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किसान महापंचायत: पश्चिमी यूपी में भाजपा क्या निकालेगी तोड़ ? ये हैं चुनौतियां

Updated Sep 06, 2021 | 16:46 IST

भाजपा नेताओं को लगता है कि केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के काम-काज संयुक्त किसान मोर्चे के राजनीतिक मंसूबों पर भारी पड़ेंगे। हालांकि यह बात भी साफ है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 2014 जैसी एकतरफा स्थिति नहीं है।

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तस्वीर साभार:&nbspANI
मुजफ्फरनगर में किसान महापंचायत
मुख्य बातें
  • भाजपा ने 2014 के लोक सभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 50 फीसदी और 2017 के विधान सभा चुनाव में 40 फीसदी से ज्यादा वोट हासिल किया था
  • अभी तक संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने यह साफ नहीं किया है कि वह भाजपा को हराने के लिए किस पार्टी का समर्थन करेंगे।
  • देश के 83 फीसदी किसानों के पास कुल जोत की केवल 30 फीसदी जमीन है।

नई दिल्ली:  रविवार को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर के राजकीय इंटर कॉलेज में हुई किसान महापंचायत में किसान नेताओं ने  वोट की चोट (भाजपा को हराने) का ऐलान कर दिया है। और उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों को देखते हुए संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रदेश के प्रत्येक जिले में मोर्चे का गठन करने का भी ऐलान  किया है। साफ है कि चुनावों में संयुक्त किसान मोर्चा अपनी पहली ताकत उत्तर प्रदेश में आजमाने की तैयारी में हैं। कल की भीड़ को देखते हुए भाजपा के कई नेताओं के बयानों से साफ हो गया है कि किसान आने वाले समय में पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। 

पीलीभीत से भाजपा सांसद वरुण गांधी ने ट्वीट कर कहा है "मुजफ्फरनगर में लाखों किसान इकट्ठा हुए। वह हमारे ही हैं, हमें उनको दोबारा इज्जत के साथ जोड़ने की कोशिश करना चाहिए। उनके दर्द, नजरिए को समझते हुए एक आम सहमति पर पहुंचना चाहिए।" असल में वरुण गांधी जिस पीलीभीत से सांसद हैं वहां पर किसानों की बड़ी तादाद है। खास तौर से सिख समुदाय के वहां बहुत लोग खेती करते हैं। उसे देखते हुए किसान आंदोलन के मिले समर्थन और भाजपा को हराने के ऐलान से उनकी चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक हैं। लेकिन क्या पश्चिमी उत्तर प्रदेश के करीब 100 -110 विधान सभा सीटों पर प्रभाव रखने वाले किसान, भाजपा के लिए इतनी बड़ी चुनौती बन सकते हैं कि वह सत्ता से बाहर हो जाय। या फिर वह भाजपा के मिशन 300 प्लस अभियान को फेल कर सकता है।

100 से ज्यादा सीटों पर असर

इसका जवाब इतना आसान नहीं है। क्योंकि भाजपा ने 2014 के लोक सभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 50 फीसदी और 2017 के विधान सभा चुनाव में करीब 44 फीसदी वोट हासिल किया था। ऐसे में दूसरे पार्टियों के लिए उसके वोट बैंक में बड़ी सेंध लगाना आसान नहीं होगा। इसके अलावा एक बड़ी वजह यह है कि अभी तक संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने यह साफ नहीं किया है कि वह भाजपा को हराने के लिए किस पार्टी को समर्थन करेंगे। हालांकि किसानों की सहानुभूति पाने के लिए राष्ट्रीय लोक दल, समाजवादी पार्टी से लेकर कांग्रेस लगी हुई है। ऐसे में अगर किसान भाजपा के खिलाफ वोट देते हैं तो उसका किस दल को सीधा फायदा मिलेगा, यह आने वाले वक्त में ही पता चल पाएगा। लेकिन भाजपा को हराने वाले बयान पर केंद्रीय मंत्री और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता संजीव बालियान ने कहा है "किसानों के आंदोलन ने अब राजनीतिक रंग ले लिया है। हर किसी को राजनीति करने का अधिकार है। अगर संयुक्‍त किसान मोर्चा राजनीति में आना चाहता है तो हम उनका स्‍वागत करेंगे।"  

