- एक रिपोर्ट के मुताबिक, चीन अपनी जैविक हथियार क्षमता को उन्नत करने में लगा है
- इसके लिए उसने पाकिस्तान से भी हाथ मिलाया है और तीन साल का गुप्त करार किया है
- चीन-पाकिस्तान के निशाने पर मुख्य रूप से भारत और कुछ पश्चिमी देशों को बताया गया है
नई दिल्ली : दुनियाभर में जब कोरोना वायरस संक्रमण से तबाही मची है और इसे लेकर चीन पर उंगली उठ रही है, बीजिंग को लेकर एक और चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई है। इसमें दावा किया गया है कि चीन इन दिनों अपनी जैविक हथियार क्षमता को उन्नत बनाने में जुटा है और इसके लिए उसने पाकिस्तान से भी हाथ मिलाया है। उसके निशाने पर मुख्य रूप से भारत और कुछ पश्चिमी देश हैं, जिनके साथ चीन-पाकिस्तान का छत्तीस का आंकड़ा है।
निशाने पर भारत और पश्चिमी प्रतिद्वंद्वी
यह चौंकाने वाला दावा 'द क्लक्सॉन' की रिपोर्ट में किया गया है, जिसमें यह भी कहा गया है कि चीन ने इसके लिए अपने 'सदाबहार' मित्र पाकिस्तान के साथ तीन साल के लिए एक गुप्त समझौता भी किया गय है, जिसकी फंडिंग भी वह खुद कर रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक, चीन इस परियोजना से जुड़े जैविक एजेंट्स का परीक्षण अपनी सीमा से बाहर कर रहा है, ताकि इसे लेकर उस पर उंगली न उठे। इसमें यह भी कहा गया है कि पाकिस्तान के साथ इस साठगांठ के जरिये चीन वास्तव में उसे भारत के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहा है।
क्या है जैविक हमला?
जीवाणुओं, विषाणुओं, कीटों या फंगस सहित रासायनिक एजेंट्स के जरिये जब खतरनाक संक्रमण को हमले के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो यह जैविक युद्ध माना जाता है। हालांकि अंतरराष्ट्रीय कानूनों के द्वारा ऐसे युद्ध को वर्जित किया गया है, लेकिन दुनियाभर में समय-समय पर ऐसे कई मामले सामने आए हैं। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान द्वारा अपने शत्रुओं के खिलाफ जैविक हथियारों के इस्तेमाल की बात सामने आ चुकी है।
जैविक हमलों के खिलाफ हुई कई संधियां
मानव जाति के अस्तित्व के लिए इसे बेहद खतरनाक माना जाता है और इसलिए इसे प्रतिबंधित करने के लिए दुनियाभर में कई समझौते भी हुए हैं। 1874 में ब्रसेल्स और 1899 के हेग के घोषणा-पत्र के अलावे 1925 की जेनेवा संधि को भी इस रूप में देखा जा सकता है। लेकिन कई देशों ने इसे मान्यता नहीं दी। बाद में 1972 में भी इसे लेकर अंतरराष्ट्रीय संधि हुई, जिसके तहत जैविक हमलों को गैर-कानूनी करार दिया गया। हालांकि अब भी कई देश हैं, जिन्होंने जैविक हथियारों के उत्पादन और इस दिशा में रिसर्च पर रोक नहीं लगाई और गुपचुप तरीके से इस पर बढ़ते रहे।
संदिग्ध देश और भारत का रुख
दुनियाभर में जैविक हथियारों के उत्पादन को लेकर जिन देशों पर संदेह जताया जाता है, उनमें चीन के साथ-साथ रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, उत्तर कोरिया, ताइवान, फ्रांस, जर्मनी, इराक, ईरान, इजरायल, जापान और लीबिया भी शामिल हैं। इन हथियारों को मानवता के खिलाफ करार देते हुए भारत ने पहले ही साफ कर दिया कि वह जैविक हथियारों की दौड़ में शामिल नहीं होगा। इसके बजाय भारत में ऐसे चिकित्सा अनुसंधान को प्राथमिकता दी जाती है, जो ऐसे जैविक हमलों से बचाव में कारगर हों।
जैविक युद्ध के दुष्परिणाम
जैविक हमले आम तौर पर खतरनाक रासायन से किए जाते हैं, जिससे इसके प्रभाव में आने वाले लोगों की जान जा सकती है, जबकि यह संक्रमण के तौर पर कई अन्य लोगों में भी फैल सकता है। इसके अतिरिक्त पीड़ितों को आंखों में जलन, आंखों से पानी निकलने, त्वचा में जलन, दम घुटने जैसी सामान्य शिकायत हो सकती है। ये पीड़ितों के मस्तिष्क पर भी गहरा असर डालते हैं। ऐसे रसायनों का असर महीनों तक रह सकता है। ये इतने घातक होते हैं कि इनका असर पीढ़ियों तक हो सकता है।
मस्तिष्क पर भी गहरा असर
दूसरे शब्दों में कहें तो अगर कोई इस तरह के खतरनाक रसायनों के संपर्क में आकर बच जाता है तो बहुत संभव है कि उनके बच्चे तमाम तरह की बीमारियों के साथ पैदा हों। इन रसायनों का शारीरिक ही नहीं, मनौवैज्ञानिक असर भी होता है। आंखों की रोशनी गंवाने से लेकर लोग दिमाग का सुकून तक गंवा सकते हैं। यही वजह है कि इन्हें मानवजाति के खिलाफ बड़ा अपराध माना जाता है और इसे लेकर चिंता जताई जाती है कि कहीं ये आतंकियों या गैर-जिम्मेदार समूहों के हाथ में न पड़ जाएं।