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International Womens Day 2022: 'तुम ही बताओ राम, क्या था मेरा इतना कसूर'

Updated Mar 08, 2022 | 09:37 IST

देश और दुनिया 8 मार्च को नारी शक्ति दिवस के तौर पर मना रहा है। समाज में नारी की महत्ता किसी से छिपी नहीं है। नारी की संपूर्ण शख्सियत को कविता के माध्यम से पेश करने की कोशिश की गई है।

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International Womens Day 2022: 'तुम ही बताओ राम, क्या था मेरा इतना कसूर'

'यत्र नार्यस्तु पूजन्तये रमन्ते तत्र देवता' यूँ ही नहीं कहा...आज भी जब बेटी पैदा होती है तो कहते हैं - 'लक्ष्मी' आई है...वधू को भी 'गृहलक्ष्मी' कहकर संबोधित करने का मर्म ही ये है कि स्त्री अपने हर रूप में पूजनीय है, वंदनीय है । जीवन में समस्त उन्नतियों का मूल है- स्त्री का आदर करना । 'शिव' का अर्थ है जो कल्याणकारी है उसी शिव में से यदि 'ई'कारान्त हटा दिया जाए तक 'शव' बचेगा । मर्म सीधा सा है -  'शिव' अर्थात 'कल्याणकारी' होने के लिए स्त्री का आदर, सम्मान आवश्यक है।'अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस'' के अवसर पर एक सुन्दर किंतु कुछ कड़वे प्रश्न पूछती कविता जो निश्चित ही आपका अन्तर्मन झकझोर देगी।

 एक सम्पूर्ण स्त्री 

हे राम ! तुमको प्रणाम !

आज्ञा हो तो , कुछ कहूँ ।

कोलाहल अन्तर्मन का,

सबसे पहले कोटि धन्यवाद ,

डालने को प्राण –मुझ पाषाण में,

पर क्या पूछ सकती हूँ

कुछ प्रश्न ?

क्योंकि प्रश्न पूछना तो दूर,

मन की कहना भी अक्षम्य है,

स्त्री के लिये ?

तुम ही बताओ अपराध मेरा,

क्या जानती थी मैं ?

इन्द्र ने बना स्वामी का वेश,

किया जब, प्रणय निवेदन,

तो भला कैसे ठुकराती ?

इन्द्र की छलना से थी मैं अनभिज्ञ,

वही किया मैंने,

जो था पत्नी का धर्म,

ऋषि गौतम के आगमन पर, जब खुला भेद,

तो क्यों मिला श्राप मुझे,

पत्थर हो जाने का,

तुम ही बताओ राम,

क्या था मेरा इतना कसूर,

कि ना जान सकी,

इन्द्र का छल ?

ना वास्तविक भर्ता को,

या ना ठुकरा पाई, प्रणय निवेदन,

या प्रणय इच्छा की पूर्ति,

बन गया अभिशाप,

तुम ही बताओ उद्धारक राम,

क्यों स्त्री ही छली जाती है, हर बार ?

क्या उसका रूपवान होना,

है उसके लिये अभिशाप ?

और रूपहीन होना भी तो,

नहीं कम किसी अभिशाप से,

तो दोनों ही स्थितियों में,

श्राप की भागी, स्त्री ही क्यों ?

किसने दिया अधिकार पुरुष को,

कि करे निर्णय,

कि स्त्री को क्या करना है ?

कब हँसना है, कब रोना है ?

कब इच्छा- पूर्ति करना है ?

कब, कैसे, क्या- क्या कहना है ?

वो कहे तो बन जाये पत्थर,

और जब कहे तो-

फूलों सी बिछ जाये,

कठपुतली बन, उसका मन बहलाये,

बिन कहे ही, पूरी मिट जाये,

 मैं पत्थर बन, खाती रही ठोकर पैरों की,

करती रही प्रतीक्षा, युगों- युगों तक,

कि आये एक और पुरुष,

और करे मेरा उद्धार,

है कैसी विडम्बना-

इस पुरुष समाज की,

कि देना है उसी को श्राप,

और उद्धार भी उसी को करना है,

आरोप लगाये ग़र पुरुष-

तो सही होने का प्रमाण भी-

स्त्री को ही देना है,

जब हो इच्छा उसकी

तो पुष्प- शैया सी बिछ जाये ,

और होने पर उसके रुष्ट-

बन जाये पत्थर की तरह-

प्राणहीन, भावहीन,

हे राम !