असल में संजीव बालियान जिस राजनीतिक रंग की बात कर रहे हैं, वह महापंचायत में भी दिखी है। भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने जब रविवार को किसानों को संबोधित किया तो उसमें निजीकरण, महंगाई, और पश्चिम बंगाल चुनाव में भाजपा की हार की चर्चा  रही। हालांकि किसान आंदोलन पर उत्तर प्रदेश के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य ने भी बयान दिया है और कहा है कि जैसे शाहीन बाग का आंदोलन टॉय-टॉय फुस्स हुआ वैसे ही किसान आंदोलन का हाल होगा। क्योंकि किसान आंदोलन में किसान से ज्यादा सपा-कांग्रेस-बसपा के लोग हैं।

पार्टी को खास नुकसान का डर नहीं

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से भाजपा के एक सांसद कहते हैं "देखिए  रैली करना और चुनाव जीतना दो अलग-अलग चीजें है। मैं पूरे दावे से कह सकता हूं कि मेरे संसदीय क्षेत्र में 5 विधान सभा सीटें हैं और सभी जगह भाजपा ही जीतेगी। जहां तक नाराजगी की बात है तो यह बात है कि कुछ लोग नाराज हैं। उसमें भी जाट लोगों में नाराजगी है। लेकिन वह पहले भी भाजपा के वोटर नहीं रहे हैं। ऐसे में चुनावों में बहुत फर्क नहीं पड़ेगा। " 

हालांकि भाजपा नेता और राष्ट्रीय किसान मोर्चा के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नरेश सिरोही सांसद के इस बयान से इत्तेफाक नहीं रखते हैं । वह कहते हैं "जहां तक चुनावी नुकसान की बात है तो असर तो होगा। सबसे बड़ा नुकसान यह है कि पिछले चुनावों में एक बहुत बड़ा वर्ग था जिसने भाजपा को वोट दिया है। लेकिन अब वह दूरी बना कर चल रहा है। और यह दूरी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है।  अब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं। मर्यादाएं टूट रही है। इसे केवल राजनीतिक रुप से नफा-नुकसान के रुप में नहीं देखना चाहिए। 

भाजपा पार्टी के संस्थापक दीनदयाल उपाध्याय ,नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और डॉ मुरली मनोहर जोशी ने पार्टी से किसानों को जोड़ने के लिए अथक प्रयास किए हैं और उसी का परिणाम है कि देश के लगभग सभी किसानों ने जातियों के बंधन को तोड़ कर राष्ट्रवादी विचारधारा से जोड़कर पार्टी को वोट दिया है जिसके कारण पार्टी का आज सत्ता में है। हालांकि मेरा मानना है कि पार्टी को ऐसा लगता है कि किसान आंदोलन से उसे कोई खास नुकसान नहीं होने वाला है।"

एक अन्य नेता का कहना है देखिए यह बात ठीक है कि किसान आंदोलन की वजह से नाराजगी बढ़ी है। लेकिन अगर आप केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार के काम-काज को देखें तो ऐसा नहीं लगता है कि कोई बहुत नुकसान होने वाला है। प्रदेश में एमएसपी पर रिकॉर्ड खरीदारी हुई है। केंद्र सरकार ने लगातार एमएसपी में इजाफा किया है। रिकॉर्ड गन्ने का भुगतान किया गया है। इसके अलावा प्रदेश सरकार का दावा है  26 जुलाई 2021 तक के आंकड़ों के अनुसार , पहली बार 45 लाख गन्ना किसानों को एक लाख 41 हजार 114 करोड़ रुपये के गन्ना मूल्य का रिकार्ड भुगतान किया गया है। पिछले दो दशक में इस सीजन का सर्वाधिक 80 फीसदी भुगतान किया गया है। रमाला, पिपराइच, मुण्डेरवा चीनी मिलों सहित 20 चीनी मिलों का आधुनिकीकरण और विस्तार किया गया है।

 सरकार के इन दावों के बीच यह भी हकीकत है कि पिछले चार साल से राज्य सरकार ने गन्ना खरीद मूल्य में कोई बढ़ोतरी नहीं की है। जिसकी वजह से खास तौर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों में नाराजगी भी दिखती है। हालांकि प्रदेश सरकार की तरफ से ऐसे संकेत हैं कि गन्ना खरीद मूल्य में आने वाले दिनों में बढ़ोतरी हो सकती है। इसके अलावा यह भी हकीकत है कि 26 जुलाई 2021 तक के आंकड़ों के अनुसार पेराई सत्र 2020-21 में करीब 6963.8 करोड़ रुपये यानी 21 फीसदी राशि बकाया है। इसी तरह मिलने वाले ब्याज को शामिल कर लिया जाय तो सपा-बसपा के शासन काल का अभी 5000 करोड़ रुपये बकाया है। तो कुल मिलाकर अभी 12 हजार करोड़ रुपये का बकाया है। जबकि पेराई सीजन शुरू अगले महीने शुरू होने जा रहा  है।

