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सामाजिक विकास का भी अभिन्न अंग है योग

Updated Jun 21, 2022 | 11:54 IST

International Yoga Day 2022 : अष्टांग योग की यह यात्रा स्थूल से सूक्ष्म जगत की ओर लेकर जाती है। अष्टांग योग के पहले पांच भाग –बहिरंग ( Exoteric) योग और अंतिम तीन भाग – अन्तरंग ( Esoteric) योग कहलाते हैं। बहिरंग ( Exoteric) योग को बाहरी जगत में और अन्तरंग ( Esoteric) योग को अन्तर्जगत में साधा जाता है।

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तस्वीर साभार:&nbspANI
हर साल 21 जून को मनाया जाता है अंतरराष्ट्रीय योग दिवस।

International Yoga Day 2022 : आज अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के सुअवसर पर ये लेख आपको कम शब्दों में ही योग के महानतम रहस्य को उजागर करेगा। इससे पहले कि मैं आपको योग के विषय में विस्तार से समझाऊं, ये बात पहले ही स्पष्ट कर दूं कि योग को महज शारीरिक व्यायाम और श्वास- क्रिया तक ही सीमित मानना गलत है। बल्कि शारीरिक व्यायाम और श्वास-क्रिया, जिसे आजकल हम योग समझते हैं, योग का सिर्फ एक हिस्सा भर है। भारतीय षड्दर्शन में एक महत्वपूर्ण दर्शन है- योगदर्शन। योगदर्शन ही विश्व का एकमात्र दर्शन है जिसमें अध्यात्म के प्रयोगात्मक पक्ष का वर्णन किया गया है। यूनेस्को के अनुसार योग शरीर, मन व आत्मा के समन्वय पर आधारित एक ऐसी पद्धति है, जो शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उत्थान का कारक तो है ही, साथ ही साथ सामाजिक विकास का भी अभिन्न अंग है।

योग क्या है?

योग शब्द संस्कृत की युज् धातु से बना है जिसका अर्थ होता है- जुड़ना ।

अब प्रश्न उठता है- किस से जुड़ना ?

यहां आत्मा के परमात्मा से जुड़ने की बात की गई है ।

महर्षि पातंजल ने योगदर्शन के द्वितीय श्लोक में ही योग को परिभाषित करते हुए लिखा है-

योगः चित्त वृत्ति निरोधः

अर्थात् चित्त वृत्तियों का निरूद्ध अर्थात् स्थिर होना ही योग है ।

कठोपनिषद् में लिखा है-

तां योगमिति मन्यते स्थिरामिन्द्रिय धारणाम् ( कठोपनिषद् 2/3/11)

अर्थात् इन्द्रियां , मन, और बुद्धि की स्थिर धारणा का नाम ही योग है ।

भगवानश्रीकृष्ण श्रीमद्भाग्वद्गीता में स्वयं योग को परिभाषित करते हुए कहते हैं-

यथा दीपो निवातस्थो नेंगते सोपमा स्मृता ।

योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ।।

अर्थात् जिस अवस्था में मनुष्य का चित्त परमात्मा में इस प्रकार स्थित हो जाता है जैसे वायुरहित स्थान में दीपक स्थिर हो जाता है , उस अवस्था को योग कहते हैं।

अतः योग एक ऐसी अवस्था है जिसमें चित्त का आत्मा में लय हो जाता है और उसके बाद आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाता है ।

चित्त की शुद्धि अर्थात् वृत्तियों का निरोध कैसे करें

महर्षि पातंजल ने चित्त वृत्तियों के निरोध के लिए समग्र योग को आठ अंगों में बाँटा है, जिसे अष्टांग योगसूत्र का नाम दिया गया है-

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोSष्टवङ्गानि

अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये योग के आठ अंग हैं ।

अष्टांग योग की यह यात्रा स्थूल से सूक्ष्म जगत की ओर लेकर जाती है। अष्टांग योग के पहले पांच भाग –बहिरंग ( Exoteric) योग और अंतिम तीन भाग – अन्तरंग ( Esoteric) योग कहलाते हैं। बहिरंग ( Exoteric) योग को बाहरी जगत में और अन्तरंग ( Esoteric) योग को अन्तर्जगत में साधा जाता है।

