20 साल पहले किस बात पर शिवसेना से अलग हुए राज ठाकरे, क्या अपनाएगी उद्धव की शिवसेना?
Raj Thackeray : 2000 के शुरुआती दशक में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का दबदबा काफी ज्यादा था। कमान बाला साहेब ठाकरे के हाथ में थी। बाला साहेब को अपने बेटे उद्धव और भतीजे राज ठाकरे का पूरा समर्थन मिल रहा था। दोनों भाई पार्टी के लिए पूरी तरह समर्पित थे। दोनों भाइयों में कहीं कोई मनमुटाव नहीं था। सार्वजनिक समारोहों एवं कार्यक्रमों में उद्धव और राज दोनों को अक्सर बाला साहेब के साथ देखा जाता था।

2005 में शिवसेना से अलग हो गए राज ठाकरे।
Raj Thackeray : कहते हैं राजनीति में कोई स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता। दुश्मन कब दोस्त और दोस्त कब दुश्मन बन जाएं, कुछ कहा नहीं जा सकता। सब राजनीतिक नफे-नुकसान के हिसाब से तय होता है। इसमें कोई बुराई नहीं है। सभी अपना हित दिखते हैं। महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे के प्रमुख राज ठाकरे भी 20 साल बाद सियासत में अपने लिए कुछ नया देख रहे होंगे। 2005 में शिवसेना से अलग होकर मनसे नाम से अपनी नई पार्टी बनाने वाले राज ठाकरे अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे से सुलह करने के संकेत दिए हैं। राज ठाकरे के बयान के बाद उद्धव ठाकरे की शिवसेना और मनसे के एक साथ आने की अटकलें लग रही हैं। अगर ऐसा होता है तो महाराष्ट्र की राजनीति की यह एक बड़ी घटना होगी। हालांकि, राज ठाकरे के बयान पर उद्धव ठाकरे ने भी संकेट दिए हैं कि वह पिछली बातें भुला सकते हैं लेकिन राज ठाकरे को तय करना होगा कि वह भाजपा या शिवसेना के किसके साथ आना चाहते हैं।
राज ठाकरे ने क्या कहा है
बीते 19 अप्रैल को अभिनेता महेश मांजरेकर के साथ पॉडकास्ट में राज ठाकरे ने कहा, 'किसी भी बड़ी बात के लिए, हमारे विवाद और झगड़े बहुत छोटे और मामूली हैं। महाराष्ट्र बहुत बड़ा है। इस महाराष्ट्र के अस्तित्व के लिए, मराठी लोगों के अस्तित्व के लिए, ये विवाद और झगड़े बहुत महत्वहीन हैं। इस वजह से, मुझे नहीं लगता कि एक साथ आना और एक साथ रहना बहुत मुश्किल है। लेकिन, यह इच्छा का मामला है। यह केवल मेरी इच्छा का मामला नहीं है। हमें महाराष्ट्र की पूरी तस्वीर को देखना होगा. मुझे लगता है कि सभी पार्टियों के मराठी लोगों को एक साथ आकर एक पार्टी बनानी चाहिए।'
राज के बयान पर उद्धव की प्रतिक्रिया
जाहिर है कि राज ठाकरे के इस बयान के बाद उद्धव ठाकरे की ओर से प्रतिक्रिया आनी थी। उद्धव ठाकरे ने कहा कि 'मैं छोटे-मोटे झगड़ों को किनारे रखने को तैयार हूं। मैं सभी मराठी लोगों से महाराष्ट्र की भलाई के लिए एकजुट होने की अपील करता हूं. लेकिन, एक तरफ उनका (बीजेपी का) समर्थन करना और बाद में समझौता करना और उनका विरोध करना, इससे काम नहीं चलेगा। मराठी लोगों को यह तय करना चाहिए कि हिंदुत्व के हित में मेरे साथ रहना है या बीजेपी के साथ. हमें सबसे पहले छत्रपति शिवाजी महाराज के सामने शपथ लेनी चाहिए कि हम चोरों से नहीं मिलेंगे और जाने-अनजाने उन्हें बढ़ावा नहीं देंगे।'
