Political Story: जब अपने ही पीए से हार गए थे डॉ. अंबेडकर, नेहरू की लहर ले उड़ी थी
When Ambedkar lost election: देश के पहले चुनाव नतीजे ने सभी को हैरान किया था। इस चुनाव में डॉ. भीमराव अंबेडकर बुरी तरह हारे थे। उनकी पहचान देश भर में अनुसूचित जातियों के कद्दावर और लोकप्रिय नेता के तौर पर थी। बंबई सीट से कांग्रेस ने तब अंबेडकर के सामने उनके पीए नारायण एस काजरोलकर को खड़ा कर दिया था।
जब डॉ. अंबेडकर को मिली थी चुनाव में करारी हार
Ambedkar lost in first election why: आजादी के बाद भारत में हुआ पहला आम चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक रहा था। इसके अनगिनत दिलचस्प किस्से हैं। किस्सा चुनाव का...सीरीज में हम आज आपको ऐसा ही एक किस्सा बता रहे हैं जिसने हर किसी को चौंका दिया था। किस्सा है संविधान निर्माता डॉ. भीमराव अंबेडकर की हार का जिससे सियासी पंडित भी हैरान रह गए थे। उन्हें जिस शख्स ने हराया था वह उनका पीए रह चुका था। अंबेडकर को एक नहीं दो बार चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।
पहले चुनाव में नेहरू की थी लहर
देश में पहले लोकसभा चुनाव 1952 में संपन्न हुए थे और उस वक्त जवाहर लाल नेहरू बेहद लोकप्रिय नेता थे। देश में जवाहर लाल नेहरू की लहर थी। उस दौर में जिसे कांग्रेस पार्टी का टिकट मिलता था, उसकी नैया पार होनी ही थी। इस चुनाव में संविधान निर्माताओं में से एक डॉ. भीमराव अंबेडकर भी मैदान में उतरे थे। अंबेडकर शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन पार्टी से लड़े थे, लेकिन उन्हें सनसनीखेज हार का सामना करना पड़ा था। बाद में यही पार्टी रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया बन गई।
कांग्रेस ने लहराया परचम
पहले आम चुनाव के लिए मतदान फरवरी 1952 के आखिरी सप्ताह में खत्म हो गया था। नतीजे आए तो कांग्रेस आसानी से जीत गई। कांग्रेस ने संसद में 489 में से 364 सीटों पर कब्जा जमाया। इसके अलावा पार्टी ने पूरे देश में 3280 विधानसभा सीटों में से 2247 सीटों पर जीत हासिल की थी। संसदीय चुनाव में कांग्रेस को कुल 45 फीसदी वोट मिले और इसने 74.4 फीसदी सीटों पर जीत दर्ज की थी।
काजरोलकर से हारे अंबेडकर
इस चुनाव के एक नतीजे ने सभी को हैरान किया था। डॉ. भीमराव अंबेडकर बुरी तरह हारे थे। उनकी पहचान देश भर में अनुसूचित जातियों के कद्दावर और लोकप्रिय नेता के तौर पर थी। बंबई सीट से कांग्रेस ने तब अंबेडकर के सामने उनके पीए नारायण एस काजरोलकर को खड़ा कर दिया। वह भी पिछड़ी जाति से थे। कम्युनिस्ट पार्टी और हिंदू महासभा से भी एक-एक प्रत्याशी उतारा था। दरअसल, नारायण काजरोलकर दूध का कारोबार करने वाले एक नए-नवेले नेता थे। लेकिन नेहरू लहर में काजरोलकर 15 हजार वोटों से जीत गए। हैरानी की बात ये रही कि अंबेडकर चौथे स्थान पर फिसल गए।
दूसरी बार भी मिली हार
अंबेडकर का समर्थन करने वाली एकमात्र पार्टी अशोक मेहता के नेतृत्व में समाजवादी थे। लेकिन सीपीआई के एसए डांगे ने अंबेडकर के खिलाफ कड़ा अभियान चलाया, जिससे कम्युनिस्टों और दलितों के बीच कड़वाहट पैदा हो गई। काजरोलकर खुद भी अंबेडकर के सहायक रहे थे और पिछड़े वर्ग से थे। यह भारत के लोकतंत्र की एक अजीब घटना है कि सबसे प्रतिष्ठित, अकादमिक रूप से अत्यधिक निपुण, एक विद्वान और निडर नेता और दलितों के अधिकारों की आवाज उठाने वाला एक लोकप्रिय चेहरा चुनाव नहीं जीत सका। हैरानी की बात ये भी रही कि अंबेडकर दोबारा हार गए, जब वह 1954 में एक उपचुनाव में भंडारा सीट से खड़े हुए थे। उन्होंने राज्यसभा के सदस्य के रूप में संसद में प्रवेश किया था।
कांग्रेस की लहर का असर
दरअसल, कांग्रेस की लहर ही काजरोलकर के पक्ष में काम कर गई। बंबई में नेहरू के भाषण ने काजरोलकर का काम आसान किया। अंबेडकर की एक अपनी हस्ती थी। देश में उनके जैसा पढ़ा-लिखा उस समय शायद ही कोई था। इकोनॉमिक्स से दो डॉक्टरेट की डिग्रियां उनकी शान बढ़ाती थी। एक डिग्री अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी से, दूसरी लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से पूरी की थी। अंबेडकर की काबिलियत को देखकर ही उन्हें संविधान की ड्राफ्टिंग कमिटी का चेयरमैन बनाया गया था। तब हिंदू महासभा ने कहा था कि नेहरू ने अंबेडकर को राजनीति की मुख्य धारा में नहीं आने दिया। अंबेडकर की हार सुनिश्चित करने के लिए खुद नेहरू ने चुनाव प्रचार किया। यहां तक कि 1954 में भी नेहरू ने भंडारा उपचुनाव में अंबेडकर के खिलाफ मोर्चा संभाला। 1956 में अंबेडकर का निधन हो गया।
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