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1962 युद्ध : इधर भारत-चीन युद्ध, उधर अमेरिका और रूस के बीच तन गई थीं मिसाइलें

Updated Oct 20, 2020 | 08:48 IST

1962 War: भारत और चीन के बीच लड़ाई 20 अक्टूबर को शुरू हुई। यह दौर दुनिया की दो महाशक्तियों अमेरिका और रूस के लिए भी कठिन था। दोनों देश एक दूसरे के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए अमादा थे।

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तस्वीर साभार:&nbspPTI
1962 युद्ध : इधर भारत-चीन युद्ध, उधर अमेरिका और रूस के बीच तन गई थीं मिसाइलें। -प्रतीकात्मक तस्वीर

साल 1962 में एक तरफ भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ गया था तो दूसरी तरफ अमेरिका और रूस युद्ध के मुंहाने पर खड़े थे। क्यूबा को सबक सिखाने के लिए अमेरिका उस पर हमले की योजना बना रहा था तो रूस फिदेल कास्त्रो के बचाव में उतर गया था। दोनों देशों ने एक दूसरे के खिलाफ मिसाइलें तैनात कर दी थीं। युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। चीन के साथ लड़ाई में भारत की एकतरफा हार हुई। इस युद्ध के लिए भारत बिल्कुल तैयार नहीं था जबकि चीन ने पूरी तैयारी के साथ हमला बोला था। चीन की तैयारी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसकी सेना लद्दाख, उत्तराखंड और अरुणचाल सभी ओर से दाखिल हुई थी। भारतीय सेना के पास आधुनिक हथियार, उपकरण नहीं थे। सर्दी के मौसम में ऊंची जगहों के लिए गर्म कपड़ों का अभाव था। 

'कोल्ड वार' के दौर से गुजर रहे थे अमेरिका और रूस
सीमा पर भारत और चीन एक बार फिर आमने-सामने हैं। इस समय भारत को अमेरिका का पूरा साथ मिला हुआ है जबकि रूस भारत का समय पर खरा उतरने वाला मित्र देश और हथियारों का सबसे बड़ा आपू्र्तिकर्ता देश है। सभी के मन में सवाल उठता है कि 1962 के समय जवाहर लाल नेहरू देश के प्रधानमंत्री थे, अंतरराष्टीय समुदाय में उनका एक कद था। अमेरिका और रूस दोनों के साथ उनकी मित्रता थी लेकिन ये दोनों देश भारत की मदद के लिए क्यों नहीं आगे आए। क्यों नहीं इन देशों ने चीन पर दबाव बनाया। दरअसल, इसकी भी वजहें हैं। 'कोल्ड वार'  के दौर से गुजर रहे अमेरिका और रूस के लिए उस वक्त किसी तीसरी देश की मदद करना आसान नहीं था। भारत-चीन युद्ध के समय ये दोनों देश आपस में बुरी तरह उलझे हुए थे। ये एक-दूसरे पर हमले करने के लिए तैयारे थे। अमेरिका और रूस के इस तनावपूर्ण संघर्ष को 'क्यूबा मिसाइल संकट' के नाम से जाना जाता है।      

क्या है 'क्यूबा मिसाइल संकट'
अमेरिका और रूस के बीच 1947 से लेकर 1991 तक 'कोल्ड वार' चला। इसी शीत युद्ध के समय 1962 में एक ऐसा वक्त भी आया जब दोनों देशों की मिसाइलें एक दूसरे के खिलाफ तन गई थीं। एक छोटी सी गलती पूरी दुनिया को यु्द्ध की आग में झोंक सकती थी। साल 1962 के 13 दिनों में दुनिया परमाणु युद्ध के कगार पर खड़ी हो गई थी। इसकी शुरुआत क्यूबा में फिदेल कास्त्रो का तख्ता पलटने की अमेरिकी कोशिश से हुई। हालांकि, अमेरिका की यह कोशिश बुरी तरह नाकाम हुई। इस घटना के बाद अमेरिका और क्यूबा के संबंध इतने खराब हो गए कि आज भी क्यूबा के लिए अमेरिका सबसे बड़ा दुश्मन है। क्यूबा और अमेरिका के बढ़े तनाव ने 'क्यूबा मिसाइल संकट' की नीव रखी। अमेरिका की बढ़ते आक्रामक रवैये एवं तख्तापलट की साजिश से परेशान होकर कास्त्रो मदद के लिए रूस पहुंचे। 

(फाइल पिक्चर,पीटीआई)

