- बिहार में AIMIM को 5 सीटें मिली और RJD के नेतृत्व में बना महागठबंधन कुछ सीटों की कमी से सरकार नहीं बना पाया।
- UP में 20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं की वजह से ओवैसी को बड़ी उम्मीद दिख रही है। जबकि भाजपा विरोधी दलों को वोट बंटने का डर सता रहा है।
- AIMIM ने उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर विधान सभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है।
नई दिल्ली: "मैं एक लैला हूं और मेरे हजारों मजनू हैं", पिछले साल ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी ने जब हैदराबाद में यह बयान दिया था, तो उन्होंने शायद ही सोचा होगा कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में उनकी एंट्री, उन्हें भाजपा का 'चचा जान' बना देगी। असल में उन्हें 'चचा जान' किसान नेता राकेश टिकैत ने बना दिया है।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने बीते मंगलवार को बागपत में एक सभा में कहा कि बीजेपी के चाचा जान असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर लिया है। अगर वह (ओवैसी) उन्हें (भाजपा) गाली देंगे तो वे उनके खिलाफ कोई मामला दर्ज नहीं करेंगे। वे एक ही टीम हैं। उन्होंने कहा कि यह सच्चाई है जिसे यूपी की जनता समझती है। बीजेपी किस तरह की राजनीति करती है उसे भी लोग समझते हैं और समय आने पर जनता सबक जरूर सिखाएगी।
हालांकि उनके बयान पर AIMIM के प्रवक्ता असीम वकार ने कहा है "राकेश टिकैत साहब आप कितने बड़े सेकुलर है यह मुझसे और मेरे लोगों से बेहतर कोई नहीं जानता। 2017 का विधान सभा और 2019 का जो लोक सभा चुनाव था, उसमें आप भाजपा के लिए काम कर रहे थे और उसे जिता रहे थे। मुझे तो यह भी यकीन है कि चुनाव के समय आप अपने उम्मीदवार चुनाव में लड़ाएंगे और लोगों से कहेंगे कि भाजपा से मुकाबला कर रहे हैं। लेकिन भाजपा को जिताने का काम करेंगे।"
टिकैत के बयान का क्या है मतलब
असल में असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली एआईएमआईएम ने उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। ओवैसी के निशाने पर सीधे मुस्लिम मतदाता है। और वह अपनी रैलियों में भाजपा से लेकर सपा, बसपा और कांग्रेस पर यह आरोप लगा रहे हैं। कि इन पार्टियों ने मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया है। जो उनके हितैषी होने का दम भरते हैं, उन्होंने भी दगा दिया है। प्रदेश में मौजूद 19-20 फीसदी मुस्लिम मतदाताओं की वजह से ओवैसी को बड़ी उम्मीद दिख रही है। इसमें भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाता बड़ा फैक्टर है। राकेश टिकैत को इसी बात का डर है कहीं मुस्लिम मतदाता ओवैसी के साथ न खड़ा हो जाए। क्योंकि अगर ऐसा होता है तो भाजपा की विधान सभा चुनावों में राह आसान हो जाएगी। क्योंकि तीन कृषि कानूनों का विरोध करने वाला संयुक्त किसान मोर्चा अब यह साफ तौर पर महापंचायतों में लोगों से अपील कर रहा है कि चुनावों में भाजपा को वोट की चोट देनी है।
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद बदल गए समीकरण
असल में साल 2013 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में हुए दंगों के बाद से वहां के राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल गए। उसके पहले इलाके में मुस्लिम और जाट मतदाता खास तौर पर मिल कर वोट किया करते थे। लेकिन दंगों के बाद स्थिति बदल गई। एक जाट नेता कहते हैं "2013 में जो हुआ उससे बहुत खटास आ गई थी। लेकिन किसान आंदोलन ने वह दूरियां मिटा दी हैं।" 2013 के बाद से चाहे 2014 और 2019 के लोक सभा चुनाव हो या फिर 2017 के विधान सभा चुनाव भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश सहित पूरे प्रदेश में बड़ी जीत हासिल हुई है। भाजपा ने 2014 के लोक सभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश से 50 फीसदी और 2017 के विधान सभा चुनाव में करीब 44 फीसदी वोट हासिल किया था।
ओवैसी फैक्टर में कितना दम
असल में जिस तरह पिछले साल नवंबर 2020 में बिहार विधान सभा चुनावों में एआईएमआईएम को 5 सीटें मिली और राष्ट्रीय जनता दल के सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद, उसका महागठबंधन कुछ सीटों की कमी से सरकार नहीं बना पाया। वह विपक्षी दलों खास तौर समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल को डरा रहा है। क्योंकि अगर ओवैसी के पक्ष में मुस्लित मतदाता वोट करते हैं, तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल को ही होने वाला है। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल को 75 सीटें मिली थी। जबकि उसके महागठबंधन को 110 सीटें मिली। वहीं एनडीए को 125 सीटें मिली थी। राज्य में बहुमत के लिए 122 सीटों की जरुरत थी। और महागठबंधन को बिहार के सीमांचल क्षेत्र से बड़ा नुकसान उठाना पड़ा था। जहां पर मुस्लिम मतदाताओं को बड़ी तादाद है। और इसी क्षेत्र से एआईएमआईएम को सभी 5 सीटें मिलीं थी।
यूपी में ओवैसी क्या करिश्मा दिखाएंगे, इस पर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख डॉ शशिकांत पांडे कहते हैं "देखिए ओवैसी की राजनीति बहुत साफ है, जब चुनाव आते हैं तो वह दिखाई देने लगते हैं। जैसे ही चुनाव खत्म होंगे वह गायब हो जाते हैं। वह संगठन बनाने और कार्यकर्ताओं को जोड़ने पर ज्यादा तवज्जों नहीं देते है। ऐसे में भले ही ओवैसी गिनी-चुनी सीटों पर थोड़े वोट जुटा लें, लेकिन वह प्रदेश की राजनीति में अभी कोई असर डालने में सक्षम नहीं हैं। "
एक बात तो साफ है कि 2022 के चुनावों के लिए उत्तर प्रदेश दंगल का आगाज हो चुका है। और अब्बा जान , चचा जान तो बस एक शुरूआत है। अगले छह महीने में प्रदेश के मतदाताओं को कई रंग देखने को मिलेंगे।