Holi Origin History : सबसे पहले इस शहर में खेली गई थी होली, रंग-गुलाल में सराबोर हुए थे लोग ; जानें क्या कहता है इतिहास
Holi Origin History : होली का त्योहार भारतीय संस्कृति की जीवंतता का प्रमाण है। रंग-गुलाल में सराबोर होने का प्रचलन कहां से आया और इस होली का उद्गम स्थल कहां है? यह जानना हमारे लिए बेहद जरूरी है। तो आइये समझते हैं कि वो कौन सी जगह, जहां पहली बार रंग-गुलाल में लोग सराबोर हुए?



होली का इतिहास
Holi Origin History : रंगों का पर्व होली भारतीय परंपरा और संस्कृति की जीवंतता का प्रमाण है। इस खास त्योहार को मनाने की प्रत्येक में राज्य में अलग-अलग विधाएं भी हैं। हालांकि, रंग-गुलाल में सराबोर होना इसकी पर्व की प्राथमिकता में से एक है। इससे जुड़े कई कथानक हैं, जिनको केंद्र में रखकर सदियों से इस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है। इस कड़ी में मथुरा-वृंदावन ने अपनी एक अलग छाप छोड़ी है। कहते हैं ब्रज की होली में भगवान श्री कृष्ण और राधा के प्रेम का रंग घुला होता है। यहां बिना अंगराग के अद्वितीय भावना के साथ होली मनाने की परंपरा है। यहां गोपी-गोपाल के रूप में कृष्ण और राधा के साथ होली का प्रेम लोगों के मन में रचा बसा है। दिलों में उमंग का राग लेकर फूलों, लट्ठमार और लड्डुओं की होली से बरसाना तर बतर रहता है। उधर, भगवान शिव की नगरी काशी जितनी औघड़ है मनमौजी है, उतनी ही वहां की होली में राग रचता बसता है। काशी जीवन मरण से मुक्त करती है तो होली में उन्हीं चिताओं के बीच जश्न का अवसर भी देती है। भगवान शिव के राग, श्रद्धा और भक्ति में डूबे लोग गंगा घाट पर चिता की राख से अनोखी होली खेलते नजर आते हैं, जिसे मसाने की होली कहते हैं। ये तो कुछ झलकियां हमारे सामने हैं, लेकिन सवाल है कि जिस होली के रंग में हम डूबने के लिए आतुर हैं, उसका उद्गम कहां से हुआ? वो कौन थे? जिन्होंने रंगो से जीवन में उमंग भरने का जतन ढूंढा। तो इस कवर स्टोरी में हम आज होली के उद्गम स्थल और उससे जुड़ी तमाम विधाओं पर चर्चा करेंगे।

होली त्योहार
होली का केंद्र
प्रकृति की गोद में भारतीय संस्कृति ने खुद को जीवंत रखा है। उसमें होली का पर्व नई दिशा की ओर लेकर जाता है। इस खास पर्व पर क्या बच्चे क्या बूढ़े? जिसे भी सराबोर होने का मौका मिला, उसने कभी उम्र का लिहाज नहीं किया। गांव से लेकर शहर और कस्बों तक राग अनुराग में डूबे लोग रंग के लिबास को ओढ़ लेते हैं। फिर मौज-मस्ती, हास-परिहास गीत संगीत में खुद को समाहित कर झूमते नजर आते हैं। लेकिन, इस राग में हमें रचने-बसने का शऊर और सलीका कहां से मिला इस पर बात करना लाजिमी है। तो चलते हैं उस जगह के बारे में समझने की कोशिश करते हैं, जहां से रंगों के पर्व होली की शुरुआत हुई और उसका केंद्र कौन थे, जिन्होंने हमारे हाथों में ये परंपरा को बढ़ाने का अवसर दिया?