2013 के बाद वाले समीकरण नहीं

उत्तर प्रदेश में भाजपा को 2014 की लोक सभा , 2017 की विधान सभा और 2019 के लोक सभा चुनावों में भारी जीत मिली है। पार्टी को समर्थन का आलम यह था कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख किसान नेता और राष्ट्रीय लोक दल के संस्थापक अजीत सिंह (उनक देहांत हो चुका है) और उनके बेटे जयंत चौधरी भी लोक सभा चुनाव हार गए थे। असल में 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगे  में करीब 60 लोगों की मौत हुई थी। उसके बाद से पश्चिमी उत्तर प्रदेश का राजनीतिक समीकरण बदल गया था। जाट और मुस्लिम जो एक होकर वोट दिया करते थे। उसमें बिखराव हुआ और उसका फायदा भाजपा को मिला। एक जाट नेता का कहना है 2013 में जो हुआ उससे बहुत खटास आ गई थी। लेकिन किसान आंदोलन ने वह दूरियां मिटा दी हैं। हमारे यहां कहावत है कि गुस्से में जाट शादी में तो नहीं जाएगा, लेकिन संकट में वह सब भुलाकर आगे लठ्ठ लेकर खड़ा होगा।  बात अब स्वाभिमान की है। राकेश टिकैत का रोना लोगों के दिल पर लग गया है। सरकार को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि हमने ही उसे दिल्ली की गद्दी पर बिठाया है। वह हमारे साथ ऐसा सलूक कर रही है। किसानों को खालिस्तानी और पाकिस्तानी कह रही है।” एक भाजपा नेता कहते हैं इस तरह के बयान तात्कालिक प्रतिक्रिया थे। धीरे-धीरे माहौल बदल रहा है। हमें पूरी उम्मीद है कि कानून-व्यवस्था, गुंडाराज का सफाया, माफियाओं पर सख्ती, विकास के कार्य और कोरोना काल में उत्तर प्रदेश सरकार के काम को भी जनता देखेगी। 

मुद्दे पीछे रह गए

किसान नेता सिरोही कहते हैं "पूरी दुनिया में खेती के पेशे में बहुत जोखिम है। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है।  बिना सब्सिडी के खेती करना नामुमकिन है। खेती में बढ़ती लागत और बाजार की सापेक्ष मूल्य नीति, कृषि  और किसानों के विरुद्ध है, जिससे अन्य उत्पादों के मुकाबले, कृषि उपज उत्पादों के दाम प्रति वर्ष 12% से लेकर 18% कम रहते हैं, जिसके कारण बाकी व्यवसाय में लगे लोगों के मुकाबले, हर 7 वर्ष में किसानों की आमदनी आधी होती चली जा रही है।  दूसरी ओर किसानों की जोत का आकार लगातार घट रहा है।  70 के दशक में 2.25 हेक्टेअर लैंड होल्डिंग प्रति  किसान परिवार थी और अब वह घटकर एक हेक्टेअर से भी नीचे आ गई है।  

कुल 14.5 करोड़ हेक्टेअर जमीन है। और औसतन 14 करोड़ किसान परिवार हैं। औसतन तो यह एक हेक्टअर प्रति किसान परिवार दिखती है। लेकिन हकीकत यह नहीं है । देश के 83 फीसदी किसान के पास कुल जोत की केवल 30 फीसदी जमीन है। जबकि 17 फीसदी किसानों के पास 70 फीसदी जमीन है। इसमें भी समझने वाली बात है कि जो 83 फीसदी जमीन है, उसमें सिंचाई के बेहतर साधन नहीं है। ऐसे में समझा जा सकता है, किस दुर्दशा के साथ जीवनयापन करते हैं। ऐसे में बड़े फलक पर सोचना चाहिए। नए कृषि कानून को लेकर किसानों की चिंता जायज है। महापाचंयत तो हो रही है, लेकिन इसका अंत क्या है। क्योंकि किसानों के मुद्दे ठीक ढंग से सामने नहीं आ रहे हैं।" 

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