चाचा शिवपाल की सपा में भूमिका हुई तय, वसंत पंचमी के बाद संगठन में मिलेगा महत्वपूर्ण पद
अगले बरस होने वाले आम चुनावों को देखते हुए समाजवादी पार्टी (सपा) ने अब संगठन को मजबूत कर संघर्ष की राह अपनाने का फैसला कर लिया है। परंपरागत वोट बैंक के साथ-साथ अति पिछड़ी और गैर जाटव दलित जातियों को जोड़ने की रणनीति तय की है। शिवपाल सिंह यादव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई है। 26 जनवरी के बाद उन्हें महत्वपूर्ण पद दिया जाएगा।
सपा में शिवपाल यादव को मिलेगी बड़ी जिम्मेदारी
अगले बरस होने वाले आम चुनावों को देखते हुए सपा ने अब संगठन को दुरस्त कर संघर्ष की राह अपनाने का फैसला कर लिया है शिवपाल यादव को इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई हैं। सपा हाईकमान ने वोट बैंक के समीकरण को दुरस्त करने के लिए परंपरागत वोट बैंक के साथ-साथ अति पिछड़ी और गैर जाटव दलित जातियों को जोड़ने की रणनीति तय की है। मैनपुरी चुनाव के नतीजों ने यूपी की सियासत को कई नजरिए से प्रभावित किया हैं। बीजेपी के समझ में आ गया है मैनपुरी समाजवादियों का मजबूत गढ़ है इसे ढहाना इतना आसान नहीं है। वहीं सपा की अंदरूनी सियासत को भी मैनपुरी चुनाव ने एकदम बदल कर रख दिया। जिन चाचा शिवपाल के बारे में सवाल पूछना अखिलेश यादव को अखर जाता था वही अखिलेश जसवंतनगर में मंचों से कह रहे थे "चाचा विधायक है हमारे" । खैर ये बात चुनावों की थी गुजर गई और चाचा भतीजे का विवाद भी अब पीछे छूट गया हैं।
दरअसल अब सपा में सियासी भविष्य की बात हो रही है शिवपाल की भूमिका के साथ सपा अपनी ताकत कैसे बढ़ाएं इसको लेकर मनन हो रहा है। विधानसभा में हार के बाद अखिलेश ने केंद्र के बजाय यूपी में ही बने रहने का फैसला किया था अखिलेश अपने विधायकों को बड़ी संख्या के साथ मजबूत सपा मजबूत विपक्ष का मैसेज देना चाहते थे। ऐसे में नेता प्रति पक्ष का पद किसी दूसरे को देने के बजाय अखिलेश ने अपने पास रखा। पहले शिवपाल को नेता विपक्ष बनाने पर सहमति बनी थी जिसमे शिवपाल को सुरक्षा भी मिल जाती और उनका बेहतर समायोजन भी हो जाता। लेकिन शिवपाल की सांगठनिक क्षमता को देखते हुए उनके राष्ट्रीय स्तर पर महासचिव पद की जिम्मेदारी देने का फैसला हुआ है।
वसंत पंचमी के बाद राष्ट्रीय और राज्य कार्यकारिणी का होगा ऐलान
बसंत पंचमी के बाद सपा मुख्यालय में शिवपाल की मौजूदगी में अखिलेश इसका ऐलान कर सकते है। दरअसल शिवपाल सपा के संगठन की नब्ज समझते है जिलों में किस नेता का सियासी स्तर क्या है कौन वोट जोड़ने की क्षमता में माहिर है किसको कमान देने से नतीजे मिलेंगे। इसकी जानकारी शिवपाल को है। मुलायम के दौर में जहां मुलायम लखनऊ और दिल्ली में समय दिया करते थे तब शिवपाल ही जिलों जिलों में घूमकर संगठन को मजबूत करने में जुटे रहते थे। सपा की मौजूदा सियासत को समझे तो अब विपक्षी तेवर जो सपा की खूबी हुआ करती थी वो उससे गायब है। शिवपाल इस प्रतिभा के धनी है ऐसे में पार्टी को आंदोलन को आग में तपाकर जनता के मुद्दो को आगे लाने की रणनीति सपा की है।