चित्त शुद्धि के लिए शरीर ( इन्द्रियों ) , मन, तथा बुद्धि की शुद्धता अनिवार्य है ।

1. अष्टांग योग की पहली सीढ़ी है- यम

योगदर्शन के अनुसार-

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ।। ( योगदर्शन- 2/30 )

इन्द्रियों एवं मन के विचारों पर अंकुश लगाकर अपने बाहरी आचार, कार्य व व्यवहार को नियन्त्रित करना यम है । महर्षि पतंजलि ने पाँच प्रकार के यम बताए हैं- अहिंसा ( किसी को मन, वाणी, शरीर द्वारा कष्ट ना पहुंचाना) 

सत्य ( मन, वचन व कर्म की एकता ),

अस्तेय ( किसी के अधिकार, कौशल, तथा सम्पत्ति आदि ना छीनना)

ब्रह्मचर्य ( काम- वासना से मन व इन्द्रियों को दूर रखना ) और

अपरिग्रह ( संग्रह ना करना ) । इनका पालन ही यम है ।

2. योग की दूसरी सीढ़ी है- नियम 

योगदर्शन के अनुसार-

शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः (योगदर्शन- 2/32)

ऐसे श्रेष्ठ गुण जो ईश्वर से निकटता बढ़ाते हैं , को ग्रहण करने के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना ही नियम है । महर्षि पतंजलि ने पाँच प्रकार के नियम बताए हैं-

शौच- शरीर एवं अन्तःकरण की पवित्रता

संतोष- सुख- दुःख, लाभ- हानि, मान- अपमान आदि सभी परिस्थितियों में सन्तुष्ट रहना

तप- इन्द्रियों व मन को नियन्त्रित रखने के लिए प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहना

स्वाध्याय- अपने कर्मों और विचारों का अध्ययन एवं निरीक्षण करना

ईश्वर प्राणिधान- ईश्वर में पूर्ण समर्पण

3. अष्टांग योग की तीसरी सीढ़ी है- आसन

स्थिरसुखमासनम् ( योगदर्शन 2/ 46 )

सुखपूर्वक स्थिरता से दीर्घकाल तक बैठने का नाम आसन है । मन की चंचलता को रोकने के लिए आवश्यक है कि तन को भी स्थिर रखा जाए। मन पानी की तरह है और तन बर्तन की तरह । बर्तन ( शरीर ) हिलेगा तो पानी ( मन ) भी हिलेगा। अब आप चाहते हैं कि पानी ना हिले तो जरूरी है कि बर्तन भी ना हिले।

गीता में जब अर्जुन भगवान कृष्ण से कहता है कि हे कृष्ण , ये मन इतना चंचल है कि जैसे मुट्ठी में हवा पकड़ में नहीं आती, ऐसे ही ये मन भी पकड़ में नहीं आता। तो भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन- कि तू अभ्यास भी कर और वैराग्य को धारण कर । अभ्यास किस चीज का- लम्बी अवधि तक बिना हिले बैठने का , ताकि मन का निरोध किया जा सके।

4. बहिरंग योग की चौथी सीढ़ी है- प्राणायाम

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायाम ।। ( योगदर्शन- 2/49)

श्वास- प्रश्वास की गति नियन्त्रण का नाम ही प्राणायाम है । इसे ही आजकल योग मान लिया गया है, जबकि वास्तविकता तो ये है कि यह योग का सिर्फ एक अंग है ना कि सम्पूर्ण योग । मन को स्थिर करने का सूत्र प्राणों को स्थिर करना बताया। इसलिए साधक / योगी को सूर्योदय के समय योगिक क्रियाएँ व प्राणायाम ( नाड़ी शोधन, कपालभाति, भस्त्रिका, अनुलोम- विलोम, भ्रामरी आदि ) करना अनिवार्य है।

कोरोना के इस भीषण संकट काल में यही प्राणायाम की विधियां जीवनदायिनी बनीं और पूरी दुनिया को दिखा दिया कि भारत की योग परम्परा में प्राणायाम की कितनी महत्वपूर्ण भूमिका है। शरीर को पूर्ण स्वस्थ रखने का प्राणायाम से बढ़कर कोई और निःशुल्क किन्तु बेशकीमती उपाय नहीं है । आज सम्पूर्ण विश्व इस प्राणायाम के महत्व को लेकर इसके आगे नत- मस्तक है।

