कुर्सी नहीं मिली तो छोड़ी कांग्रेस, PM बने तो मंत्रियों ने ही कर दी बगावत; इस्तीफा देने पर क्यों मजबूर हुए थे मोरारजी देसाई? पढ़ें दिलचस्प किस्सा

भारत के प्रधानमंत्रियों की सूची में मोरारजी देसाई का नाम कई मायनों में बिल्कुल अलग है। वो देश के पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने, लेकिन उनके राजनीतिक जीवन से जुड़ी सबसे अधिक चर्चा इस बात की होती है कि पीएम रहते उनके सरकार में मंत्रियों ने ही उनसे बगावत कर दी। पढ़ें वो दिलचस्प किस्सा...।

Siyasi Kissa Morarji Desai

इस्तीफा देने के लिए क्यों मजबूर हो गए थे मोरारजी देसाई?

Siyasi Kissa: 24 मार्च, 1977... यही वो तारीख थी जब भारत की राजनीतिक इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ने जा रहा था। देश से इमरजेंसी हटने के बाद वर्ष 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो पहली बार कांग्रेस पार्टी सत्ता से बेदखल हो गई। स्वतंत्र भारत में ऐसा पहली बार होने जा रहा था, जब प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए किसी गैर कांग्रेसी नेता की ताजपोशी होने जा रही थी। वैसे तो उस नेता के एक वक्त कांग्रेस पार्टी से बड़े गहरे ताल्लुक रहे, लेकिन कुर्सी को लेकर बार-बार टूटने वाले सपने और पार्टी में अंतरकलह के चलते उन्होंने कांग्रेस से किनारा कर लिया था। नाम था- मोरारजी देसाई... ये उसी नेता का नाम है, जो कांग्रेस में रहते हुए दो-दो बार पीएम बनते-बनते रह गए। हालांकि कुदरत को कुछ और ही मंजूर था, उन्हें देश का पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के तौर पर इतिहास के पन्नों पर दर्ज होना था। लेकिन क्या आप जानते हैं कि देसाई पीएम तो बन गए, लेकिन उनके ही सरकार में शामिल मंत्रियों ने उनकी खिलाफत क्यों कर दी। जिसके चलते मोरारजी देसाई दो साल में ही इस्तीफा देने के लिए मजबूर हो गए थे। वो किस्सा वाकई बड़ा दिलचस्प है, जब देसाई से कुर्सी छिन गई और चौधरी चरण सिंह के हाथों में सत्ता की बागडोर आई।

कांग्रेस के नेताओं ने इंदिरा से नाराजगी के बाद अपनाई अलग राह

इंदिरा गांधी से बगावत कर देश के कई दिग्गजों ने जनता पार्टी का गठन किया था, इनमें से ज्यादातर नेताओं का नाता कभी कांग्रेस पार्टी से ही था। जयप्रकाश नारायण, राजनारायण, विजया राजे सिंधिया, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर जैसे नेताओं ने इंदिरा सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद करनी तेज कर दी थी। राज नारायण ने तो इंदिरा से सीधे-सीधे दो-दो हाथ करने का मन बना लिया था। अदालत में दोनों आमने सामने आए, इसके बाद इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लागू कर दी। आपातकाल के वक्त बड़े से बड़े नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया।

जब वर्ष 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो इंदिरा और उनकी कांग्रेस को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। देश की जनता इमरजेंसी के चलते इंदिरा गांधी से बेहद नाराज थी, खुद कांग्रेस नेता आज भी ये मानते हैं कि ये इंदिरा की सबसे बड़ी गलती (भूल) थी। जाहिर है कि गलती होगी तो खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। इस भारी गलती का नतीजा ये हुआ कि जब उन दिनों चुनावी परिणाम आए तो जनता पार्टी ने 295 सीटें हासिल कर ली और कांग्रेस की झोली में महज 154 सीटें गई। जो मोरारजी देसाई दो-दो बार प्रधानमंत्री बनने से चूक गए थे, वो प्रधानमंत्री बन गए। अब सवाल ये उठता है कि यदि जनता पार्टी के पास 295 सीटें थीं तो फिर ऐसा क्या हो गया कि देसाई के मंत्रियों ने ही उनके खिलाफ बगावत कर दी और उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया।

