- तुर्की नाटो में अकेला मुस्लिम देश था जो कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई में शामिल था। लेकिन अब वह एक मध्यस्थ के रुप में अपनी भूमिका देख रहा है
- तालिबान का राजनीतिक कार्यालय कतर के दोहा में है। वह साल 2013 से यहां आपरेट कर रहा है।
- चीन और पाकिस्तान के बाद कतर और तुर्की, अफगानिस्तान में अहम भूमिका निभा सकते हैं।
नई दिल्ली: जल्द ही अफगानिस्तान में तालिबान सरकार का स्वरूप सामने आ जाएगा। जैसी कि संभावना है अफगानिस्तान में ईरान की तर्ज पर सरकार का गठन होगा। जिसमें एक धार्मिक नेता सर्वोच्च लीडर होगा। और उसके नीचे रोजमर्रा के काम के लिए राष्ट्रपति और दूसरे मंत्री रहेंगे। ऐसी संभावना है कि हिब्तुल्लाह अखुंदजादा सर्वोच्च लीडर बनेंगे। नई सरकार के बाद तालिबान को खस्ताहाल अफगानिस्तान को चलाने के लिए सबसे ज्यादा उम्मीद चीन और पाकिस्तान से हैं। लेकिन इन दोनों के अलावा दो देश ऐसे हैं, तो नए बदलाव में जल्द ही अहम भूमिका निभाने की तैयारी में है। कतर जहां पहले से तालिबान और दुनिया के बीच मध्यस्थ बनकर उभरा है। वहीं अब तुर्की का रुख तालिबान को लेकर बदल रहा है। राष्ट्रपति रजब तैयब अर्दुआन के बयानों से साफ है कि वह बदलते दौर में केवल नाटो तक सीमित नहीं रहना चाहते हैं।
तुर्की ने अपना दूतावास फिर से शुरू किया
जब सारे देश अफगानिस्तान से अपने राजनयिकों को वापस बुला रहे हैं। वहीं तुर्की ने दोबारा अपना दूतावास शुरू कर दिया है। तुर्की का यह कदम इसलिए मायने रखता है कि वह नाटो में अकेला मुस्लिम देश था जो कि तालिबान के खिलाफ लड़ाई में शामिल था। और उसके पास 6 साल से काबुल एयरपोर्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी। लेकिन बदलते समीकरण के बाद तुर्की को एक बार फिर से मुस्लिम देशों की रहनुमा बनने की ख्वाहिश ने अर्दुआन को संबंधों को बदलने पर मजबूर कर दिया है। तुर्की में मीडिया से बात करते हुए रविवार को अर्दुआन ने कहा "हम लगातार बदलती परिस्थितियों को देखते हुए अपनी योजना में बदलाव कर रहे हैं। हमारी कोशिश है कि राजनीतिक दबाव लगातार बनाया रखा जा सके। तुर्की अफगानिस्तन की एकता के लिए सभी तरह के सहयोग देने को तैयार है। हालांकि पहले हम इस इंतजार में है कि वहां पर तालिबान की सरकार का स्वरूप किस तरह का होगा।"
इसके अलावा अर्दुआन ने खुद माना है कि उनकी सरकार ने तालिबान के साथ बातचीत शुरू कर दी है। इसके जरिए वह न केवल अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में विस्थापन की समस्या को भी रोकना चाहते हैं। बल्कि तालिबान में निवेश के अवसर भी तलाश रहे हैं। क्योंकि तुर्की तालिबान से बेहतर रिश्ते कर कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में बड़ा निवेश कर सकता है। जिसकी अभी अफगानिस्तान को बेहद जरूरत है।
पाकिस्तान से बेहतर संबंधों का मिलेगा फायदा
तालिबान पर सबसे ज्यादा प्रभाव पाकिस्तान और चीन का है। और तालिबान प्रवक्ता ने साफ कर दिया है कि अफगानिस्तान के पुर्ननिर्माण में चीन उसका सबसे बड़ा सहयोगी होगा। ऐसे में तुर्की, पाकिस्तान से अपने बेहतर संबंधों के जरिए अफगानिस्तान में निवेश का रास्ता खुलवा सकता है। इसके अलावा तुर्की की कोशिश है कि वह अफगानिस्तान में मजबूत होकर ईरान और दूसरे मुस्लिम देशों पर गहरी नजर रख सके। क्योंकि जिस तरह अर्दुआन बार-बार तुर्की को खिलाफत शासन के दौर का रुतबा दिलाना चाहते हैं। ऐसे में मध्य-एशिया के मुस्लिम देशों को वह नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।
मध्यस्थ बनना चाहता है तुर्की
तुर्की नाटो संगठन में शामिल रहा है। ऐसे में वह इस मौके को अफगानिस्तान और पश्चिमी देशों के बीच मध्यस्थ के रुप में स्थापित करने के रूप मे देख रहा है। अगस्त में तुर्की के विदेश मंत्री ने कहा था "तुर्की अफगानिस्तान की नई सरकार को मान्यता देने के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ सहयोग करेगा।" जाहिर है तुर्की अब अफगानिस्तान में केवल नाटो सगंठन का देश के रुप में अपनी भूमिका नहीं निभाना चाहता है। इसके लिए उसने बैकडोर मीटिंग शुरू भी कर दी है। उसकी कोशिश है कि नई सरकार के गठन में उसका भी प्रभाव रहे।
कतर बना सूत्रधार
तालिबान के साथ अमेरिकी सरकार का चाहे समझौता हो या फिर अफगानिस्तान से जान बचा कर भाग रहे लोगों को रास्ता दिलाने की बात हो। ये सारी कूटनीतिक रणनीति बनाने में छोटे से कतर देश की अहम भूमिका रही है। दुनिया भर के सारे देश इस समय कतर के जरिए तालिबान से संपर्क कर रहे हैं। तालिबान का राजनीतिक कार्यालय भी कतर के दोहा में है। वह साल 2013 से यहां आपरेट कर रहा है। तालिबान के साथ भारत की पहली औपचारिक बात भी दोहा में हुई है। यही नहीं अमेरिका ने करीब 40 फीसदी लोगों को कतर के जरिए अफगानिस्तान से निकाला है। इस पूरी कवायद में कतर एक बड़े सूत्रधार देश के रुप में उभरा है। अफगानिस्तान और तालिबान, कतर के लिए एक अहम जीत हैं। सफल मध्यस्थता के बाद पश्चिमी देशों के लिए खाड़ी क्षेत्र में कतर की अहम भूमिका बनती जा रही है। इस भूमिका के बाद साफ है कि तालिबान सरकार के गठन के बाद न केवल अफगानिस्तान में कतर की अहमियत बढ़ेगी, बल्कि पश्चिमी देशों में भी कतर एक अहम साथी बनकर उभर सकता है। जिसका असर मध्य एशिया में नए राजनीतिक समीकरण के रुप में भी दिख सकता है।