पहली बार कब और कैसे सत्ता से दूर हुई थी कांग्रेस? भले इंदिरा ने लिया था फैसला, पर कोई और ही था 'जिम्मेदार'

इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लागू कर दिया था, ये वही दौर था जब स्वतंत्र भारत में कांग्रेस का सबसे ज्यादा विरोध हो रहा था। 25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने के बाद जब 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस और इंदिरा गांधी दोनों को ही बड़ा झटका लगा। आपको वो किस्सा पढ़ना चाहिए।

Siyasi Kisse Congress History

जब पहली बार सत्ता से दूर हुई कांग्रेस पार्टी।

Siyasi Kissa: आजाद भारत के इतिहास में सबसे लंबे समय तक सत्ता के सिंहासन पर काबिज रहने वाली राजनीतिक पार्टी से हर कोई वाकिफ है। कांग्रेस के वजूद और उसकी सियासी जमीन, किसी पहचान की मोहताज नहीं है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पहली बार कांग्रेस पार्टी देश की सत्ता से दूर कब और कैसे हुई थी? वो कहानी बड़ी दिलचस्प है, क्योंकि इसके तार इमरजेंसी से जुड़े हैं। भारत में अब तक सिर्फ एक महिला प्रधानमंत्री रहीं, उनका नाम तो आप जानते ही होंगे- इंदिरा गांधी...।

कब और कैसे पहली बार कांग्रेस हुई सत्ता से दूर?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए उस दौर की राजनीतिक घटनाओं से रूबरू होना पड़ेगा। स्वतंत्रता के बाद से ही देश में कांग्रेस की लहर दौड़ रही थी। पहले प्रधानमंत्री के नाम को लेकर भी काफी सियासी कशमकश देखी गई, हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली तो वो जब तक जीवित रहे उन्होंने शासन किया। उस वक्त कांग्रेस पार्टी में कई सियासी दिग्गज शामिल हुआ करते थे। आजादी के बाद कांग्रेस में पहली बार अंदरूनी कलह और आपसी मनमुटाव 1964 में देखी गई, जो सरेआम हो गई। 27 मई, 1964 यही वो तारीख थी, जब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया। अगले प्रधानमंत्री के नाम को लेकर कांग्रेस की चिंता बढ़ गई।

लाल बहादुर शास्त्री का नाम इसलिए पसंद किया जाने लगा, क्योंकि अंतिम दिनों में नेहरू अपने हाव-भाव से ये संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर शास्त्री उनकी पसंद हैं। हालांकि विवाद ने तब जोर पकड़ लिया जब शास्त्री के नाम पर चर्चा के बीच ही कांग्रेस के दिग्गज मोरारजी देसाई ने अपना दावा ठोक दिया। गुलजारी लाल नंदा और जय प्रकाश नारायण जैसे दिग्गजों का नाम भी उस वक्त प्रधानमंत्री की कुर्सी के दौड़ में शामिल था, हालांकि अंत में शास्त्री ही पीएम बने। इसी तरह जब 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी मृत्यु हो गई तो एक बार फिर कांग्रेस में प्रधानमंत्री बनने की होड़ लग गई। इस बार भी मोरारजी देसाई को शिकस्त झेलनी पड़ी। उस वक्त के कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने इंदिरा गांधी का साथ दिया और इस तरह देश की तीसरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बनीं। अब तक के इतिहास में वो भारत की एकमात्र महिला पीएम हैं।

यही वो वक्त था जब कांग्रेस में दरार पड़नी शुरू हो गई। के. कामराज और इंदिरा गांधी से कई दिग्गज नेताओं की नाराजगी बढ़नी शुरू हो गई। यही नतीजा था कि जेपी और देसाई जैसे दिग्गजों ने खुद को कांग्रेस से अलग कर लिया। अब सवाल ये उठता है कि पहली बार कांग्रेस पार्टी देश की सत्ता से कब दूर हुई थी। वो तारीख थी- 24 मार्च 1977... जब आजाद भारत में किसी गैर कांग्रेसी पार्टी की सरकार बनी। दिलचस्प बात ये है कि जिस मोरारजी देसाई को कांग्रेस में रहते हुए दो-दो बार कुर्सी नसीब नहीं हुई, वही देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री चुने गए। जनता पार्टी की सरकार में देसाई 28 जुलाई 1979 तक प्रधानमंत्री रहे, इसके बाद जनता पार्टी के ही चौधरी चरण सिंह 28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक पीएम रहे। सवाल ये भी है कि आखिर कांग्रेस पहली बार सत्ता से दूर हुई कैसे? तो इसका जवाब है- इमरजेंसी यानी आपातकाल। भले ही इसे लगाने का फैसला इंदिरा गांधी का रहा हो, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इसे लगाने के पीछे की वजह क्या थी। बताया जाता है कि इंदिरा ने अपना और अपनी सरकार का इस्तीफा लिख लिया था, इतने में ही अचानक देश में आपातकाल लागू करने की घोषणा हो जाती है। वो किस्सा और सियासी लड़ाई बेहद रोचक है। आपको उसके हर दिलचस्प पहलु से आपको रूबरू कराते हैं।

