लाइव टीवी

महात्मा गांधी की 151वीं जयंती : मैं गांधी को क्यों पसंद करता हूं? 

बीरेंद्र चौधरी | सीनियर न्यूज़ एडिटर
Updated Oct 02, 2020 | 11:02 IST

'उस समय हमारी उम्र भी 16 साल ही थी। हमें हमेशा यही लगा कि आत्मकथा का मतलब आत्मा की आवाज यानी आत्मकथा का माने सच का बखान। धीरे-धीरे मुझे अहसास होने लगा कि ज्यादातर आत्मकथा सिर्फ अच्छी बातों का बखान होती है।'

Loading ...
तस्वीर साभार:&nbspPTI
महात्मा गांधी की 151वीं जयंती।

हमने अभी तक सिर्फ एक ही आत्मकथा को पूर्णता से पढ़ा है वह है महात्मा गाँधी की आत्म कथा : An Autobiography: The story of My Experiments with Truth (सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा)। कब पढ़ा ये भी बताना जरूरी है। बात उस समय की है जब मैं अपने गांव बेलाम (मधुबनी, बिहार) में रहता था और 10वीं कक्षा में पढ़ाई कर रहा था। हमने गांधी की आत्मकथा पुस्तक खरीदी। पुस्तक खरीदना इसलिए संभव हो पाया क्योंकि इसकी कीमत बहुत कम थी। पढ़ना शुरू किया। अध्याय 1 से लेकर अध्याय 8 तक पढ़ डाला लेकिन बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं हो पाया लेकिन जैसे ही अध्याय 9 पढ़ने लगा तो धीरे-धीरे समझने लगा कि गांधी की आत्मकथा का नाम My Experiments with Truth क्यों है। 

उस समय हमारी उम्र भी 16 साल ही थी। हमें हमेशा यही लगा कि आत्मकथा का मतलब आत्मा की आवाज यानी आत्मकथा का माने सच का बखान। धीरे धीरे मुझे अहसास होने लगा कि ज्यादातर आत्मकथा सिर्फ अच्छी अच्छी बातों का बखान होती है और बुरी बातों को आत्मकथा में नहीं लिखा जाता है क्योंकि लेखक डरते हैं कि दुनियां सच जान लेगी तो उनके प्रति लोगों का भाव विपरीत हो जायेगा। हम पहले ही लिख चुके हैं कि गांधी की आत्मकथा को छोड़कर हमने किसी भी आत्मकथा को पूर्णता से नहीं पढ़ा है जो भी आंशिक पढ़ाई की सबमें अपनी अपनी बड़ाई का बखान पढ़ा। यही कारण है कि गांधी की आत्मकथा ने हमें झंकझोर कर रख दिया और उस सच की ताकत का अहसास हुआ। आज भी हम उस 9वें अध्याय को भूल नहीं पाए हैं।

गांधी की आत्मकथा का नौवां अध्याय

गांधी की आत्माकथा के 9वें अध्याय का नाम है: "पिताजी की मृत्यु और मेरी दोहरी शर्म"

गांधी लिखते हैं : "अवसान की घोर रात्रि समीप आई। उन दिनों मेरे चाचाजी राजकोट में थे। मेरा कुछ ऐसा खयाल है कि पिताजी की बढ़ती हुई बीमारी का समाचार पाकर ही वे आए थे। दोनों भाइयों के बीच अटूट प्रेम था। चाचाजी दिन भर पिताजी के बिस्तर के पास ही बैठे रहते और हम सबको सोने की इजाजत देकर खुद पिताजी के बिस्तर के पास सोते। किसी को खयाल नहीं था कि यह रात आखिरी सिद्ध होगी। वैसे डर तो बराबर बना ही रहता था। रात के साढ़े दस या ग्यारह बजे होंगे। मैं पैर दबा रहा था। चाचाजी ने मुझसे कहा : 'जा, अब मैं बैठूंगा।' मैं खुश हुआ और सीधा शयन-कक्ष में पहुंचा। पत्नी तो बेचारी गहरी नींद में थीं। पर मैं सोने कैसे देता? मैंने उसे जगाया। पांच-सात मिनट ही बीते होंगे, इतने में जिस नौकर की मैं ऊपर चर्चा कर चुका हूं, उसने आकर किवाड़ खटखटाया। मुझे धक्का सा लगा। मैं चौका। नौकर ने कहा : 'उठो, बापू बहुत बीमार हैं।' मैं जानता था वे बहुत बीमार तो थे ही, इसलिए यहां 'बहुत बीमार' का विशेष अर्थ समझ गया। एकदम बिस्तर से कूद गया।"

"कह तो सही, बात क्या है?"

"बापू गुजर गए!"

