जब कहीं हल्का होने की व्यवस्था नहीं थी, तब बिंदेश्वर पाठक ने 'सुलभ' बना दिया
बिंदेश्वर पाठक वो नाम है जिन्हें स्वच्छता के लिए जाना गया। बिंदेश्वर पाठक वह शख्त थे, जिन्होंने उस समय शौचालय को सुलभ बना दिया, जब लोग घर के आंगन में शौचालय बनाने को हेय दृष्टि से देखते थे। दलितों के उत्थान और शौचालय को सुलभ बनाने के लिए उनके प्रयास अद्वितीय हैं।
शौचालय को सुलभ बनाने वाले ये हैं सिटी की हस्ती
शौचालय कितनी बड़ी सुविधा है? शौचालय कितनी जरूरी सुविधा है? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर बहुत बड़ा और बहुत जरूरी है। इतनी बड़ी और इतनी जरूरी सुविधा होने के बावजूद हमारे देश में शौचालय तक पहुंच बहुत कम लोगों की थी। इसी समस्या को समझते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साल 2014 में सत्ता में आते ही स्वच्छ भारत अभियान चलाया और घर-घर शौचालय बनाने का अभियान शुरू किया। बिंदेश्वर पाठक एक ऐसे शख्स थे, जिन्होंने सार्वजनिक शौचालय बनाकर देश को कभी भी कहीं भी हल्के होने की सुविधा दी। उन्होंने शौचालय को सभी के लिए सुलभ बना दिया। उनका 'सुलभ शौचालय' दुनिया में स्वच्छता और शौचालय तक पहुंच को आसान बनाने का दूसरा नाम बन गया। बिहार के लाल बिंदेश्वर पाठक वैशाली की धरती से निकले और उन्होंने उस समय शौचालय को हर व्यक्ति के लिए सुलभ बनाया, जब घर पर शौचालय बनाना लोग शान के खिलाफ समझते थे।
वैशाली के इस गांव में जन्मे
बिंदेश्वर पाठक का जन्म बिहार में वैशाली के रामपुर बघेल गांव में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। 2 अप्रैल 1943 को जन्मे बिंदेश्वर पाठक एक समाजशास्त्री थे जिन्होंने देश स्वच्छता अभियान की शुरुआत की। बिंदेश्वर पाठक ने अपना यह स्वच्छता अभियान, पीएम नरेंद्र मोदी के स्वच्छता अभियान से बहुत पहले शुरू किया था। वैशाली के लाल ने सुलभ शौचालय के जरिए देश को स्वच्छता का जो पाठ पढ़ाया, उसकी बदौलत आज देश के हर कोने में शौचालय सुलभ है। देश को स्वच्छ बनाने के मिशन पर निकले बिंदेश्वर पाठक का सफर 15 अगस्त 2023 को कार्डियक अरेस्ट के कारण थम गया। निधन के समय वह 80 साल के थे।
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मैला ढोने की परंपरा पर प्रहार
बिंदेश्वर पाठक ने देश में स्वच्छता के स्टैंडर्ड को ऊंचा उठाया। उन्होंने खुले में शौच की परंपरा और मजबूरी को खत्म करने के लिए प्रयास किए और दो पिट वाले टॉयलेट के कॉन्सेप्ट को लागू किया। बिंदेश्वर पाठक का बनाया दो पिट वाला टॉयलेट, ड्राई टॉयलेट से ज्यादा हायजीनिक भी था। इसके जरिए उन्होंने सिर पर मैला ढोने की परंपरा पर भी प्रहार किया। ड्राइ टॉयलेट को साफ करने के लिए मजदूरों को गंदगी सिर पर ढोकर साफ करना पड़ता था। दिल्ली में जश्न-ए-बहार ट्रस्ट के फाउंडर और बिंदेश्वर पाठक के मित्र रहे कामना प्रसाद का कहना था कि दो पिट वाला टॉयलेट बनाकर उन्होंने मैला ढोने वाले हजारों लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाया।
बचपन की एक घटना ने सब कुछ बदल दिया
जैसा कि हमने ऊपर बताया बिंदेश्वर पाठक एक ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे। लेकिन बचपन की एक घटना ने उनके जीवन को बदलने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपने बचपन में देखा कि जब भी कोई दलित महिला उनके घर पर आती थी तो उस महिला के जाने के बाद उनकी दादी मां जमीन पर जल छिड़ककर शुद्धि करती थी। एक इंटरव्यू में बिंदेश्वर पाठक ने बताया था कि एक दिन उन्होंने अपनी दादी मां से पूछा - दादी ऐसा क्यों करती हो? तब उनकी दादी ने कहा, 'यह महिला दलित है, इनके यहा आने से जमीन दूषित होती है।' उन्होंने बताया कि एक दिन उन्होंने उत्सुकता में एक दलित महिला को छू दिया और उनकी दादी मां ने उन्हें ऐसा करते हुए देख भी लिया। इसके बाद दादी मां ने उन्हें भी शुद्ध होने के लिए कहा। उन्होंने बचपन में देखा था कि कैसे दलितों को समाज से बाहर माना जाता था और उन्हें जीवन में अवसर भी नहीं मिलते थे।
