Himachal Chunav 2022: हिमाचल में BJP को भारी पड़ गई अपने ही नेताओं की बगावत, ये हैं हार की 5 वजहें
Himachal Chunav 2022: हिमाचल प्रदेश के बारे में पिछले कई दशकों से हर 5 साल के बाद सरकार बदलने की परंपरा रही है। यहां के लोग एक पार्टी को मौका दने के बाद अगली बार दूसरी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देते आए हैं। पहाड़ी राज्य के लोगों ने अपनी यह पुरानी परंपरा इस बार भी कायम रखी है।
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022।
Himachal Chunav Result 2022: अब तक के चुनाव रुझानों से साफ हो गया है कि हिमाचल प्रदेश में अगली सरकार कांग्रेस की बनने जा रही है। रुझान करीब-करीब स्थिर हो गए हैं। ये रुझान अगर नतीजों में तब्दील हो गए तो कांग्रेस अकेले अपने दम पर सरकार बना लेगी। हिमाचल में सरकार बनाने के लिए 35 विधायकों की जरूरत होती है। कांग्रेस 39 सीटों, भाजपा 26 सीटों और अन्य 3 सीटों पर आगे चल रहे हैं। ऐसे में एक दो सीटें कांग्रेस की यदि कम भी होती हैं तो सरकार बनाने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी। हिमाचल प्रदेश चुनाव में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा सहित भगवा पार्टी के तमाम दिग्गज चेहरों एवं मंत्री ने ताबड़तोड़ रैलियां कीं एवं प्रचार किया फिर भी पार्टी को जीत नहीं दिला सके। इस पहाड़ी राज्य में भाजपा की हार की 5 प्रमुख वजहों पर एक नजर डालते हैं-
BJP की हार में बगावत बड़ी वजह
चुनाव में टिकट न मिलने की नाराजगी राजनीतिक दलों को झेलनी पड़ती है। हिमाचल प्रदेश में भाजपा को अपने नेताओं की बगावत का नुकसान उठाना पड़ा। इस बार चुनाव में करीब दो दर्जन विधायक ऐसे थे जिन्होंने टिकट कटने पर बगावत कर दी। यह बगावत एवं नाराजगी ऐसी थी कि नेताओं के गुस्से को शांत करने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को दखल देना पड़ा। नाराज विधायकों एवं नेताओं को मनाने के लिए जेपी नड्डा सहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन किया। इस मान-मनौव्वल का बहुत ज्यादा असर नहीं पड़ा। नड्डा और बड़े नेताओं के दखल के बाद करीब पांच-छह नेता मान गए लेकिन करीब 20 नेता एवं विधायकों निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव में उतर गए। समझा जाता है कि इन बागी नेताओं ने भाजपा का वोट बैंक में सेंध लगाई।
हिमाचल ने रवायत बनाए रखी
हिमाचल प्रदेश के बारे में पिछले कई दशकों से हर 5 साल के बाद सरकार बदलने की परंपरा रही है। यहां के लोग एक पार्टी को मौका दने के बाद अगली बार दूसरी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देते आए हैं। पहाड़ी राज्य के लोगों ने अपनी यह पुरानी परंपरा इस बार भी कायम रखी है। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस को हराकर उससे सत्ता हथियाई थी। लगातार दूसरी बार सरकार बनाने का मौका न देने की यह रवायत साल 1985 से चली आ रही है। 1985 में कांग्रेस ने 58 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि भाजपा को यहां सात सीटें मिली थी। वीरभद्र सिंह को हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त किया गया था। प्रचंड जीत के पांच साल बाद 1990 के चुनावों में भाजपा के 46 सीटें जीतने के साथ कांग्रेस दूसरा कार्यकाल हासिल करने में विफल रही। वीरभद्र सिंह की जगह बीजेपी के शांता कुमार आए। हालांकि, उनका कार्यकाल पांच साल तक नहीं चल सका, क्योंकि 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद हिमाचल में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। सत्ता में बदलाव का यही क्रम साल 1993, 1998, 2003, 2007, 2012 और 2017 में चला।
विधायकों से लोग नाराज थे
हिमाचल प्रदेश में भाजपा को इस बार बार सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ा। यह लहर इस बार कुछ ज्यादा दी। स्थानीय लोग मौजूदा विधायकों से नाराज चल रहे थे। लोगों की शिकायत थी कि विधायक उनकी बातें नहीं सुनते और क्षेत्र में नहीं रहते। लोग चाहते थे कि इन विधायकों को दोबारा भाजपा से टिकट न मिले। फिर भी इन नेताओं को टिकट मिला।
महंगाई-बेरोजगारी का मुद्दा भी रहा अहम
हिमाचल प्रदेश में लोगों की आय का प्रमुख स्रोत पर्यटन है। राज्य का पूरा आर्थक ढांचा पर्यटन केंद्रित है। कोरोना महामारी का असर यहां की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। करीब दो सालों तक देश से लोग पहाड़ी राज्य में घूमने के लिए नहीं पहुंचे। इसका सबसे ज्यादा असर छोटे कारोबारियों एवं होटल व्यवसाय से जुड़े लोगों पर पड़ा। कोरोनाकाल में हिमाचल प्रदेश की अर्थव्यवस्था करीब-करीब पूरी तरह ठप पड़ गई। इसके बावजूद यहां के लोगों को कुछ राहत नहीं मिली। इस बीच, महंगाई और बेरोजगारी भी काफी बढ़ गई। इसके चलते भी लोगों में सरकार के खिलाफ काफी नाराजगी दिखी।
अंदरूनी खींच-तान का असर
हिमाचल प्रदेश से भाजपा के दो दिग्गज नेता आते हैं। पहले हैं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और दूसरे अनुराग ठाकुर। बताया जाता है कि इन दोनों नेताओं की आपस में नहीं बनती। राज्य में दोनों के अपने-अपने गुट हैं। एक खेमा दूसरे को आगे बढ़ने से रोकता रहता है। दोनों नेताओं के बीच कई बार यह दूरी सामने आ चुकी है। इस बार चुनाव में अनुराग गुट के कई विधायकों को टिकट कट गया। इसके बाद टिकट कटने वाले विधायकों ने बगावत करते हुए निर्दलीय परचा भर दिया। प्रदेश स्तर पर भाजपा के पास ऐसा कोई बड़ा चेहरा भी नहीं है जो पार्टी नेताओं को एकसूत्र में बांधकर रख सके या प्रभावी रूप से नेतृत्व कर सके।
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