ग़ालिब की गजलें खूब सुनी होंगी, ग़ालिब की हवेली में करें घुमक्कड़ी; दिन बन जाएगा

ग़ालिब होना आसान नहीं है। उनके इस दुनिया से जाने के डेढ़ सौ साल से अधिक समय बीत जाने के बावजूद उनकी हर एक शायरी नई सी लगती है। शायरी और ग़ालिब जैसे एक-दूसरे का पर्यायवाची हो गए। शायद आपको पता न हो कि आप आज भी ग़ालिब को महसूस कर सकते हैं। तो फिर चलिए ग़ालिब की हवेली में और उनकी जीवनशैली में इस खिड़की से झांकने की कोशिश करें।

ग़ालिब की हवेली

'बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे, होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे...' यानी दुनिया मेरे आगे बच्चों का खेल जैसा है। दिन रात ये तमाशा मेरे आगे होता ही रहता है। ऐसी बातें लिखने के लिए किसी को ग़ालिब ही होना पड़ेगा। क्योंकि ग़ालिब से रत्ती भर भी कम कोई शख्स शब्दों की ऐसी नुमाइश नहीं लगा सकता। 'हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले...' ग़ालिब होना कोई आसान बात नहीं। ख्वाहिशों पर किसका जोर चलता है, कई ख्वाहिशें तो सच में दम ही निकाल देती हैं। तभी ग़ालिब कहते हैं, 'दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।' सच कहें तो दिल के दर्द की कोई दवा नहीं, अगर ग़ालिब के पास नहीं तो यकीन मानिए दुनिया में किसी के पास नहीं है। 'दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूं...' दिल पर कोई जोर नहीं चलता, वह ईंट-पत्थर थोड़े ही है जिसमें दर्द के लिए कोई जगह ही न हो। मिर्जा ग़ालिब की ये गज़लें ग़ालिब के दिल, उनकी शख्सियत को बयां करती हैं। 1797 में जन्मे और 1869 में दुनिया से रुखसत होने वाले मिर्जा ग़ालिब से अब उनकी शायरी और गज़लों के माध्यम से ही जुड़ सकते हैं। लेकिन आप उन्हें आज भी महसूस कर सकते हैं। इसके लिए आपको चलना होगा मिर्जा ग़ालिब की हवेली में। तो फिर देर किस बात की, चलिए जानते हैं मिर्जा ग़ालिब की हवेली के बारे में सब कुछ -

कहां है ग़ालिब की हवेली

ग़ालिब की हवेली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में है। पुरानी दिल्ली में चांदनी चौक के पास बल्लीमारान में गली कासिम जान में मिर्जा ग़ालिब की यह हवेली है। ग़ालिब की हवेली का पता मशहूर शायर, गीतकार और फिल्मकार गुलजार शब्दों में जानना चाहें तो उन्होंने पता कुछ इस तरह लिखा है -

बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियां

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