इस्लामाबाद : पाकिस्तान में इमरान खान ने 2018 में जब सत्ता संभाली थी तो नया पाकिस्तान बनाने का वादा किया था। लेकिन बलूचिस्तान में रह रहे लोगों की जो हालत है, खासकर शिया हजारा समुदाय के लोग जिस तरह यहां लगातार नफरत व हिंसा के शिकार हो रहे हैं, उससे इमरान खान के 'नया पाकिस्तान' बनाने के दावों को लेकर सवाल उठना लाजिमी है? पाकिस्तान के प्रधानमंत्री एक बार फिर देश में शिया हजारा समुदाय के लोगों के साथ हुई ज्यादती और इस पर अपनी असंवेदनशीलता को लेकर सवालों के घेरे में हैं। उनका रवैया 2013 के उनके ही रुख से बिल्कुल उलट नजर आ रहा है, जिस पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
पाकिस्तान के अशांत दक्षिण-पश्चिमी बलूचिस्तान प्रांत में रविवार (3 जनवरी) को बंदूकधारियों ने हजारा समुदाय के 11 कोयला खनिकों को गोली मार दी थी, जिसके बाद से उनके परिजनों में गम और गुस्सा है। वाकया बलूचिस्तान के माछ कोलफिल्ड का है, जिसके आवासीय परिसर में खनिक रहते थे। देर रात कुछ हथियारबंद लोग वहां पहुंचते हैं, जब खनिक वहां सो रहे थे। हथियारबंद लोगों ने यहां अन्य को छोड़ दिया, जबकि शिया हजारा समुदाय के निर्दोष 11 लोगों को बंधक बना लिया। उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी गई और उन्हें पास के पहाड़ी इलाके में ले जाया गया, जहां उन्हें गोली मार दी गई।
बिलख रहे हैं परिजन
शिया हजारा समुदाय के लोग उसी दिन से पाकिस्तान में कड़ाके की ठंड के बावजूद प्रदर्शन कर रहे हैं। वे प्रधानमंत्री को बुलाने की मांग पर अड़े हैं और उन्होंने तब तक शवों को सुपुर्द-ए-खाक किए जाने से भी इनकार किया है, जब तक कि प्रधानमंत्री इमरान खान आकर उन्हें सुरक्षा का आश्वासन नहीं दे देते। प्रदर्शनकारियों में महिलाओं की बड़ी संख्या देखी जा रही है। कोई अपने शौहर तो कोई अपने बेटे और कोई अपने भाई के लिए बिलख रही हैं। इस हमले की जिम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली थी, जो पाकिस्तान में बढ़ते इस वैश्विक आतंकी संगठन के प्रभाव को भी दर्शाता है।
पाकिस्तान में यह पहली बार नहीं है, जब हजारा समुदाय के खिलाफ इस तरह की हिंसा हुई है। इससे पहले 2013 में भी आतंकियों ने इस समुदाय के खिलाफ बड़ी वारदात को अंजाम दिया था। उस साल जनवरी और फरवरी में हजारा शिया समुदाय को निशाना बनाकर किए गए आतंकी हमले में करीब 200 लोगों की जान चली गई थी, जबकि सैकड़ों घायल हुए थे। तब इमरान खान विपक्ष में थे और पाकिस्तान में आसिफ अली जरदारी राष्ट्रपति थे। उन्होंने इन वारदातों के लिए सीधे तौर पर तत्कालीन सरकार को जिम्मेदार ठहराया था और कहा था कि सरकार बलूचिस्तान के क्वेटा में रह रहे हजारा शिया समुदाय के लोगों को सुरक्षा देने में नाकाम रही है।
पीड़ितों से मिलने को तैयार नहीं इमरान खान
वह तब पीड़ित परिवारों से मिलने भी गए थे। लेकिन इस बार जब वह प्रधानमंत्री हैं, अपनी जगह से टस से मस होने को तैयार नहीं हैं। हजारा शिया समुदाय के लोग कड़ाके की ठंड के बीच लोग न्याय की मांग को लेकर धरने पर बैठे हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने इतना कहकहर अपना पल्ला झाड़ लिया है कि वह पीड़ित परिवारों को मुआवजा दिया जाएगा और उनकी अन्य मांगें भी मान ली गई हैं, फिर उनकी इस जिद का कोई कारण नहीं है कि वे प्रधानमंत्री के वहां पहुंचकर उनसे मुलाकात के बाद ही शवों की अंत्येष्टि करेंगे। बकौल इमरान खान यह एक तरह से प्रधानमंत्री को 'ब्लैकमेल' करना है।
इससे इतर जनवरी 2013 में जब पाकिस्तान में आतंकियों ने हजारा शिया समुदाय के लोगों को निशाना बनाया था, तत्कालीन प्रधानमंत्री रजा परवेज अशरफ पीड़ितों से मिलने पहुंचे थे और समुदाय के नेताओं से बात भी की थी, जिन्होंने उन्हें अपनी असुरक्षा और समुदाय में व्याप्त भय के माहौल के बारे में बताया था। पाकिस्तान में हजारा शिया समुदाय के खिलाफ धार्मिक कट्टरपंथी हमलों की तस्दीक ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट भी करती है, जिसके मुताबिक, 2012 में जहां यहां 450 लोगों की जान चरमपंथी हिंसा में गई, वहीं 2013 में 400 लोगों की जान गई। 2008 से लेकर 2014 तक यहां करीब 500 हजारा समुदाय के लोगों की जान गई है।
कौन हैं हजारा समुदाय के लोग
शिया हजारा समुदाय के लोगों को मंगोल मूल का माना जाता है। ये हजारगी भाषा बोलते हैं, जो फारसी का ही एक रूप है। इस समुदाय के लोग पाकिस्तान के साथ-साथ अफगानिस्तान और ईरान में भी हैं। लेकिन इन्हें तो पाकिस्तान में अपनाया गया और न ही अफगानिस्तान में। अफगानिस्तान में तालिबान शासन के दौरान इन पर जुल्म हुए तो पाकिस्तान में ये आए दिन आतंकी हमलों का शिकार होते हैं। माना जाता है कि पाकिस्तान में कट्टरपंथी सोच के लिए इन्हें स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि वे पाकिस्तान को पाक यानी शुद्ध लोगों के रहने की जगह मानते हैं, जबकि हजारा समुदाय के बारे में उनका मानना है कि ये शुद्ध नहीं हैं।
मंगोलों की तरह चेहरे-मोहरे वाले इस समुदाय के लोग अलग से पहचान में आ जाते हैं और आतंकी इन्हें छांट-छांटकर इनके साथ हिंसक वारदात को अंजाम देते हैं। ये अफगानिस्तान में तीसरी बड़ी आबादी वाला समुदाय है, लेकिन वहां भी इन्हें नहीं अपनाया गया। अफगानिस्तान में तालिबान शासन के दौरान हिंसा से बचने के लिए इस समुदाय के लोगों ने बड़ी संख्या में पाकिस्तान और ईरान में शरण ली थी, लेकिन पाकिस्तान में भी उन्हें कभी स्वीकार नहीं किया गया और उन्हें बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा का सामना करना पड़ रहा है।