54 साल पहले आज ही के दिन हुआ था बैंकों का राष्ट्रीयकरणः समझें, क्या बदला और किसे हुआ नफा-नुकसान
Nationalisation of Banks in India: अगर कुल मिलाकर देखा जाए तो ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरूपयोग किया। जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बेठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया।
तस्वीर का इस्तेमाल सिर्फ प्रस्तुतिकरण के लिए किया गया है। (क्रिएटिवः अभिषेक गुप्ता)
Nationalisation of Banks in India: 19 जुलाई 1969 को पहली बार देश के 14 प्रमुख बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था। साल 1980 में फिर छह बैंक राष्ट्रीयकृत हुए थे। मंगलवार यानी 19 जुलाई 2023 को बैंकों के राष्ट्रीयकरण के 54 वर्ष पूरे हुए। दूसरे विश्व युद्ध के बाद यूरोप में केंद्रीय बैंक को सरकारों के अधीन करने के विचार ने जन्म लिया। उधर, बैंक ऑफ़ इंग्लैंड का राष्ट्रीयकरण हुआ। इधर, भारतीय रिज़र्व बैंक के राष्ट्रीयकरण की बात उठी जो 1949 में पूरी हो गयी। फिर 1955 में इम्पीरियल बैंक, जो बाद में ‘स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया’ कहलाया, सरकारी बैंक बन गया।
8 साल में डूबे 360 बैंक
एक रिपोर्ट के मुताबिक, 1947 से लेकर 1955 तक 360 छोटे-मोटे बैंक डूब गए थे, जिनमें लोगों के जमा करोड़ों रुपए डूब गए थे, जबकि कुछ बैंक कालाबाज़ारी और जमाखोरी के धंधों में पैसा लगा रहे थे। ऐसे में सरकार ने इनकी कमान अपने हाथ में लेने का फैसला किया ताकि वह इन्हें सामाजिक विकास के काम में भी लगा सके। राष्ट्रीयकरण के बाद बैंकों की शाखाओं में बढ़ोतरी हुई। शहर से उठकर बैंक गांव-देहात की तरफ चल दिए। आंकड़ों के मुताबिक, जुलाई 1969 को देश में बैंकों की सिर्फ 8322 शाखाएं थीं। 2023 के आते-आते यह आंकड़ा 85 हजार को पार कर गया।
राष्ट्रीयकरण से ज्यादा सरकारीकरण
अगर कुल मिलाकर देखा जाए तो ये बैंकों का राष्ट्रीयकरण न होकर सरकारीकरण ज्यादा हुआ। कांग्रेस की सरकारों ने बैंकों के बोर्ड में अपने राजनीतिक लोगों को बिठाकर बैंकों का दुरूपयोग किया। जो लोग बोर्ड में बैंकों की निगरानी के लिए बेठे थे उन्होंने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए बैंकों का भरपूर इस्तेमाल किया। बैंक यूनियंस के जो नेता बोर्ड में शामिल हुए उन्होंने भी बैंक कर्मचारियों का ध्यान न करते हुए बोर्ड के सदस्यों की साजिश में शामिल हो गए। इन वर्षों में राष्ट्रीयकृत बैंकों ने कई दौर देखे हैं।
- लोन मेलों का दौर।
- मैन्युअल लैजेर्स से कम्पूटराइजेशन का दौर।
- बैंकों को पूरी स्वायतता देने का दौर।
- वैश्वीकरण के बाद बैंकों के शेयरों को पब्लिक में बेचने का दौर।
- बैंकों को बैंकिंग के अलावा दूसरी सेवाओं को देने का दौर।
- जनधन खातों से जनता तक पहुंचने का दौर।
- सबसे कष्टदायक नोटबंदी का समय।
नोटबंदी में दिखी ताकतसमय-समय पर इन बैंकों ने सरकार द्वारा निर्देशित सभी योजनाओं का क्रियान्वयन बड़े उत्साह से किया है। सबसे अभूतपूर्व कार्य नोटबन्दी के 54 दिनों मे इन बैंकों ने करके दिखाया। देश के सरकारी तन्त्र की कोई भी इकाई (सेना को छोड़कर) 36 घंटे के नोटिस पर ऐसा काम नहीं कर सकती जैसा इन सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने कर दिखाया।
सरकारी बैंकों का पहला विलय 1993 में न्यू बैंक ऑफ़ इंडिया का पंजाब नेशनल बैंक में हुआ। नरसिंहम् समिति की सिफारशों पर कार्यवाही करते हुए केन्द्र सरकार ने सबसे पहले 2008 में स्टेट बैंक ऑफ़ सौराष्ट्र, 2010 में स्टेट बैंक ऑफ़ इंदौर और 2017 में बाकि पांच एसोसिएट बैंकों का स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में विलय करने के बाद 2019 में तीन बैंकों, बैंक ऑफ़ बड़ौदा, विजया बैंक और देना बैंक का विलय और एक अप्रैल 2020 से 6 बैंक सिंडीकेट बैंक, ओरिएंटल बैंक ऑफ कॉमर्स, यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, कारपोरेशन बैंक और आंध्रा बैंक का विलय कर दिया है । इसके बाद वर्तमान में सरकारी क्षेत्र के 12 बैंक रह गये हैं ।
निजीकरण समाधान नहीं
आज जब विश्व में आर्थिक संकट के कारण बड़े बड़े बैंक धाराशाही हो रहे हैं वहीँ भारतीय बैंकों के स्थिति अच्छी हो रही है। सरकार के निरंतर प्रयासों के कारण बैंकों की स्थिति मजबूत हो रही है। बैंकों का मुनाफा भी निरंतर बढ़ता जा रहा है। सरकारी बैंक जहाँ सरकार की सामजिक योजनाओं को लागू करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं वहीँ देश की आर्थिक प्रगति में भी अपना पूरा योगदान कर रहे हैं। पांच दशकों के बाद सरकार के यूटर्न से जहाँ देश की आर्थिक प्रगति में रूकावट आएगी वहीँ सरकार की सामाजिक योजनाओं को लागू करने में कमी होगी।
राष्ट्रीयकरण से पहले भी और नई जनरेशन के निजी बैंकों के आने के बाद भी इन बैंकों की प्राथमिकता लाभ कमाना, विशेष वर्ग के ग्राहकों पर ध्यान केन्द्रित करना रहता है, सामाजिक योजनाओं पर निजी बैंकों का ध्यान केन्द्रित कम रहता है । सरकारी बैंकों को देश को आर्थिक प्रगति के साथ साथ सामाजिक दायित्वों को भी पूरा करना होता है। ऐसे में जब सरकारी बैंक देश की आर्थिक प्रगति में अपना पूरा योगदान कर रहे हैं, सरकार को इन बैंकों के निजीकरण का फेसला नहीं करना चाहिए।
(लेखक अश्विनी राणा, फाउंडर, वॉयस ऑफ़ बैंकिंग)
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