होली त्योहार
भगवान विष्णु की तपस्या से नाराज था हिरण्यकश्यपु
इस साल होली मार्च को खेली जाएगी। वहीं, होली की परंपराएं और उनकी जड़ें भारतीय पौराणिक कथाओं में समाहित हैं। कई स्थानों पर प्राचीन भारत के राक्षस राजा हिरण्यकश्यपु की कथा से जुड़ा पाया जाता है। बचपन से लेकर अभी तक हम दंत कथाओं में उत्तर प्रदेश के झांसी जिले स्थित एरच के राजा हिरण्यकश्यप और उनके बेटे भक्त प्रह्ललाद के साथ द्वंद को सुनते आए हैं। कहते हैं उनके बेटे प्रह्ललाद भगवान विष्णु के एक समर्पित उपासक थे, जिनकी श्रद्धा भक्ति हिरण्यकश्यपु को कभी रास नहीं आई। इसलिए उन्होंने विष्णु की पूजा बंद करने के लिए मनाने की कोशिश की। लेकिन, श्रद्धा भक्ति में डूबे प्रह्ललाद ने पिता की बात मानने से इनकार कर दिया। लिहाजा, उन्होंने अपने बेटे प्रह्ललाद को डराने के कई जतन ढूंढे। आखिरकार, हिरणाकश्यप ने प्रहलाद को डिकोली पर्वत से नीचे फिकवा दिया। डिकोली पर्वत और जिस स्थान पर प्रहलाद गिरे वह आज भी मौजूद है। इसका जिक्र श्रीमद् भागवत पुराण के नौवे स्कन्ध में व झाँसी गजेटियर पेज 339ए, 357 में मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिरणाकश्यप की बहन होलिका ने प्रहलाद को मारने की ठानी। उन्होंने अपनी बहन होलिका का सहारा लिया। कथाओं के मुताबिक, होलिका को वरदान था कि उसे आग भी नहीं जला सकती। अगर, होलिका अग्नि में प्रवेश करेंगी तो अग्नि भी नहीं जला सकती। इस पर राजा हिरण्यकश्यप ने बहन होलिका से बेटे प्रह्लाद को अग्नि में लेकर बैठने का आग्रह किया। लेकिन, वह अपने वरदान को भूल गईं कि अगर, वह किसी के साथ अग्नि में प्रवेश करेंगी तो वह खुद ही जल जाएंगी।
होली त्योहार
इस स्थान पर पहली बार खेली गई होली
राजा हिरण्यकश्यप के आदेश पर एरच के पास स्थित डिकौली पर्वत पर अग्नि जलाई गई, जिसमें होलिका भक्त प्रह्लाद को लेकर अग्नि में कूद गईं। कहते हैं होलिका के पास एक ऐसी चुनरी थी, जिसे पहनने पर वह आग के बीच बैठ सकती थी, जिसको ओढक़र आग का कोई असर नहीं पढ़ता था। होलिका वही चुनरी ओढ़ प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई, लेकिन भगवान की माया का असर यह हुआ कि हवा चली और चुनरी होलिका के ऊपर से उडकर प्रहलाद पर आ गई। इस तरह प्रहलाद फिर बच गया और होलिका जल गई। इसके तुंरत बाद विष्णु भगवान ने नरसिंह के रूप में अवतार लिया और गौधुली बेला यानी न दिन न रात में अपने नाखूनों से डिकौली स्थित मंदिर की दहलीज पर हिरणाकश्यप का वध कर दिया। कहते हैं बुराई पर अच्छाई की जीत होने पर एरच कस्बे में अगले दिन रंग-गुलाल लगाए जाने की परंपरा शुरू हुई। माना जाता है होलिका दहन झांसी के एरच कस्बे में हुआ था। इसलिए होली का उद्गम स्थल एरच है। तभी से रंग-गुलाल में लोग सराबोर होने लगे। झांसी के डिकौली पर्वत पर वह जगह आज भी मौजूद है, जिसके प्रमाण आज भी जीवंत हैं। इस नगर को भक्त प्रह्लाद की नगरी भी कहा जाता है। एरच कस्बा झांसी शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित है।
बुन्देलखंड नहीं बल्कि पूरे देश में होली एक दिन पहले होलिका दहन की परम्परा चली आ रही ही। एरच में आज भी इस परम्परा को स्थानीय निवासी फाग और गानों के साथ हर्षोल्लास से नगर में शोभायात्रा निकाल कर मनाते हैं।
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