5. बहिरंग योग की पांचवी और आखिरी सीढ़ी है- प्रत्याहार

स्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रयाणां प्रत्याहारः ।। ( योगदर्शन- 2/54 )

इन्द्रियों का अपने- अपने विषयों के संग से रहित होने पर चित्त में स्थित हो जाना ही प्रत्याहार है। इसी पड़ाव पर साधक बहिरंग योग से अन्तरंग योग की ओर उन्मुख होता है अतः इन्द्रियों व मन- बुद्धि के बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी होने का नाम ही प्रत्याहार है।

6. अष्टांग योग की छठी व अन्तरंग योग की पहली सीढ़ी है- धारणा

देशबन्धश्चित्तस्य धारणा ।। ( योगदर्शन- 3/ 1)

धारणा अर्थात् चित्त को किसी देश विशेष में स्थिर करना । प्रश्न उठता है- कहाँ स्थिर करना है ? इसका उत्तर भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता में दिया है- हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ( गीता – 13/17) अर्थात् वह परमात्मा सबके हृदय में स्थित है। ध्यान से समझ लीजिए- अध्यात्म की भाषा में आज्ञा चक्र (दोनों भौहों के मध्य का स्थान- अर्थात् त्रिकुटि ) को हृदय कहा जाता है । उस प्रकाश स्वरूप परमात्मा की धारणा केवल एक पूर्ण ब्रह्मज्ञानी ( या तत्वज्ञानी) गुरू ही कृपा से ही सम्भव है। इसलिए आवश्यकता है एक पूर्ण गुरू के सान्निध्य में जाकर प्रकाश स्वरूप परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने की।

7. अष्टांग योग की सातवीं सीढ़ी है- ध्यान

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम् ।। ( योगदर्शन- 3 / 2)

प्रकाश स्वरूप परमात्मा के दर्शन के बाद चित्त को एकाग्र करना ही ध्यान है । ध्यान किसका करें- प्रकाश स्वरूप परमात्मा का ।

8. अष्टांग योग की आठवीं सीढ़ी है- समाधि

तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।। ( योगदर्शन- 3/3)

ध्यान ही समधि बन जाता है जब केवल ध्येय स्वरूप का ही भान रह जाए और स्व स्वरूप के भान का अभाव हो जाए । इसी अवस्था को चार वेदों में इस प्रकार व्यक्त किया है-

प्रज्ञानम ब्रह्म ( एतरेयोपनिषद् – ऋग्वेद 3/3 ) , अयं आत्मा ब्रह्म ( माण्डूक्यपनिषद्, अथर्ववेद- 1/2 ), तत् त्वं असि ( छान्दोग्योपनिषद् , सामवेद- 6/7/8 ), अहम् ब्रह्मास्मि ( बृहदारण्यक उपनिषद्, यजुर्वेद- 1/4/10 )।

योग की वह अवस्था जिसमें चित्त की वृत्तियों का पूरी तरह से निरोध हो जाता है, वह समाधि है ।

कठोपनिषद् ( 2/3/10 ) में लिखा है- इन्द्रिय, मन व बुद्धि के स्थिर होने पर जब योगी को परमात्मा के अतिरिक्त किसी भी वस्तु का ध्यान नहीं रहता तथा इन्द्रियाँ , मन- बुद्धि चेष्टा- रहित हो जाती हैं, तो योग की उस सर्वोत्तम अवस्था में परमगति (मोक्ष) प्राप्त हो जाती है ।

आशा है कि अब आप योग के विषय में कम से कम न्यूनतम सैद्धान्तिक ज्ञान तो प्राप्त कर ही चुके होंगे, लेकिन ईश्वर का साक्षात्कार प्रयोगात्मक विषय है, इसलिए गीता में भी चौथे अध्याय के चौतीसवें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को उस तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए किसी तत्ववेत्ता गुरू के पास जाने की आज्ञा देते हैं। आईये ईश्वर से प्रार्थना करें कि योग के वास्तविक स्वरूप को जानकर उस मार्ग पर अग्रसर हो सकें, और इस सम्पूर्ण विश्व को और अधिक सुन्दर बना सकें।

- डॉ. श्याम सुन्दर पाठक ‘अनन्त’

(लेखक उत्तर प्रदेश राज्य कर विभाग में सहायक आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं )

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