- कारगिल की लड़ाई में लद्दाख स्काउट्स गाइड्स की अहम भूमिका
- बिना तोप और गोले के चोर बाट ला की जंग जीत ली
- 5500 फीट की ऊंचाई पर दुश्मन कर रहा था गोलीबारी लेकिन लद्दाख स्काट्स के वीर सपूत पीछे नहीं हटे
26 जुलाई 1999, भारतीय इतिहास का एक ऐसा दिन है जिसे कोई भी भारतवासी नहीं भुला सकता। आज देश कारगिल विजय दिवस की 21वीं सालगिरह मना रहा है और अपने वीर सपूतों के अदम्य साहस और बलिदान को याद कर रहा है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पाकिस्तान हमेशा से पीठ में छुरा घोंपते आया है। ऐसा ही कुछ साल 1999 में हुआ। एक तरफ भारत-पाकिस्तान के बीच लाहौर में समझौता हो रहा था, तो वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तानी सेना भारत को तबाह करने और कश्मीर को हमसे छीनने की रणनीति बना रहा था। मई आते-आते पाकिस्तान हमारी सरहद में कई किलोमीटर तक अंदर आने और ऊंची चोटियों पर कब्ज़ा करने में सफल हो गया था। लेकिन इसके बाद जो हुआ उससे पूरे विश्व ने भारत के सैनिकों के शौर्य और पराक्रम का लोहा माना। आज इस खास दिन के मौके पर हम आपको भारतीय सेना के स्नो टाइगर्स यानि लद्दाख स्काउट्स के वीरता की गाथा बताने जा रहे हैं, जो आपके दिलों में देशभक्ति की नई ऊर्जा का संचार करेगी।
कैसे रखी गई थी ऑपरशन विजय की नींव
कारगिल की लड़ाई को आप सेक्टर्स में हुई लड़ाई भी कह सकते हैं, जिसे सेना ने टुकड़ियों की मदद से जीता। कारगिल, द्रास, मशकोह, बटालिक ऐसे दुर्गम चोटियों को फिर से फतह करने के लिए हमारे जांबाजों ने 2 महीने तक लड़ाई लड़ी और पाकिस्तान को अपनी सरज़मीं से खदेड़ डाला। लेकिन आज जो वीर गाथा हम आपको बताने जा रहे हैं, दरअसल यहीं से भारत ने अपने विजय की नींव रखी थी।
लद्दाखी टाइगर्स
कारगिल की लड़ाई में लद्दाख स्काउट्स के वीरों ने अपनी बहादुरी और जज़्बे से कामयाबी की नई इबारत गढ़ी थी। आपको पहले लद्दाख स्काउट्स के बारे में बता दें। लद्दाख स्काउट्स में लेह, लद्दाख और तिब्बत के नौजवानों को भर्ती किया जाता है। दुर्गम पहाड़ियों और बर्फ में अच्छे से अच्छा योद्धा घुटने टेक देता है, लेकिन लद्दाख के ये चीते इन दोहरी परिस्थितियों का लुत्फ उठाते हैं। किक्रेट की भाषा में कहें तो इनके लिए ऊंचे पहाड़ और बर्फीली चोटियां ऐसी हैं जैसे वीवीएस लक्ष्मण के लिए कलकत्ता का ईडन गार्डन।
बिना तोप-गोलों के ही जीत ली थी चोरबाट ला की जंग
पाकिस्तानी घुसपैठ की खबर मिलते ही लद्दाख स्काउट्स के जवान मुस्तैद थे, दुश्मन 5500 फीट की ऊंचाई से लगातार गोली बारी कर रहा था और लेह-लद्दाख को भारत से काटना चाहता था। ऐसे में चुनौती थी दुश्मन को मार भगाने की और सेना ने जिम्मेदारी सौंपी लद्दाख स्काउट्स के मेजर सोनम वांगचुक को, जिन्होंने 30-40 जवानों के साथ इस मिशन को अंजाम दिया।
30 मई को वांगचुक के जवानों ने एलओसी के ठीक उस पार 12 से 13 पाकिस्तानी टेंट को स्पॉट किया जिसमें 130 से ज्यादा जवान मौजूद थे। इसके साथ ही उन्होंने 3 से 4 पाकिस्तानी जवानों को दूसरी तरफ से चोटी पर चढ़ाई करते हुए देखा और मार गिराया। लेकिन पाकिस्तानी हर तरफ से चढ़ाई कर रहे थे और दूरी की वजह से उन्हें मारा नहीं जा सकता था। जिसके बाद वहां तैनात जेसीओ ने मेजर वांगचुक तक यह खबर पहुंचाई और उन्होंने मुख्यालय से परमिशन लेकर 25 जवानों के साथ दौड़ लगा दी। दो फ़ीट गहरे बर्फ में इन शेरों ने 8 किलोमीटर की इस दूरी को मात्र ढाई घंटे में पूरा किया। लेकिन जब मेजर अपने दल के साथ ऑपरेशन पोस्ट तक की चढ़ाई शुरू करने ही वाले थे तब पाकिस्तानी फौज ने उनपर गोलियां बरसा दी।