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ऐसे बना सुलभ शौचालय
पटना के बिहार नेशनल कॉलेज से साल 1964 में सोशियोलॉजी की डिग्री लेने के बाद उन्होंने शहर की गांधी सेंटेनरी कमेटी के 'भंगी मुक्ति सेल' में वॉलंटीयर के तौर पर काम करना शुरू किया। बाद में उन्होंने बताया था कि उन्हें इसलिए चुना गया था, क्योंकि वह भी महात्मा गांधी की ही तरह दलितों के लिए अधिकार और सम्मान चाहते थे। कमेटी ने उन्हें बेतिया भेजा, जहां उन्होंने खुले में शौच के खतरे को देखा। खुले में शौच के चलते महिलाओं को हिंसा का शिकार तो होना ही पड़ता था, लोग बीमारी की चपेट में भी आ जाते थे।
साल 1968 में बिंदे्वर पाठक ने दो पिट वाला एक टॉयलेट सिस्टम बनाया। इस सिस्टम को उन्होंने सुलभ शौचालय का नाम दिया। स्वच्छता और दलितों के उत्थान के लिए बिंदेश्वर पाठक लगातार जुटे रहे। उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को सुलभ शौचालय की खूबियां बताईं। उन्होंने बताया कि कैसे इसमें कम पानी लगता है और किसी को हाथों से उसकी सफाई भी नहीं करनी पड़ती।
बना दिया सुलभ इंटरनेशनल
इसके बाद साल 1970 में बिंदेश्वर पाठक ने सुलभ इंटरनेशल सोशल सर्विस ऑर्गेनाइजेशन (SISSO) बनाया। शुरुआत में सुलभ इंटरनेशनल का ध्यान पुराने टॉयलेट को टू-पिट टॉयलेट में बदलना ही रहा। हालांकि, अब SISSO मानवाधिकारों के लिए, वेस्ट मैनेजमेंट और शिक्षा से जुड़ी अवसरों को बढ़ाने पर भी काम करता है। साल 1973 में बिंदेश्वर पाठक ने बिहार में लोगों को शौचालय के महत्व को समझाने के लिए अपने दो शौचालय बनाए। दो पिट वाले टॉयलेट बनाने का अभियान पहले बिहार और फिर पूरे देश में शुरू किया गया।
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SISSO की कोशिशों के चलते साल देशभर के घरों में 1.6 मिलियन यानी 16 लाख टॉयलेट बने। साल 1974 में लो कॉस्ट, पे टू यूज पब्लिक टॉयलेट का मॉडल विकसित किया। इसके जरिए अब लोग पैसे देकर सुलभ शौचालय का इस्तेमाल कर सकते थे। इस काम के लिए उन्हें कई सामाजिक वर्जनाएं झेलनी पड़ीं और उनकी जमकर आलोचना भी हुई। लेकिन वह अपने मिशन में सफल रहे और आज देशभर में हजारों सुलभ शौचालय मौजूद हैं, जो लोगों को हल्का होने की सुविधा देते हैं।
भूटान और अफगानिस्तान में भी सुलभ
वह एक अच्छे लेखक और वक्ता भी थे। उन्होंने कई किताबें लिखीं, जिसमें सबसे चर्चित किताब 'द रोड टू फ्रीडम' थी। इसके अलावा वह स्वच्छता के विषय पर होने वाले राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भाग लेते थे। सुलभ इंटरनेशनल सिर्फ भारत ही नहीं पड़ोसी देश भूटान, नेपाल, इथियोपिया, लाओस, दक्षिण और अफगानिस्तान सहित दुनिया के कई विकासशील देशों में भी काम कर रहा है। बिंदेश्वर पाठक को अपने इस काम के लिए कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड भी मिले हैं। लेकिन उनकी सच्ची सफलता और सच्चा अवॉर्ड तो यही है कि स्वच्छता की जब भी बात होती है, उनका नाम जरूर लिया जाता है।
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