दो साल ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रह पाए मोरारजी देसाई

देश के पहली गैर-कांग्रेसी सरकार के प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई मात्र दो साल तक ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रह पाए। इसकी सबसे बड़ी वजह थी जनता पार्टी के नेताओं और उनके सरकार में शामिल मंत्रियों की बगावत... ये बगावत तो होना ही था, आपको इसकी वजह से रूबरू करवाते हैं।

18 जनवरी 1977 को लोकसभा चुनाव की घोषणा करते हुए सरकार ने सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा तो कर दिया था, लेकिन आधिकारिक तौर पर आपातलाक की स्थिति खत्म नहीं हुई थी। जिसके चलते विपक्षी दलों के नेताओं को भारी परेशानियां झेलनी पड़ रही थी। इसी से निपटने के लिए विपक्षी नेताओं ने चुनाव के लिए जयप्रकाश नारायण (जेपी) से समर्थन मांगा। जेपी ने एक संयुक्त मोर्चा के गठन की सलाह दे दी। इसी के बाद 23 जनवरी, 1977 को जनता पार्टी को आधिकारिक तौर पर लॉन्च किया गया। इंदिरा से राजनीतिक लड़ाई के लिए जेपी और देसाई ने जनता मोर्चा (पीपुल्स फ्रंट) की स्थापना की थी। जनता पार्टी में जेपी का जनता मोर्चा, चौधरी चरण सिंह की भारतीय लोक दल (बीएलडी), राज नारायण और जॉर्ज फर्नांडीस की सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, स्वतंत्र पार्टी, भारतीय जनसंघ (बीजेएस) शामिल हो गए। इसके बाद सभी दलों का जनता पार्टी में विलय हो गया और चंद्रशेखर जनता पार्टी के पहले अध्यक्ष बने। रामकृष्ण हेगड़े पार्टी महासचिव बने और जनसंघ के नेता लाल कृष्ण आडवाणी पार्टी के प्रवक्ता बने। इतनी पार्टियों के विलय के बाद तैयार हुई जनता पार्टी की सरकार बनी तो बगावत से कोई खास हैरानी नहीं होती है।

मोरारजी देसाई से उनके ही मंत्रियों की बढ़ने लगी नाराजगी

जनता पार्टी की सरकार बनी और सबकुछ ठीक ही चल रहा था, लेकिन सरकार में शामिल सांसदों की बगावत शुरू हो चुकी थी। मोरारजी देसाई के सरकार चलाने के तौर-तरीके से सांसदों और मंत्रियों में नाराजगी बढ़ने लगी थी। देसाई ने अपने कुछ करीबियों से ये बताया था कि उनके सहयोगियों का व्यवहार उनके लिए किसी धमकी की तरह होता है। पार्टी के लोग ब्लैकमेलिंग कर रहे हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और उनके मंत्रियों के बीच विवाद इस कदर गहरा चुका था कि मंत्रियों के इस्तीफे की झड़ी लग गई। जॉर्ज फर्नांडीस और जगजीवन राम जैसे दिग्गजों ने सीधे पीएम को अपना इस्तीफा भेज दिया था।

जब मोरारजी देसाई ने राष्ट्रपति को सौंप दिया अपना इस्तीफा

15 जुलाई, 1979 यही वो तारीख थी, जब मोरारजी देसाई ने उस वक्त के राष्ट्रपति एन संजीव रेड्डी को अपना इस्तीफा सौंपा, जिसके बाद रेड्डी ने ये अनुरोध किया कि नया प्रधानमंत्री मिलने तक आप पद पर बने रहें। हालांकि हैरानी उस वक्त हुई जब दोपहर में मोरारजी देसाई ने अपने कई कैबिनेट सहयोगियों की इस सलाह को मानने से इनकार कर दिया कि उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। सुबह से दोपहर के बीच में ऐसा क्या हुआ जो देसाई का मन बदल गया, वो किसी को समझ नहीं आया।