"मेरा पछताना किस काम आता? मैं बहुत शरमाया। बहुत दुखी हुआ। दौड़कर पिताजी के कमरे में पहुंचा। बात समझ में आई कि अगर मैं विषयांध न होता तो इस अंतिम घड़ी में यह वियोग मुझे नसीब न होता और मैं अंत समय तक पिताजी के पैर दबाता रहता। अब तो मुझे चाचाजी के मुंह से सुनना पड़ा : 'बापू हमें छोड़कर चले गए!' अपने बड़े भाई के परम भक्त चाचाजी अंतिम सेवा का गौरव पा गए। पिताजी को अपने अवसान का अंदाजा हो चुका था। उन्होंने इशारा करके लिखने का सामान मंगाया और कागज में लिखा : 'तैयारी करो।' इतना लिखकर उन्होंने हाथ पर बंधा तावीज तोड़कर फेंक दिया, सोने की कंठी भी तोड़कर फेंक दी और एक क्षण में आत्मा उड़ गई।"

आगे गांधी लिखते हैं : "पिछले अध्याय में मैंने अपनी जिस शरम का जिक्र किया है वह यहीं शरम है - सेवा के समय भी विषय की इच्छा! इस काले दाग को आज तक नहीं मिटा सका। और मैंने हमेशा माना है कि यद्यपि माता-पिता के प्रति मेरे मन में अपार भक्ति थी, उसके लिए सब कुछ छोड़ सकता था, तथापि सेवा के समय भी मेरा मन विषय को छोड़ नहीं सकता था। यह सेवा में रही हुई अक्षम्य त्रुटि थी। इसी से मैंने अपने को एकपत्नी-व्रत का पालन करने वाला मानते हुए भी विषयांध माना है। इससे मुक्त होने में मुझे बहुत समय लगा और मुक्त होने से पहले कई धर्म-संकट सहने पड़े।"

"अपनी इस दोहरी शरम की चर्चा समाप्त करने से पहले मैं यह भी कह दूं कि पत्नी के जो बालक जन्मा वह दो-चार दिन जीकर चला गया। कोई दूसरा परिणाम हो भी क्या सकता था? जिन मां-बापों को अथवा जिन बाल-दंपती को चेतना हो, वे इस दृष्टांत से चेतें।"

इतनी साफगोई से गांधी ही लिख सकते थे और उन्होंने लिख डाला। इस संसार में गांधी जैसे बिरले ही होंगे जो अपनी इस कटु सच्चाई को इतनी आसानी से स्वीकार कर लेंगे। यही कारण है कि गांधी अपने जीवन को एक प्रयोगशाला मानते थे और अपने जीवन काल में अपने ही जीवन में तरह-तरह के प्रयोग सत्य के साथ करते रहे। कई जगह सफल रहे तो कई जगह सफल।

गांधी और गुड़ की कहानी
गांधी के अनुयायी उन्हें विभिन्न रूपों में देखा करते थे। गांधी पर बीती एक कहानी है कि एक बार एक बूढी औरत अपने पोते को लेकर गांधी के पास आई और कहा कि गांधी बाबा मेरा पोता गुड़ बहुत खता है जिसकी वजह से इसका पूरा दांत ख़राब हो गया है। आप कोई ऐसी मर्ज बताइये जिससे ये बच्चा गुड़ खाना छोड़ दे। गांधी बाबा ने उस बूढ़ी औरत से कहा कि आप एक महीने बाद अपने पोते को लेकर आना हम जरूर बताएंगे कि गुड़ की आदत कैसे छोड़नी है। एक महीने बाद वो बूढ़ी औरत अपने पोते को लेकर फिर से आती है और फिर गांधी बाबा उसे बताते हैं कि गुड़ की आदत कैसे छोड़नी है। आश्चर्य तब हुआ जब कुछ समय बाद गांधी स्वयं बताते हैं कि जब पहली बार बूढ़ी औरत आती है तब उस समय गांधी स्वयं बहुत ज्यादा गुड़ खाते थे वैसी स्थिति में वे दूसरे को गुड़ की आदत कैसे छुड़ाते। इसलिए गांधी ने सबसे पहले स्वयं गुड़ खाने की आदत छोड़ी उसके बाद उन्होंने उस बच्चे को गुड़ छोड़ने के लिए कहा।

महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने गांधी के बारे में क्या कहा?
आप अंदाज लगा सकते हैं कि उस गांधी रूपी इंसान ने कैसे अपने जीवन को सत्य का प्रयोगशाला बना लिया था और हर दिन हर पल गांधी ने पहले पहल अपने आप पर ही सत्य की परीक्षा ली है। यही कारण है कि महात्मा गांधी के बारे में 20 वीं शादी के सबसे महान वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन ने भी कहा था -‘आने वाली नस्लें शायद ही यकीन करे कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी इस धरती पर चलता-फिरता था।’आज की तारीख में आइंस्टीन का ये कथन 100 फीसदी सही साबित हो रहा है।

यही कारण है कि हम महात्मा गांधी को इतना पसंद करते हैं। गांधी की सत्यनिष्ठा से हमेशा प्रेरणा मिलती रही कि आखिरकार सच में ताकत तो हो।

(डिस्क्लेमर-लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं, टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता।)
 

Times Now Navbharat पर पढ़ें India News in Hindi, साथ ही ब्रेकिंग न्यूज और लाइव न्यूज अपडेट के लिए हमें गूगल न्यूज़ पर फॉलो करें ।