भारत की सियासत में इंदिरा के उदय का दौर

साल 1967 से 1971... बतौर प्रधानमंत्री ये 5 साल इंदिरा गांधी के उदय का दौर माना जाता है। ये वही दौर था, जब इंदिरा ने बड़ी ही चतुराई से अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को कांग्रेस से दूर और अलग कर दिया। साल 1969 की बात है, जब कांग्रेस दो हिस्सों में विभाजित हो गई। एक- कांग्रेस (ओ) जिसे सिंडीकेट के रूप में जाना जाता था, जिसमें पुराने गार्ड और अन्य शामिल था। दूसरी- कांग्रेस (आर) ये इंदिरा गांधी की ओर थी। उस वक्त कांग्रेस सांसदों के बड़े समूह ने और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के दिग्गजों ने इंदिरा का साथ दिया। अब चुनाव का दौर आया, वर्ष 1971 में लोकसभा चुनाव होने थे। इंदिरा ने इसी चुनाव में 'गरीबी हटाओ' का नारा दिया और ये नारा लोगों के दिलों में इस कदर उतर गया कि इंदिरा को प्रचंड बहुमत मिला। देश की 518 लोकसभा सीटों में से इंदिरा के पक्ष में 352 सीटें आईं। इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इस जीत के बारे में लिखा था कि 'कांग्रेस (आर) असली कांग्रेस के रूप में खड़ी है, इसे अपनी योग्यता प्रदर्शित करने की आवश्यकता नहीं है।' हालांकि 1971 में इंदिरा की जीत के बाद जो कानूनी जंग छिड़ी, वही कांग्रेस को पहली बार सत्ता से दूर करने की वजह भी बनी।

लोकसभा चुनाव 1971 में इंदिरा गांधी ने रायबरेली सीट से राजनारायण को करारी शिकस्त दी थी। इस चुनाव में राजनारायण को पूरा भरोसा था कि वो इंदिरा को इस सीट से हरा देंगे, मगर उन्हें करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। उस वक्त तो उनके प्रतिद्वंदियों ने हार के मुद्दे को इतने जोर-शोर से नहीं उठाया, लेकिन चुनावी नतीजों के चार साल बाद रायबरेली सीट से हारने वाले राजनारायण ने अपनी हार और इंदिरा की जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे दी। उन्होंने ये दलील दी थी कि चुनाव में चुनाव में इंदिरा ने सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग किया। गलत तरीकों का इस्तेमाल करके मतदाताओं को प्रभावित किया और तय सीमा से ज्यादा पैसे खर्च किए।

जब इंदिरा गांधी को हाईकोर्ट से लगा था झटका

रायबरेली सीट पर लोकसभा चुनाव 1971 के परिणाम में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे राजनारायण को इंदिरा गांधी ने चुनाव तो हरा दिया, लेकिन जब उन्होंने धांधली का आरोप लगाया तो देश के इतिहास में पहली बार हुआ जब प्रधानमंत्री को अपना पक्ष रखने अदालत की चौखट पर जाना पड़ा था। इलाहाबाद हाइकोर्ट के तत्कालीन न्यायमूर्ति जगमोहन लाल ने तब आदेश दिया था कि सुनवाई के लिए जब इंदिरा गांधी अदालत के अंदर आएं, तो कोई खड़ा नहीं होगा। अदालत में सिर्फ जज के आने पर ही खड़ा होने का नियम है। इस सुनवाई में जस्टिस जगमोहन ने इंदिरा के खिलाफ फैसला सुनाया और 1971 के चुनाव को रद्द कर दिया था। इतना ही नहीं, अदालत ने इंदिरा के 6 साल तक चुनाव लड़ने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट से तगड़ा झटका लगा था, इसके बावजूद वो टस से मस नहीं हुईं। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी ने भी बयान जारी कर कहा कि इंदिरा का नेतृत्व पार्टी के लिए अपरिहार्य है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने जो फैसला 12 जून, 1975 को इंदिरा के खिलाफ सुनाया था, उस पर 12 दिन में ही यानी 24 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट ने सशर्त रोक लगा दी थी। सुप्रीम कोर्ट की अवशकालीन पीठ (Emergency Bench) के जस्टिस वी.आर.कृष्णा अय्यर ने अंतरिम आदेश के जरिए ये फैसला सुनाया था, जो इंदिरा गांधी के लिए कानूनी मोर्चे पर हल्की या फिर उस दौर में बड़ी राहत थी।

उस वक्त सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में क्या-क्या हुआ?

