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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छुए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पसाला कृष्णमूर्ति की बेटी के पैर

Updated Jul 04, 2022 | 17:34 IST

प्रधानमंत्री मोदी सोमवार को अल्लूरी सीताराम राजू की 125वें जयंती समारोह में हिस्सा लेने आंध्र प्रदेश पहुंचे थे। इस दौरान उन्होंने पसाला कृष्णमूर्ति के परिवार से भी भेंट की और उनकी बेटी के पैर छुए।

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तस्वीर साभार:&nbspTwitter
प्रधानमंत्री मोदी ने छुए स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की बेटी के पैर

नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंध्र प्रदेश के भीमावरम में स्वतंत्रता सेनानी अल्लूरी सीताराम राजू की प्रतिमा का अनावरण किया इसके बाद वह प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी पसाला कृष्णमूर्ति के परिवार से मुलाकात करने पहुंचे पीएम मोदी जब उनकी 90 वर्षीय बेटी से मिले तो झुककर पैर छूकर आशीर्वाद लिया

'आजादी का अमृत महोत्सव' समारोह के तहत 15 टन वजन की इस प्रतिमा को तीन करोड़ रुपये की लागत से तैयार किया गया है। इसे भीमावरम के एएसआर नगर में नगर निगम पार्क में क्षत्रिय सेवा समिति द्वारा स्थापित किया गया है।

मोदी ने अल्लूरी के भतीजे अल्लूरी श्रीराम राजू और अल्लूरी के करीबी सहयोगी मल्लू डोरा के बेटे बोडी डोरा का अभिनंदन किया। 'मन्यम वीरदु' (वन नायक) के नाम से लोकप्रिय सीताराम राजू को उनके उपनाम अल्लूरी से भी जाना जाता है। उनका जन्म चार जुलाई, 1897 को तत्कालीन विशाखापत्तनम जिले के पंडरंगी गांव में हुआ था। पीएम मोदी की पैर छूने की तस्वीर आज सोशल मीडिया पर छा गई और लोग उनकी तारीफ कर रहे हैं।

देशभक्ति की बातों का अल्लूरी पर बचपन से ही गहरा प्रभाव था

इतिहास के अनुसार, देशभक्ति की बातों का अल्लूरी पर बचपन से ही गहरा प्रभाव था। अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी स्कूली शिक्षा बाधित हो गई और वे तीर्थ यात्रा पर चले गए। अपनी किशोरावस्था के दौरान उन्होंने पश्चिमी, उत्तर-पश्चिमी, उत्तर और उत्तरपूर्वी भारत का दौरा किया। ब्रिटिश शासन के दौरान देश में सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों, विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों ने उन्हें गहराई से प्रभावित किया।

‘रम्पा विद्रोह’ या ‘मन्यम विद्रोह’ का जन्म हुआ

उन यात्राओं के दौरान, वह चटगांव (अब बांग्लादेश में) में क्रांतिकारियों से मिले। अल्लूरी ने तब अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन खड़ा करने का मन बना लिया। उन्होंने विशाखापत्तनम और पूर्वी गोदावरी जिलों के साथ वन क्षेत्रों में स्थानीय आदिवासियों को एक शक्तिशाली सेना के रूप में संगठित किया और सामने से हमला किया।इस प्रकार, पूर्ववर्ती पूर्वी गोदावरी जिले के रामपचोडावरम वन क्षेत्र में ‘रम्पा विद्रोह’ या ‘मन्यम विद्रोह’ का जन्म हुआ, जिसने शक्तिशाली ब्रिटिश सेनाओं को झकझोर दिया। आदिवासियों के पारंपरिक हथियारों, धनुष और बाणों और भाले का उपयोग करते हुए अल्लूरी ने ब्रिटिश सेना पर कई हमलों का नेतृत्व किया और उनके रास्ते का कांटा बन गए।

उन्होंने दुश्मन के हथियार छीनने की योजना बनाई

हालांकि, उन्होंने महसूस किया कि पारंपरिक हथियार भारी सशस्त्र ब्रिटिश सैनिकों के खिलाफ कोई मुकाबला नहीं कर सकते हैं और इसलिए, उन्होंने दुश्मन के हथियार छीनने की योजना बनाई। 22 अगस्त, 1922 को चिंतापल्ली पुलिस थाना पर 300 से अधिक क्रांतिकारियों के साथ इस श्रृंखला में पहला हमला था, जिसमें कई हथियार लूटे गए। अल्लूरी की इस कार्रवाई ने उस वक्त की पुलिस और अंग्रेजों को स्तब्ध कर दिया।

ऐसे सभी हमलों में हथियार और शस्त्र छीन लिए

वह लूट की सूची बनाते और हमले के बाद स्टेशन डायरी पर हस्ताक्षर करते, जो उनकी पहचान बन गई। उन्होंने बाद में कृष्णादेवी पेटा और राजा ओममांगी पुलिस थानों पर इसी तरह के हमलों का नेतृत्व किया। अल्लूरी के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने ऐसे सभी हमलों में हथियार और शस्त्र छीन लिए। ब्रिटिश अधिकारियों के नेतृत्व में विशाखापत्तनम, राजमुंदरी, पार्वतीपुरम और कोरापुट से रिजर्व पुलिस कर्मियों की एक बड़ी टुकड़ी पहुंची और उसके बाद 24 सितंबर, 1922 को हुई झड़प में दो- स्कॉट और हेइटर - को क्रांतिकारियों ने मार दिया और कई अन्य घायल हो गए।

अल्लूरी के सिर पर 10,000 रुपये पुरस्कार की घोषणा 

एजेंसी आयुक्त जे. आर. हिगिंस ने अल्लूरी के सिर पर 10,000 रुपये और उसके करीबी गेंटम डोरा और मल्लू डोरा पर 1,000 रुपये के पुरस्कार की घोषणा की थी। अंग्रेजों ने आंदोलन को कुचलने के लिए शीर्ष अधिकारियों के नेतृत्व में मालाबार स्पेशल पुलिस और असम राइफल्स के सैकड़ों सैनिकों को तैनात किया। एक दुर्जेय गुरिल्ला रणनीतिकार के रूप में अल्लूरी के अंग्रेज भी कायल हो गए। ‘मन्यम’ विद्रोह को रोकने में असमर्थ ब्रिटिश सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए अप्रैल 1924 में टी. जी. रदरफोर्ड को नए आयुक्त के रूप में नियुक्त किया।

रदरफोर्ड ने हिंसा और यातना का सहारा लिया

अल्लूरी और उनके प्रमुख अनुयायियों के ठिकाने को जानने के लिए रदरफोर्ड ने हिंसा और यातना का सहारा लिया। यह ब्रिटिश सेना को अपने इस प्रयास में कुल 40 लाख रुपये की कीमत चुकानी पड़ी। आदिवासियों के खिलाफ क्रूर दमन को कतई बर्दाश्त नहीं करने वाले अल्लूरी ने आखिरकार खुद को अंग्रेजों के हवाले कर दिया और सात मई, 1924 को शहीद हो गए। वह केवल 27 साल जीवित रहे, लेकिन उनकी शहादत के बाद करीब एक सदी बीत जाने पर भी तेलुगु लोग आज भी अल्लूरी का सम्मान करते हैं और उन्हें पूजते हैं।
 

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