एक इंटरव्यू में मेजर वांगचुक ने इस गोलीबारी को दिवाली के पटाखों सा बताया था और कहा था कि किसी तरह हम सबने एक बड़े चट्टान के पीछे छिपकर अपनी जान बचाई थी। पाकिस्तानी सौनिकों ने घंटों गोलीबारी की जिसमें एक भारतीय सौनिक भी शहीद हुआ था। लेकिन ये स्नो टाइगर्स कहां हार मानने वाले थे। मेजर वांगचुक का रेडियो सेट भी टुट चुका था। इसलिए जब गोलीबारी थमी तो उन्होंने अपने एक सौनिक को वापिस यूनिट में भेजा और आदेश दिया कि वे दाएं तरफ से पाकिस्तान के कब्जे वाली चोटी पर चढ़ाई शुरू कर दें। इसके साथ ही मेजर वांगचुक और बाकी के सौनिक ओपी यानि ऑपरेशन पोस्ट के नीचे स्थित ऐडम बेस की तरफ बढ़ गए, गनीमत रही कि पाकिस्तान की तरफ से इस बार गोलीबारी नहीं हुई। इस समय शाम के साढ़े चार बज रहे थे।
इन लोगों ने अगले हमले के लिए रात होने का इंतजार किया, लेकिन चांद की रोशनी इतनी अधिक थी कि दुश्मन आसानी से इन्हें अपना शिकार बना सकता था। लेकिन मानो ऐसा हुआ कि भगवान भी उस दिन हमारे वीरों का साथ दे रहे थें, पूरी घाटी देखते ही देखते कोहरे से भर उठी। बस फिर क्या था इन बौद्ध लड़ाकों ने 18000 फीट की दुर्गम चढ़ाई को रात भर में नाप दिया। आपको बता दें कि यह चढ़ाई लगभग 90 डिग्री की चढ़ाई जैसा था, लेकिन लद्दाखी रणबांकुरों ने -6 डिग्री के तापमान में भी इसे हंसते-खेलते पूरा किया। सुबह होते ही मेजर वांगचुक के दल ने पाकिस्तानियों पर धावा बोल दिया। लद्दाख स्काउट्स ने 10 पाकिस्तानी सौनिकों को हमेशा के लिए सुला दिया। जिसके बाद बाकी के बचे 100 से ज्यादा सौनिक अपनी पोस्ट छोड़ नौ दो ग्यारह हो गएं।
भारतीय सौनिकों ने इसके बाद चोरबाटला समेत पूरे बटालिक सेक्टर को पाकिस्तान के कब्जे से वापिस ले लिया। कारगिल की लड़ाई में भारत की ये पहली जीत थी और इसके बाद ही ये साबित हुआ कि पाकिस्तानी सौनिकों ने हमपर हमला किया है। दरअसल इससे पहले पाकिस्तान यह मानने को तैयार ही नहीं था। वो इसके लिए आतंकियों को जिम्मेवार ठहरा रहा था।
इस जीत के बाद लद्दाख स्काउट्स को मिली नई पहचान
31 मई से 1 जून तक हुई इस लड़ाई में बड़ी भूमिका निभाने के लिए मेजर सोनम वांगचुक को सेना के दूसरे सबसे बड़े सम्मान महावीर चक्र से नवाज़ा गया। इसके साथ ही कारगिल की लड़ाई में रणनीतिक जीत दिलाने वाले लद्दाख स्काउट्स को भारतीय सेना ने गोरखा और डोगरा रेजीमेंट की तर्ज पर 2001 में इंफ़ैन्ट्री रेजीमेंट का दर्जा दिया। आज लद्दाख स्काउट्स के 5 बटैलियन ऑपरेट कर रहे हैं, हर बटैलियन के पास 850 जवान हैं। आपको बता दें कि सियाचिन में भी लद्दाख के लड़ाकों को तैनात किया जाता है।
लद्दाख स्काउट्स का युद्धघोष है 'कि कि सो सो लहरग्यालो' मतलब ईश्वर के लिए जीत और हर लद्दाखी योद्धा इस युद्धघोष को पूरा करने और भारतीय झंडे के सम्मान को बरकरार रखने के लिए अपनी हर सांस न्योछावर करने को हरदम तैयार रहता है।