इस चुनाव यूपी-बिहार में नहीं गली छोटे दलों की दाल, सौदेबाजी में नाकामी, अरमानों पर फिरा पानी
Lok Sabha Election 2024: हर चुनावी मौसम में बिहार और उत्तर प्रदेश की छोटी पार्टियां एनडीए या इंडिया ब्लॉक का हिस्सा बनने के लिए कड़ी सौदेबाजी करती हैं। लेकिन इस बार नजारा बदला-बदला सा है।
छोटी पार्टियों का दबदबा हुआ कम
Smaller Parties in Lok Sabha Election 2024: एक दौर वो भी था जब हर चुनावों में छोटी पार्टियों का डंका बजा करता था। खासकर यूपी और बिहार में ऐसे दलों की तूती बोला करती थी। छोटे दल अपनी शर्तों पर बड़े दलों से समझौते करते थे। बड़ी पार्टियां भी इन्हें सिर आंखों पर बिठाकर रखती थीं। उस दौर के सियासी हालात का छोटे दलों ने जमकर फायदा उठाया। छोटे दलों के नेताओं ने खुद का और परिवार का खूब भला किया। लेकिन इस चुनाव में वो दौर बीत गया सा लगता है। अब छोटे दलों को सिर पर बिठाने वाला कोई नहीं है। कभी एनडीए तो कभी इंडिया गठबंधन के बीच डोलते-डोलते ये घाटे का सौदा कर बैठे। मजबूरी ऐसी आई कि इन्हें मन मसोसकर दूसरे दलों से समझौता करना पड़ा।
पप्पू यादव को लगा झटका
हर चुनावी मौसम में बिहार और उत्तर प्रदेश की छोटी पार्टियां एनडीए या इंडिया ब्लॉक का हिस्सा बनने के लिए कड़ी सौदेबाजी करती हैं। लेकिन इस बार नजारा बदला-बदला सा है। बड़े-बड़े दावे करने वाले छोटे दलों के नेता बैकफुट पर हैं। इनका सियासी भविष्य ही संकट में नजर आने लगा है। बात करें बिहार में जन अधिकार पार्टी के नेता पप्पू यादव की तो उनकी स्थिति अजब हो गई है। हाल ही में पूर्णिया लोकसभा सीट पाने की उम्मीद से उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया। लेकिन यह सीट लालू यादव की राजद के खाते में चली गई। उसने इस सीट से बीमा भारती को मैदान में उतार दिया है। इससे झटका खाए पप्पू यादव गठबंधन के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए फिर चुनावी मैदान में उतर आए हैं। उन्होंने पूर्णिया से निर्दलीय के रूप में नामांकन दाखिल कर दिया।
पशुपति पारस खा गए मात
पूर्व केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय लोक जनशक्ति पार्टी के नेता पशुपति कुमार पारस की स्थिति और दयनीय है। कभी वह एनडीए का हिस्सा थे और उन्हें बेहतर सौदेबाजी की उम्मीद में थे। उनकी नजर हाजीपुर लोकसभा सीट पर भी थी, जहां से वह मौजूदा सांसद हैं। लेकिन भाजपा ने उन्हें बड़ा झटका देते हुए उनके भतीजे चिराग पासवान का साथ देने का फैसला किया। पार्टी ने चिराग को हाजीपुर सहित पांच सीटों की पेशकश की। पारस ने इसे अन्याय बताते हुए केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया। बताया जाता है कि उन्होंने विपक्षी इंडिया गठबंधन के साथ जुड़ने की कोशिश की, लेकिन वहां भी उन्हें ज्यादा तवज्जो नहीं मिली। कोई विकल्प नहीं होने पर पारस ने आखिर घोषणा की कि वह अभी भी एनडीए के साथ हैं और इसे बिहार में जीत दिलाने के लिए काम करेंगे।
मुकेश सहनी की भी यही कहानी
बिहार के एक और पार्टी वीआईपी की भी यही कहानी है। इसके सुप्रीमो मुकेश सहनी ने एनडीए और इंडिया ब्लॉक दोनों के साथ डील करने की कोशिश की। वह तीन लोकसभा सीटें मांग रहे थे, जिसे किसी भी गठबंधन ने स्वीकार नहीं किया। बीजेपी ने उन्हें महज एक सीट की पेशकश की। सहनी ने फैसला लेने में देर की तो एनडीए ने बिहार में अपने सभी उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। सहनी के पास कोई रास्ता नहीं बचा तो वह आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन के साथ चले गए।
चंद्रशेखर आजाद करते रह गए मोलभाव
वहीं, यूपी में आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद की भी ऐसी ही कहानी है। वह इंडिया ब्लॉक में शामिल होना चाहते थे और उन्होंने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के साथ चर्चा भी की थी। उन्हें सपा चिन्ह पर एक सीट की पेशकश की गई, लेकिन बात नहीं बनी। अब आजाद नगीना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। अपना दल (के) की नेता पल्लवी पटेल वर्तमान में एसपी विधायक हैं, लेकिन एसपी प्रमुख अखिलेश यादव के साथ सीटों पर बात नहीं बनी। वह तीन लोकसभा सीटों की मांग कर रही थीं। अखिलेश की ठंडी प्रतिक्रिया के बाद पल्लवी पटेल ने लोकसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन कर लिया।
पलटी खाते रहे स्वामी प्रसाद मौर्य
यूपी के ओबीसी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य पहले बीजेपी सरकार में मंत्री थे। फिर सपा में चले आए। चुनाव से ऐन पहले सपा को भी छोड़ दिया और यूपी में अपनी पार्टी राष्ट्रीय शोषित समाज पार्टी लॉन्च की। मौर्य पहले इंडिया गुट का हिस्सा बनने की कोशिश कर रहे थे। बात नहीं बनी तो इंडिया गठबंधन पर जमकर भड़ास निकाली। फिर ऐलान किया कि वह कुशीनगर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे। साथ ही देवरिया लोकसभा सीट से एस.एन. चौहान को प्रत्याशी घोषित कर दिया। वहीं, 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान केशव देव मौर्य की महान दल ने सपा के साथ गठबंधन किया था। सपा के चुनाव चिन्ह पर विधानसभा चुनाव लड़ा था। मतभेद होने पर गठबंधन तोड़ लिया। लेकिन इस बार अधिक विकल्प नजर नहीं आने पर दोबारा अखिलेश के साथ आ गए।
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