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Sindur Khela on Vijayadashami: 450 साल पहले शुरू हुआ था सिंदूर खेला, इस प्रथा का महत्व और इतिहास बेहद रोचक

Updated Oct 08, 2019 | 12:24 IST | टाइम्स नाउ डिजिटल

नवरात्रि (Navratri) पर सिन्दूर खेला (Sindoor Khela) का विशेष आयोजन होता है। इस दिन विवाहिताएं माँ दुर्गा (Maa Durga) के माथे और पैरों पर सिंदूर लगा उसे एक दूसरे को भी लगाती हैं।

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तस्वीर साभार:&nbspInstagram
Durga Puja Sindur Khela 2019
मुख्य बातें
  • मां दुर्गा को चढ़ाए सिंदूर से होता है सिंदूर खेला
  • सिंदूर खेला में विवाहिताएं एक दूसरे को सिंदूर लगाती हैं
  • सुखद वैवाहिक जीवन और सौभाग्य का प्रतीक है सिंदूर खेला

दुर्गा पूजा का जश्न दशहरा पर सिंदूर खेला का रूप ले लेता है। इस दिन विवाहित महिलाएं दुर्गा विसर्जन या दशहरे के दिन मां दुर्गा को सिंदूर लगा कर एक दूसरे को भी उसी सिंदूर को लगाती हैं। अखंड सौभाग्य पाने के लिए किया जाने वाला यह सिंदूर खेला बहुत महत्व रखता हैं। मां दुर्गा के माथे और पैरों पर लगा सिंदूर विवाहिताएं एक दूसरे की मांग भी भरती हैं और उसे चेहरे पर भी मलती हैं। यह बहुत शुभ माना जाता है। आइए जानें सिंदूर खेला का महत्व क्या है।

सिंदूर खेला का महत्व
विजयदशमी या मां दुर्गा विसर्जन के दिन महिलाएं एक-दूसरे के साथ मां दुर्गा के लगाए सिंदूर से सिंदूर खेला खेलती हैं। चूँकि सिंदूर विवाहित महिलाओं की निशानी है और इस अनुष्ठान के जरिये महिलाएँ एक दूसरे के लिए सुखद और सौभाग्य से भरे वैवाहिक जीवन की कामना करती हैं।

450 साल पहले शुरू हुई थी परंपरा
सिंदूर खेला कि रस्म पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश के कुछ हिस्सों में पहली बार शुरू हुई थी। लगभग 450 साल पहले वहां की महिलाओं ने माँ दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, कार्तिकेय और भगवान गणेश की पूजा के बाद उनके विसर्जन से पूर्व उनका श्रृंगार किया और मीठे व्यंजनों का भोग लगाया। खुद भी सोलह श्रृंगार किया। इसके बाद मां को लगाए सिंदूर से अपनी और दूसरी विवाहिताओं की मां भरी। ऐसी मान्यता थी कि भगवान इससे प्रसन्न होकर उन्हें सौभाग्य का वरदना देंगे और उनके लिए स्वर्ग का मार्ग बनाएंगे।

मां आती हैं अपने मायके
ऐसा माना जाता है कि नवरात्रि में मां दुर्गा अपने मायके अपने माता-पिता के साथ पृथ्वी पर आती हैं। मां के आदर-सम्मान के लिए तमाम तरह के आयोजन और व्यंजन बनाए जाते हैं। नवरात्रि के बाद मां अपने घर वापस लौटती हैं इसलिए उनकी विदाई की जाती है। ये भव्य विदाई देनेके लिए सिंदूर खेला का आयोजन होता है। देवी दुर्गा के चरणों और माथे पर सिंदूर लगाने के दौरान वे उनसे सुखी और लंबे वैवाहिक जीवन के लिए प्रार्थना की जाती है।

पूजा और भोग अनुष्ठान
विसर्जन के दिन अनुष्ठान की शुरुआत महाआरती से होती है, और देवी मां को शीतला भोग अर्पित किया जाता है, जिसमें कोचुर शक, पंता भट और इलिश माछ को शामिल किया जाता है। पूजा के बाद प्रसाद बांटा जाता है। पूजा में एक दर्पण को देवता के ठीक सामने रखा जाता है और भक्त देवी दुर्गा के चरणों की एक झलक पाने के लिए दर्पण में देखते हैं। मान्यता है कि जिसे दपर्ण में मां दुर्गा के चरण दिख जाते हैं उन्हे सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

देवी बोरन की बारी
पूजा के बाद देवी बोरन आती है, जहाँ विवाहित महिलाएँ देवी को अंतिम अलविदा कहने के लिए कतार में खड़ी होती हैं। उनकी बोरान थली में सुपारी, सिंदूर, आलता, अगरबत्ती और मिठाइयाँ होती हैं। वे अपने दोनों हाथों में सुपारी लेती हैं और मां के चेहरे को पोंछती हैं। इसके बाद मां को सिंदूर लगाया जाता है। शाक और पोला (लाल और सफेद चूडिंयां) पहना कर मां को विदाई दी जाती हैं। मिष्ठान और पान-सुपारी चढ़ाया जाता है। आंखों में आंसू लिए हुए मां को विदाई दी जाती है।

रात में बनता है लुचुई और घुघुनी
देवी बोरन और सिंदूर खेला के बाद माँ दुर्गा की प्रतिमा का किसी नदी में विसर्जन कर दिया जाता है। शाम को लोग एक-दूसरे को शुभ बिजोय यानी जीत की कामना के साथ एक दूसरे को बधाई देते हैं और इस अवसर पर लु(खुश जीत) की कामना करने के लिए एक बार फिर से इकट्ठा करते हैं और गर्म लुचुई और घूघनी की प्रसाद देते हैं।

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