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बहुत खास था शीला दीक्षित का राजनीतिक कौशल, 15 साल तक नहीं मिला विपक्ष को मौका

Updated Jul 21, 2019 | 20:35 IST | मनोज यादव

शीला दीक्षित का राजनीतिक कौशल बहुत खास था। उन्होंने राजनीति का ककहरा अपने ससुर उमाशंकर दीक्षित से सीखा था।

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तस्वीर साभार:&nbspBCCL
शीला दीक्षित (फाइल फोटो)

नई दिल्ली: दिल्ली की लगातार तीन बार मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित का 81 वर्ष की उम्र में शनिवार को निधन हो गया था। भारत के राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और अन्य राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं ने शीला दीक्षित के निधन पर शोक व्यक्त किया। रविवार को पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया है। शीला दीक्षित का राजनीतिक सफल अपने आप में बेहद खास था। आइए एक नजर डालते हैं शीला दीक्षित के सियासी हुनर और सफर पर।

अपने ससुर से सीखा राजनीतिक का ककहरा
शीला दीक्षित ने अपनी राजनीतिक जिंदगी में बड़ा मुकाम हासिल किया था। शीला दीक्षित ने राजनीति का ककहरा अपने ससुर उमाशंकर दीक्षित से सीखा, जो इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में गृह मंत्री हुआ करते थे और बाद में कर्नाटक और पश्चिम बंगाल के राज्यपाल भी बने। 

राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में बनीं मंत्री
इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने शीला दीक्षित को अपने मंत्रिमंडल में पहले संसदीय कार्य मंत्री के रूप में और बाद में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री के रूप में शामिल किया। 

घोटाले केंद्र के खामियाजा भुगतना पड़ा राज्य को 
1998 में सोनिया गांधी ने उन्हें दिल्ली प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहने के बाद शीला दीक्षित वर्ष 2013 का विधानसभा चुनाव हार गईं। शीला दीक्षित के हारने की वजह अरविंद केजरीवाल को गंभीरता से न लेना बताया जाता है। इसके अलावा दिल्ली में निर्भया बलात्कार कांड का भी बुरा असर हुआ। दिल्ली सरकार लोगों को यह समझाने में नाकाम रही कि दिल्ली में कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी केंद्र की है न कि दिल्ली सरकार की। इसके अलावा केंद्र सरकार में 2जी और 4जी स्पेक्ट्रम के कई घोटालों का भी खामियाजा दिल्ली सरकार को भुगतना पड़ा। जिसका कारण दिल्ली और केंद्र दोनों ही जगहों पर कांग्रेस की सरकार का होना था। 

सीएम रहते नहीं दिया किसी को पनपने का मौका
शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री रहते हुए दिल्ली में किसी पार्टी को पनपने का मौका तक नहीं मिला। शीला दीक्षित ने दिल्ली की तस्वीर बदलकर रख दी थी। दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में अपने तीसरे कार्यकाल के दौरान राष्ट्रीय राजधानी की सड़कों पर चलने वाले वाहनों के लिए 150 से अधिक फ्लाईओवर की आवश्यकता थी। इनमें से अधिकांश फ्लाईओवर का निर्माण शीला दीक्षित के कार्यकाल के दौरान ही करवाया गया। लेकिन जहां पर जितना अधिक काम होता है वहां पर घोटालों की गुंजाइश भी उतनी ही ज्यादा होती है। शीला दीक्षित के कार्यकाल में भी घोटाले हुए। 

केंद्र के प्रति उपजे गुस्से का ठीकरा राज्य पर
दिल्ली में इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के बैनर तले अन्ना हजारे का आंदोलन हुआ। जिसमें कई नेताओं समेत नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। अन्ना आंदोलन के दौरान अरविंद केजरीवाल काफी सक्रिय रहे जिसमें केजरीवाल को भी अपनी राजनीति चमकाने का मौका मिल गया। लोगों में केंद्र सरकार को लेकर काफी गुस्सा था और उन्हें यह समझ में कम आ रहा था कि दिल्ली और केंद्र की सरकारें अलग-अलग हैं। यह प्रचारित किया जा रहा था कि दिल्ली सरकार पूरी तरह से घोटाले कर रही है। जिसका इशारा तो केंद्र की तरफ होता था, लेकिन दिल्ली में उसका खामियाजा शीला दीक्षित को भुगतना पड़ा। 

शीला के खिलाफ नहीं दर्ज हुआ कोई केस
केजरीवाल सरकार अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में है और शीला दीक्षित के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले में कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। उनके कार्यकाल में दिल्ली में बिजली की दरें सबसे कम थीं। दिल्ली हमेशा की तरह अभी भी असुरक्षित बनी हुई है। 

दिल्ली के विकास को लेकर गंभीर रहीं शीला दीक्षित
शीला दीक्षित की राजनीतिक कुशलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में शीला दीक्षित के पहले छह साल केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के साथ थे। उस दौरान उन्होंने किसी भी धरना राजनीति का सहारा नहीं लिया। शीला दीक्षित ने केवल दिल्ली के विकास पर बल दिया और करके दिखाया। 

कम बोलना शीला की सबसे बड़ी ताकत
शीला दीक्षित का कम बोलना उनकी सबसे बड़ी ताकत थी। शीला दीक्षित बहुत कम बोलती थीं, लेकिन जो बोलती थीं वह काफी नपा-तुला होता था। शीला दीक्षित को दिल्ली की अंतिम महारानी के रूप में याद किया जाएगा। दिल्ली की पहली महारानी रज़िया सुल्तान थी।

(डिस्क्लेमर : मनोज यादव अतिथि लेखक हैं और ये इनके निजी विचार हैं। टाइम्स नेटवर्क इन विचारों से इत्तेफाक नहीं रखता है।)

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