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Mothers Day Special: वंचितों, गरीबों के लिए फैला दिया ममता का आंचल, ऐसी थीं मदर टेरेसा

Updated May 10, 2020 | 07:00 IST

Mothers Day 2020: देश-दुनिया में 10 मई को मदर्स डे मनाया जा रहा है, जब एक ऐसी महिला का जिक्र भी बेहद प्रासंगिक हो जाता है, जो खुद मां न होते हुए भी वंचित वर्ग के हजारों लोगों के लिए किसी मां से कम नहीं थीं।

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तस्वीर साभार:&nbspBCCL
Mothers Day Special: वंचितों, गरीबों के लिए फैला दिया ममता का आंचल, ऐसी थीं मदर टेरेसा
मुख्य बातें
  • देश-दुनिया में कोरोना महामारी के बीच 10 मई को मदर्स डे मनाया जा रहा है
  • मां को समर्पित इस खास दिन मदर टेरेसा का जिक्र बेहद प्रासंगिक हो जाता है
  • खुद मां न होते हुए भी वह वंचित वर्ग के हजारों लोगों के लिए मां से कम नहीं थीं

नई दिल्‍ली : मदर टेरेसा का नाम लेते ही मन में मानवता की प्रतिमूर्ति व एक शां‍ति की दूत की छवि उभरती है, जिन्‍होंने अपना पूरा जीवन गरीब, असहायत और वंचित वर्ग के लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। यूं तो उनका जन्‍म भारत में नहीं हुआ था, पर वह यहां इस तरह रच-बस गई थीं कि किसी के लिए भी यह समझ पाना मुश्किल हो गया कि उनका ताल्‍लुक मूलत: किसी अन्‍य देश से है।

दीन-दुखियों की सेवा
कोलकाता को अपनी कर्मस्‍थली बना लेने वालीं मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को मेसिडोनिया के स्कोप्जे शहर में हुआ था। उनका वास्‍तविक नाम यूं तो अगनेस गोंझा बोयाजिजू था, लेकिन जिस तरह उन्‍होंने अपना पूरा जीवन दीन-दुखियों, कुष्ठ रोगियों और अनाथ लोगों की सेवा में समर्पित कर दिया, उसकी वजह से उन्‍हें पूरी दुनिया में मदर टेरेसा के तौर पर जाना गया।

कोलकाता को बनाई कर्मभूमि
शांति और सदभावना के क्षेत्र में अहम योगदान के लिए उन्हें वर्ष 1979 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। रोमन कैथोलिक नन मदर टेरसा साल वर्ष 1929 में भारत आई थीं और फिर हमेशा के लिए यहीं रह गईं। 1947 में उन्हें भारत की नागरिकता हासिल हो गई। उन्‍होंने पश्चिम बंगाल में कोलकाता को अपनी कर्मभूमि बना लिया, जहां 1950 में उन्‍होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की।

गरीबों के शौचालय भी साफ किए
भारत में रहते हुए उन्‍होंने गरीबों और पीड़ित लोगों के लिए जो कुछ भी किया, वह पूरी दुनिया में मिसाल बन गई। उन्‍होंने हमेशा गरीब व वंचित वर्ग के लोगों को साफ सफाई से रहने के लिए प्रेरित किया तो कहा यहां तक जाता है कि अपने जीवन के आखिरी दिनों तक उन्‍होंने गरीबों के शौचालय अपने हाथों से साफ किए। वह अपना सारा काम खुद करती थीं और अपनी साड़ी भी खुद धुलती थीं। उनका न तो कोई सेक्रेटी और न ही कोई असिस्‍टेंट था।

ऐसी थी दिनचर्या
वह सुबह 5 बजे से ही वह प्रार्थना में लग जाती थीं, जो लगातार दो-ढाई घंटे तक चलती रहती थी। इसके बाद वह नाश्‍ता कर घर से निकल जाती थीं। वह फर्राटे से बांग्ला बोलती थीं, जिसे सुनकर शायद ही कोई अंदाजा लगा सकता था कि वह मूलत: भारत से नहीं हैं। हालांकि अपने जीवन के आखिरी दिनों में उन पर गरीबों की सेवा करने के बदले धर्मांतरण का आरोप भी लगा। 5 सितंबर 1997 को गिरती सेहत के बीच उनका निधन हो गया। बाद में उन्‍हें संत की उपाधि दी गई।