क्यूबा की सैन्य मदद के लिए आगे आया रूस
अमेरिका धौंस एवं दादागिरी का जवाब देने के लिए रूस क्यूबा का साथ देने के लिए तैयार हो गया। 1962 में क्यूबा के कास्त्रो एवं रूस के राष्ट्रपति के निकिता ख्रूश्चेव के बीच एक गोपनीय बैठक हुई। इस बैठक में यह तय हुआ कि रूस न केवल क्यूबा की सैन्य मदद करेगा बल्कि उसके यहां परमाणु मिसाइलें भी तैनात करेगा। दरअसल, इटली और तुर्की में अमेरिका ने अपनी परमाणु मिसाइलें तैनात की थीं, इस कदम से रूस बौखलाया हुआ था। वह अमेरिका से अपना हिसाब चुकता करने का मौका ढूंढ रहा था। इसी क्रम में रूस ने मिसाइलों की खेप क्यूबा पहुंचानी शुरू कर दी। गौर करने वाली बात यह है कि इसकी भनक अमेरिका खूफिया एजेंसी सीआईए को उस वक्त लगी जब रूसी मिसाइलों के आधे से ज्यादा पार्ट्स क्यूबा पहुंच चुके थे। इससे घबराकर अमेरिकी सैन्य अधिकारियों ने राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी को क्यूबा पर हमला करने की सलाह दी। 

दोनों देशों ने शुरू की युद्ध की तैयारी
केनेडी ने सैन्य अधिकारियों की बात तो नहीं मानी लेकिन क्यूबा के समुद्री सीमा की घेरेबंदी कर दी गई। यानि क्यूबा की तरफ आने और जाने वाले जहाजों को तलाशी के बाद गुजरने दिया जाता था। रूस ने इसे उकसाने वाली कार्रवाई माना और अपनी पनडुब्बियों को अटलांटिक महासागर में जाने का आदेश दे दिया। अमेरिका ने क्यूबा और रूस से अपनी मिसाइलें हटाने के लिए कहा लेकिन दोनों देशों ने मिसाइलें हटाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि उनका यह कदम बचाव के लिए है। इसके बाद अमेरिका ने भी युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। इसी दौरान अटलांटिक महासागर में रूस की एक पनडु्ब्बी के पास अमेरिकी बम गिरा। रूस की यह पनडुब्बी गहरे समुद्र में थी जिसका जमीन से संपर्क हो पाना असंभव था। 

रूसी पनडुब्बी से न्यूक्लियर तारपीडो लॉन्च करने की थी तैयारी
पनडुब्बी में मौजूद रूसी अधिकारियों को लगा कि युद्ध की शुरुआत हो चुकी है। रूसी पनडुब्बी में मिसाइल युक्त तारपीडो को लॉन्च के लिए ट्यूब के अंदर डाला जा चुका था और बस बटन दबाने की देर थी लेकिन पनडुब्बी पर मौजूद एक अधिकारी ने न्यूक्लियर तारपीडो को लॉन्च करने की अपनी अनुमति नहीं दी। इस अधिकारी ने अपनी सहमति यदि दे दी होती तो अमेरिका पर परमाणु हमला हो गया होता। इसके बाद जो होता उसकी कल्पना की जा सकती है। अमेरिका और रूस के युद्ध में कूद जाती जिसका परिणाम बहुत ही भयानक होता। बाद में अमेरिका और रूस के बीच एक अहम बैठक हुई जिसमें तनाव कम करने पर अहम फैसला हुआ। 28 अक्टूबर 1962 को अमेरिका इटली और तुर्की से और रूस क्यूबा से अपनी मिसाइलें हटाने पर सहमत हुए। साथ ही रूस ने अमेरिका से भरोसा लिया कि वह क्यूबा पर हमला नहीं करेगा। 16 अक्टूबर से 28 अक्टूबर 1962 तक 'क्यूबा मिसाइल संकट' का दौर चला। भारत और चीनके बीच  युद्ध 20 अक्टूबर से लेकर 21 नवंबर 1962 तक हुआ।

युद्ध के मुहाने पर खड़े थे अमेरिका और रूस
जाहिर है कि 'क्यूबा मिसाइल संकट' के दौर में अमेरिका और रूस दोनों एक दूसरे से इस कदर उलझे हुए थे कि वे किसी अन्य देश की मदद करने के बारे में सोच नहीं सकते थे। दोनों देशों की मिसाइलें एक-दूसरे के खिलाफ तैनात थीं। उनकी एक छोटी सी गलती या लापरवाही बड़े युद्ध को जन्म दे सकती है। कहावत है कि जब अपने घर में आग लगने की आशंका हो तो अपने घर का पानी पड़ोसी को दान करना बुद्धिमानी नहीं मानी जाती है। भारत और चीन युद्ध के समय अमेरिका और रूस के हालात कुछ ऐसे ही थी। 

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