परंपरागत वोट बैंक के साथ सपा की रणनीति के केंद्र में अब अति पिछड़े और दलित भी
मुलायम की सपा में वोटों का गणित यादव और मुस्लिमों को साधने से सध जाता था बाकी ओबीसी जातियां भी उनके साथ आ जाती थी। लेकिन आज के दौर में यादवों को छोड़कर सपा के पास बाकी ओबीसी जातियों का समर्थन गायब है। बीते विधानसभा चुनाव में ओबीसी की दूसरी बड़ी जाति कुर्मी भी एसपी और बीजेपी में बंट गई थी। अब सपा ने अपने पुराने ढर्रे पर लौटने की रणनीति बनाते हुए मोस्ट ओबीसी जातियों की लीडरशिप बढ़ाने का फैसला किया है।
प्रजापित, कश्यप, राजभर, मौर्या, निषाद जैसी बड़ी जातियों के नेताओ को संगठन में आगे की कतार में रखा जाएगा। इसके अलावा गैर जाटव दलित भी सपा के एजेंडे में है। बीएसपी के कमजोर होने से दलित मतदाता को अपने पाले में करने ने एसपी बीजेपी दोनो दल जुटे हुए है। सपा के लिए ये बेहतर मौका भी है क्योंकि विधानसभा चुनाव में दलितों से सपा की दूरी कम हुई तभी 100 सीटो का आंकड़ा पार्टी छू पाई थी अति पिछड़े और अति दलित इन दोनो तबकों को जोड़ने के लिए इनके नेताओ को संगठन में मजबूत पद देकर संदेश देने की तैयारी की जा रही है।
ओबीसी जनगणना का मुद्दा भी बदल सकता है सियासी समीकरण
इसके अलावा सपा बिहार में ओबीसी की जनगणना वाले मुद्दे पर भी नजर बनाए हुए है अगर बिहार में मंडल के दौर की सियासत फिर राह पकड़ती है तो उत्तर भारत की सियासत इससे प्रभावित होगी। आम चुनावों में ये मुद्दा बना तो कई समीकरण धराशाई हो सकते है नए समीकरण आकार ले सकते है। सो अभी शांत रहकर चुनावों से ठीक पहले सपा इस मसले को जोर शोर से उठा सकती है।
बीजेपी की अचूक रणनीति के आगे टिक पाएगी सपा
मुकाबले में जब बीजेपी जैसी मजबूत पार्टी हो तो किसी भी पार्टी के लिए जीत का गणित बिठाना बहुत आसान नहीं होता। कई राज्यों में चुनाव के नतीजों ने इसकी तस्दीक की है। बीजेपी अगर विधानसभा में राइट साइड की जगह हासिल कर पाई है तो उसकी बुनियाद अति पिछड़े तबके ने ही रखी। हिंदुत्व का असर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से लगाव जैसे नारे जातीय जुगलबंदी को तोड़ पाए तो उसकी वजह अति पिछड़ों का बीजेपी को लेकर जगा भरोसा था। जो सरकारी योजनाओं में मिली हिस्सेदारी और राजनैतिक रूप से मिली ताकत के चलते पनपा था। केंद्रीय मंत्रिपरिषद और राज्य मंत्रिपरिषद में पिछड़ा वर्ग को पर्याप्त भागीदारी दी गई। और इस बार भी पार्टी की रणनीति के केंद्र में पिछड़े वर्ग के लोग ही है।
बीजेपी की इस नई सियासत के दौर में जहां सबका साथ और सबका विकास के नारे के नीचे मुस्लिम भी छांव की तलाश में जुट गया है ऐसे में पुराने दौर की सियासत करने वाले शिवपाल वहां से पिछड़ी जातियों को बुलाकर साइकिल पर बिठा पाते है या नहीं ये तो भविष्य के गर्त में है लेकिन सपा में शिवपाल की आमद से कार्यकर्ता अपनी ताकत में इजाफा जरूर मान रहे है।
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