इंदिरा गांधी और कांग्रेस के सामने बड़ी चिंता थी। 23 जून, 1975 को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस अय्यर के सामने को मामला पेश हुआ। इंदिरा गांधी को अपने विरोधियों से राजनीतिक मोर्चे पर निपटने के सुप्रीम कोर्ट से फौरी राहत की आवश्यकता थी। हालांकि विपक्ष ने अपनी कमर कस रखी थी, उसने भी पूरी तैयारी थी और कैविएट दाखिल करके अदालत से दरखास्त की गई थी कि किसी भी अंतरिम आदेश से पहले उनका पक्ष भी अवश्य सुना जाए। हालांकि इंदिरा और उनकी टीम पूरी तरह अलर्ट मोड पर थी। सीनियर एडवोकेट सतीश चंद्र खरे ने इंदिरा का पक्ष हाईकोर्ट में रखा था, अब बारी सुप्रीम कोर्ट की थी। ऐसे में इंदिरा की पैरवी का जिम्मा मशहूर संविधानवेत्ता और दिग्गज एडवोकेट नानी पालकीवाला को मिला।

राजनारायण की ओर से हाईकोर्ट में शांति भूषण के ने संभाली थी, सुप्रीम कोर्ट में भूषण के साथ सीनियर एडवोकेट जे.पी.गोयल भी विपक्ष की ओर से हाजिर हुए। शांति भूषण ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी दलील पेश करनी शुरू की तो उन्होंने तर्क दिया कि गणतंत्र और कानून की गरिमा से किसी व्यक्ति विशेष के लिए समझौता नहीं हो सकता। भूषण ने इंदिरा की मंशा और नीयत पर भी सवाल खड़ा किया और हाईकोर्ट के फैसले का हवाला दिया। सुप्रीम कोर्ट में शांति भूषण ने ऐतराज किया कि हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी कांग्रेस ने अब तक कोई नया नेता नहीं चुना है और इंदिरा उस पद पर कायम हैं।

जब इंदिरा गांधी को सुप्रीम कोर्ट से मिली कानूनी राहत

पालकीवाला ने इंदिरा का पक्ष रखा और हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे लगाने की पैरवी की। जस्टिस अय्यर ने दोनों पक्षों को विस्तार से सुना, फिर 24 जून को हाईकोर्ट के फैसले पर इस अपील के निपटारा होने तक के लिए सशर्त रोक लगा दी। इसके तहत इंदिरा पीएम पद पर तो रह सकती थीं, लेकिन संसद में उन्हें वोट देने का अधिकार और सांसद के रूप में वेतन और भत्ते हासिल करने का हक नहीं था। इंदिरा को थोड़ी राहत मिली, लेकिन देश-दुनिया के सामने उनकी स्थिति काफी कमजोर हो चुकी थी। 1971 में बांग्लादेश को आजाद कराने के बाद इंदिरा की जो छवि दुनिया के सामने उभरी थी, वो थोड़ी ओझल पड़ने लगी। इंदिरा असहज थीं, इसी के चलते वो अगले ही दिन ऐसा फैसला लेने जा रही थीं जो देश के इतिहास में नया अध्याय लिखने वाला था। उन्होंने अदालतों को रास्ते पर लाने का मन बना लिया था, अपने विरोधियों और विपक्षी नेताओं को जेल में ठूंसने के लिए कमर कस ली थी। 25 जून, 1975 को देश में आपातकाल (इमरजेंसी) लागू कर दिया गया। नतीजतन अदालतें पंगु हो गईं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रतिबंधित कर दिया गया। इस संगठन पर पुलिस टूट पड़ी और उसके हजारों कार्यकर्ताओं को कैद कर दिया गया।