मैं तो फिर भी हूँ भाग्यशालिनी,

जो आये तुम जीवन में,

और डाल दिये मुझ निर्जीव में प्राण,

लेकिन हैं कितनी हतभागिनी ऐसी भी,

जिनके जीवन में नहीं आता कोई राम,

आते हैं तो- सिर्फ इन्द्र या रावण रूपी अहंकारी पुरुष,

जिसकी इच्छा की पूर्ति करना ही है-

स्त्री का एकमात्र धर्म,

उसके इशारों पर नाचना ही है-

उसका एकमात्र कर्म,

तुमने अपने स्पर्श से जिला तो दिया मुझे,

पर युगों- युगों तक यही कहेगी दुनिया कि-

देखो राम ने तारा अहल्या को,

वरना थी वह पाषाण होने के ही योग्य,

क्यों हर कदम पर, करता है पुरुष ही एहसान ?

स्त्री के भाग्य का निर्धारण,

क्यों करता है वही तय,

कि कब बने स्त्री, प्रेम का साकार रुप,

और कब पाषाण बन सहे अत्याचार बिल्कुल मौन,

क्या किया कभी आभास, मेरा दर्द किसी ने ?

जो करके भी पूर्ण समर्पण

हो गई श्रापित,

वाह !

क्या पाया मैंने सुन्दर पारितोष ?

निभाते हुये निज धर्म,

सोचो, अपना धर्म निभाते भी पाया मैंने अभिशाप,

तो फिर देते हो किस धर्म की दुहाई ?

अरे कुछ तो बोलो राम

ये मौन क्यों ?

या कोई उत्तर नहीं पास तुम्हारे,

होगा भी कैसे ?

जग की सारी वर्जनायें सारी मर्यादायें,

हैं स्त्री के लिये ही तो,

कब कर सकी स्त्री,ल समता पुरुष से ?

वह तो है अनुचरी पुरुष की,

उसकी इच्छा की दासी बनना ही उसका धर्म,

पर क्या कभी समझ सका मदांध पुरुष,

समर्पण स्त्री का,

स्त्री सिर्फ़,

प्रेम ही नहीं करती,

प्रेम में जीती है,

उसके तन का समर्पण है,

वस्तुतः उसके मन का पूर्ण समर्पण,

प्रेम स्त्री के तन में एकाकार हो होता है प्रकट,

कर लेती है वह समाहित अपना अस्तित्व- पुरुष में,

अरे बन कर देखते कभी स्त्री

तब जान पाते उसका समर्पण,

लेकिन तुम तो उद्धारक बन,

बन जाते हो वंदनीय,

लेकिन मैं अहल्या भोगती हूँ,

सजा उस पाप की जो किया ही नहीं मैंने,

सच तो ये है राम कि,

पुरुष ही करता है बाध्य पत्थर बनने को,

नहीं तो कांटों को चुन,

सिर्फ़ पुष्प बनना जानती है स्त्री,

समर्पित होना ही है- स्त्री हो जाना,

उसका समर्पण- उसकी कमजोरी नहीं,

अपनी इच्छायें वह,

इसलिये नहीं मारती कि

उसे मारना ही होगा उन्हें,

बल्कि इसलिये कि,

कोई इच्छा ही नहीं रहती शेष पुरुष में एकाकार हो,

क्या उसका ये समर्पण ही है उसके लिये अभिशाप ?

बताओ राम, क्यों हो मौन ?

या कोई उत्तर नहीं पास तुम्हारे,

या मानते हो तुम भी,

कि स्त्री कुछ भी कहे,

तो या तो हो जाओ मौन,

या करो उस पर प्रहार,

राम !

भले ही मत बोलो आज तुम,

लेकिन मैं युगों- युगों तक यही पूछती रहूँगी मैं,

कि क्या स्त्री का प्रेम , है उसकी इच्छा-पूर्ति ?

कि उसका समर्पण है क्या उसकी कमजोरी ?

कि उसका त्याग है क्या उसकी बाध्यता ?

या उसका एकाकार हो जाना है, उसका दासत्व ?

नहीं राम !

उसका प्रेम, उसका समर्पण, उसका त्याग,

उसका एकाकार हो जाना ही है-

स्त्री हो जाना,

और हाँ,

मुझे गर्व है कि मैं एक स्त्री हूँ,

एक सम्पूर्ण स्त्री ।”

( डॉ. श्याम 'अनन्त')

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