उन दिनों सियासी हालात ही कुछ ऐसे बन गए थे। मौजूदा स्थिति की समीक्षा करने के लिए संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई जानी थी, पर ये फैसला हुआ कि बैठक बुलाने से पहले देसाई से उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम को इस मसले पर आखिरी बार बात कर लेनी चाहिए। देसाई ने कहा कि वो इस बात की आशंका के चलते इस्तीफा नहीं देंगे कि अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाएगा। उन्होंने इस प्रस्ताव का सामना करने की बात कही। जैसे ही जगजीवन राम ने इस बात को अपने कैबिनेट सहयोगियों संग साझा किया, फिर इस्तीफे की झड़ी सी लग गई। पीएम देसाई को उद्योग मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस और पर्यटन मंत्री पुरुषोत्तम लाल कौशिक ने अपना-अपना इस्तीफा भेज दिया। बात यहीं नहीं थमी दोनों ने स्पीकर से ये तक मांग कर दी कि उन्हें सदन में सत्ता पक्ष से अलग बैठने के लिए व्यवस्था की जाए। इसके बाद फर्नांडिस की तरह कृषि राज्य मंत्री भानु प्रताप सिंह ने भी अपना इस्तीफा भेज दिया।

मोरारजी देसाई ने सरकार बचाने के लिए विपक्ष से मांगा समर्थन

ऐसा कहा जाता है कि मोरारजी देसाई ने अपनी सरकार बचाने के लिए यशवंतराव (वाईबी) चव्हाण से समर्थन मांगा, लेकिन उन्होंने सीधे तौर पर ये प्रस्ताव ठुकरा दिया। कांग्रेस के अध्यक्ष रहे स्वर्ण सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस बात का खुलासा किया था कि देसाई और चव्हाण के बीच क्या बातचीत हुई थी। उन्होंने ये साफ कर दिया कि कांग्रेस संसदीय बोर्ड चव्हाण के फैसले के साथ खड़ी है।

इस्तीफे के लिए आखिर कैसे मजबूर हो गए मोरारजी देसाई?

देसाई सरकार में उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम ने अपनी ही सरकार की विफलता गिनानी शुरू कर दी। डिप्टी पीएम का वो पत्र देसाई को पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया, जिसमें उन्होंने सरकार की विफलताओं का जिक्र किया और कई मुद्दों को सूचीबद्ध तरीके से शामिल किया। इसी के बाद जगजीवन राम ने देसाई से मुलाकात की और स्पष्ट शब्दों में ये कह दिया कि अगर आपने मौजूदा स्थिति को स्वीकार नहीं किया और किसी नए नेता के लिए रास्ता नहीं बनाया तो उनके पास भी इस्तीफा देने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा।

आखिर बैठक में क्यों नहीं शामिल हुए थे चौधरी चरण सिंह?

देसाई की सरकार में सूचना मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी ने भी उनके साथ बैठक की। इसके बाद संसदीय बोर्ड की बैठक बुलाई गई। इस बैठक में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई, उप प्रधानमंत्री जगजीवन राम, जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर, विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पार्टी महासचिव शामिल हुए। हालांकि सबसे हैरानी की बात ये थी कि इस बैठक में चौधरी चरण सिंह नहीं शामिल हुए। कथित तौर उस वक्त ये कहा गया कि दांत दर्द से पीड़ित होने के चलते वो बैठक में आने में असमर्थ थे।

आखिरकार वही हुआ, जिसके लिए देसाई सरकार में शामिल मंत्री इस्तीफा दे रहे थे। मोरारजी देसाई ने अपनी सरकार के कैबिनेट मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं संग चर्चा के बाद ये फैसला लिया कि वह राष्ट्रपति को अपना इस्तीफा सौंपेंगे। 28 जुलाई, 1979 को मोरारजी का इस्तीफा मंजूर हो गया और इंदिरा गांधी के समर्थन से चौधरी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने। हालांकि इंदिरा के दबाव में काम करने से उन्होंने भी साफ इनकार कर दिया और एक साल के भीतर ही 14 जनवरी 1980 को उनकी सरकार भी गिर गई।

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आयुष सिन्हा author

मैं टाइम्स नाउ नवभारत (Timesnowhindi.com) से जुड़ा हुआ हूं। कलम और कागज से लगाव तो बचपन से ही था, जो धीरे-धीरे आदत और जरूरत बन गई। मुख्य धारा की पत्रक...और देखें

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