कुर्सी के लिए इंदिरा गांधी ने सरकार में रहते हुए संविधान संशोधनों का सिलसिला जारी रखा। उन्होंने 22 जुलाई 1975 को संविधान का 38वां संशोधन पेश किया। इस संशोधन में आपातकाल की घोषणा को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। 10 अगस्त 1975 को संविधान का 39वां संशोधन पेश किया गया। इसके जरिए राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसभा स्पीकर के निर्वाचन से संबंधित विवादों को न्यायिक परीक्षण से मुक्त कर दिया गया। 28 अगस्त 1976 को पेश हुए 42वें संशोधन में संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष”, “एकता”, ”अखण्डता” शब्द जोड़े गए। 10 मौलिक कर्तव्यों को अनुच्छेद 51(क) (भाग iv क) में जोड़ा गया। सबसे रोचक किस्सा तो तब हुआ जब लोकसभा का कार्यकाल 5 से बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया। दरअसल, 1976 में इंदिरा गांधी सरकार का कार्यकाल पूरा हो रहा था, उस वक्त तक इंदिरा ने चुनाव का मन नहीं बना पाया। तभी एक और संशोधन हुआ, जिसमें लोकसभा के कार्यकाल को भी पांच वर्ष से बढ़ाकर 6 साल कर दिया गया। वो ऐसा दौर था जब किसी भी बुक स्टाल से संविधान की प्रति मांगने पर अजीब नजर से देखा जाता था।

इमरजेंसी के बाद चुनाव, पहली बार कांग्रेस सत्ता से बेदखल

जिस राजनारायण को इंदिरा गांधी ने 1971 के चुनाव में 1 लाख 11 हजार 810 वोटों से मात दी थी, उसी राजनारायण से 1977 में इंदिरा को 55 हजार से अधिक वोटों से हरा दिया। इमरजेंसी के बाद हुए चुनाव में न सिर्फ इंदिरा ने अपनी जिंदगी में पहली बार हार का स्वाद चखा, बल्कि कांग्रेस भी सत्ता से बेदखल हो गई।

रायबरेली के इस चुनावी नतीजे के बाद छिड़ा सियासी संग्राम

उम्मीदवारकुल वोटवोट प्रतिशतपार्टी
इंदिरा गांधी183,30964.4%कांग्रेस
राज नारायण71,49925.1%संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी
इसकी एक और वजह मानी जाती है, बताया जाता है कि शायद इंदिरा 1977 में भी आम चुनाव कराने के लिए तैयार नहीं होतीं, यदि उन्हें सही फीडबैक मिला होता। इंदिरा के निजी सचिव पीएन धर ने खुफिया हवाले से ये जानकारी दी थी कि यदि इस वक्त चुनाव कराया जाएगा तो कांग्रेस आराम में 340 सीटें जीत जाएगी। हालांकि चुनावी नतीजों में परिणाम बिल्कुल उलट हुआ। वो जनता पार्टी का दौर था, जब कांग्रेस से अलग हुए कई नेताओं ने इंदिरा के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। मोरारजी देसाई और जयप्रकाश नारायण ने सभी को एकजुट कर रखा था। आरके धवन ने एक इंटरव्यू में इस बात का खुलासा किया था जब इंदिरा को अपनी और कांग्रेस की हार की सूचना मिली तब वो खाना खा रही थीं।

जस्टिस अय्यर की निष्पक्षता पर आज भी उठते हैं सवाल

सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जस्टिस अय्यर के फैसले पर आज भी सवाल खड़े होते हैं। कहा जाता है कि 24 जून, 1975 के उनके अंतरिम आदेश के कारण इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बनी रह सकीं और इसका नतीजा था- इमरजेंसी। मशहूर पत्रकार कुलदीप नैयर से इसके बारे में जिक्र करते हुए लिखा कहा था कि लोग जस्टिस अय्यर के फैसले को इमरजेंसी के लिए जिम्मेदार मानते हैं।

कुलदीप नैयर ने अपनी आत्मकथा में इंदिरा गांधी के प्रति जस्टिस अय्यर के मन में हमदर्दी और उन्हें “लेफ्ट ऑफ सेंटर” माने जाने का जिक्र किया है। उन्होंने अपनी किताब 'बियॉन्ड द लाइन्स' में लिखा है कि 'बैंकों और बीमा कंपनियों के राष्ट्रीयकरण के कारण वामपंथी पार्टियां आमतौर पर इंदिरा गांधी का समर्थन कर रही थीं। इमरजेंसी के दौरान जो कुछ भी हुआ, उसकी कुछ जिम्मेदारी जस्टिस अय्यर पर भी आती है, क्योंकि उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाकर इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने का अवसर प्रदान कर दिया।'

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आयुष सिन्हा author

मैं टाइम्स नाउ नवभारत (Timesnowhindi.com) से जुड़ा हुआ हूं। कलम और कागज से लगाव तो बचपन से ही था, जो धीरे-धीरे आदत और जरूरत बन गई। मुख्य धारा की पत्रक...और देखें

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