विधायक बनने के बाद एकनाथ शिंदे की पार्टी और संगठन पर पकड़ बढने लगी। साथ ही मातोश्री के साथ नजदीकी भी। जब नारायण राणे ने शिवसेना छोड़ कांग्रेस का दाम थामा तब शिवसैनिकों को सड़कों पर चुनौती का सामना करना पड़ा। इस हालात को निपटने में भी शिंदे का रोल बेहद अहम था लेकिन जब राज ठाकरे ने शिवसेना को अलविदा कहा उसके बाद संगठन में शिंदे की जिम्मेदारी और बढ़ गई।

शिवसेना खासकर बाला साहेब की शिंदे पर निर्भरता बढ़ती जा रही थी और जब 2006 में राज ठाकरे ने पार्टी छोड़ महाराष्ट्र नवनिर्णाण सेना बनाई तब ठाकरे परिवार से बाहर शिंदे ही ऐसे शख्स थे। जिसपर संगठन को लेकर बाला साहेब का सबसे ज्यादा भरोसा था। कहा जाता है कि कांग्रेस जो उक्त सत्ता में थी। उसने शिंदे को मंत्री पद का ऑफर दिया था लेकिन उन्होंने साफ इनकार कर दिया था।

एकनाथ शिंदे शिवसेना में रहते हुए 2004 के बाद 2009, 20014 और 2019 यानी लगातार चार बार विधायक रहे हैं। 2014 में पहली बार मंत्री बने। फडणवीस सरकार में PWD मंत्री की जिम्मेदारी मिली। इसके बाद 2019 में बनी महाविकास अघाड़ी की सरकार में शिंदे को नगर विकास मंत्रालय का जिम्मा मिला। यानी शिंदे को दोनों बार बड़े मंत्रालय मिले।

आज महाराष्ट्र में मचे सियासी बवाल के पीछे एकनाथ शिंदे हैं हैं। शिवसेना का आरोप है कि शिंदे अकेले नहीं हैं। उनकी पीठ पर बीजेपी का हाथ है। ऐसे में ये समझना भी जरूरी है कि शिंदे की बीजेपी खासकर देवेंद्र फणड़वीस के बीच करीबी कब और कैसे बढ़ी।

2014 में जब बीजेपी-शिवसेना गठबंधन की फणनवीस सरकार बनी तो शिंदे को लोक निर्माण मंत्री बनाया गया था। 2015 में जब तत्कालीन सीएम देवेंद्र फडणवीस ने 12,000 करोड़ रुपये के नागपुर-मुंबई एक्सप्रेसवे की घोषणा की, तो उन्होंने अपनी पसंदीदा प्रोजेक्ट को लागू करने के लिए शिंदे को चुना और यही वो दौर था जब धीरे-धीरे शिंदे की फडणवीस से करीबी बढ़ती गई।

2019 में महाविकास अगाड़ी की सरकार बन गई। सरकार में नंबर दो की हैसियत थी। सीएम उद्धव ठाकरे के ठीक बाद शपथ लेने वाले एकनाथ शिंदे ही थे। एकनाथ शिंदे को नगर विकास जैसे बड़े मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई। जो आमतौर पर महाराष्ट्र के सीएम अपने पास रखते है लेकिन सियासी जानकार कहते हैं कि एकनाथ शिंदे को शुरूआत से ही महाविकास अगाड़ी को लेकर ऐतराज था।

ऐतराज इस बात को लेकर कि जिस शिवसेना के कोर एजेंडे में हिंदुत्व था वो पार्टी अपनी विचारधारा से ठीक उलट पार्टियों से समझौता कैसे कर सकती है। भारी मन से किसी तरह ढाई साल तक कांग्रेस-एनसीपी के साथ उन्होंने काम किया लेकिन जब शिंदे को लगा कि सरकार की नीति हिंदुत्व के कोर एजेंडे से पूरी तरह से भटक चुकी है।
 

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