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उत्तराधिकार की लड़ाई : विवाद की वजह
2000 के शुरुआती दशक में महाराष्ट्र की राजनीति में शिवसेना का दबदबा काफी ज्यादा था। कमान बाला साहेब ठाकरे के हाथ में थी। बाला साहेब को अपने बेटे उद्धव और भतीजे राज ठाकरे का पूरा समर्थन मिल रहा था। दोनों भाई पार्टी के लिए पूरी तरह समर्पित थे। दोनों भाइयों में कहीं कोई मनमुटाव नहीं था। सार्वजनिक समारोहों एवं कार्यक्रमों में उद्धव और राज दोनों को अक्सर बाला साहेब के साथ देखा जाता था। लेकिन एक बात जो दोनों भाइयों को एक दूसरे से अलग करती थी, वह थी आक्रामकता। मुद्दों पर राज ठाकरे अपने चाचा बााल साहेब की तरह मुखर, आक्रामक और बिना लाग लपेट के बात करते थे जबकि उद्धव का व्यवहार शांत और विनम्र होता था। राज ठाकरे की कार्यशैली बहुत कुछ शिवसेना प्रमुख से मिलती थी। दूसरा, बाला साहेब, अपने बेटे उद्धव और भतीजे राज में कोई अंतर नहीं देखते थे। इससे राजनीतिक हलकों और लोगों में धीरे-धीरे यह संदेश जाने लगा कि शिवसेना की कमान आगे चलकर राज के हाथों में जा सकती है। बाला साहेब की तबीयत
उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया
लोग राज ठाकरे को बाला साहेब का नैसर्गिक सियासी उत्तराधिकारी मानने लगे। इन्हीं दिनों बाला साहेब की सेहत बनने-बिगड़ने लगी। अक्सर वह बीमार रहने लगे। इसी बीच, 2003 में महाबलेश्वर में शिवसेना का एक बड़ा कार्यक्रम हुआ और इस कार्यक्रम में उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया। उद्धव का कार्यकारी अध्यक्ष बनना यह स्पष्ट संकेत था कि शिवसेना की कमान राज नहीं बल्कि उद्धव संभालेंगे। फिर कयासों और अकटलों का दौर शुरू हुआ। धीरे-धीरे पार्टी में राज हाशिए पर जाने लगे और खुद को अलग-थलग महसूस करने लगे। राज ठाकरे के समर्थकों को लगने लगा कि शिवसेना पर उनके नेता की पकड़ कमजोर हो रही है। पार्टी के अंदरूनी मामलों और उम्मीदवारों के चयन पर उद्धव सहित अन्य लोगों का दखल और प्रभाव बढ़ रहा है। बाला साहेब के रहते शिवसेना में अनबन और मनमुटवा की चीजें चलती रहीं लेकिन यह 2005 में अपने चरम पर पहुंच गया।
सम्मान की जगह शर्मिंदगी मिली-राज
27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने बागी तेवर अपना लिया। उन्होंने शिवसेना छोड़ने की घोषणा कर दी। अपने भावुक संदेश में राज ठाकरे ने कहा कि 'उन्होंने बस एक चीज मांगी थी-सम्मान लेकिन मुझे अपमान और शर्मिंदगी मिली।' राज ने कहा कि उन्हें अपने चाचा बाला साहेब से कोई शिकायत नहीं है लेकिन इन दिनों कुछ लोग उनके कानों में फुसफुसा रहे हैं, उनके लिए बाला साहेब भगवान की तरह हैं। इसके बाद 18 दिसंबर 2005 को मुंबई के शिवाजी पार्क जिमखाना में पत्रकारों को संबोधित करते हुए राज ने कहा, 'मैं अपने सबसे बुरे दुश्मन के लिए भी आज जैसा दिन नहीं चाहूंगा। मैंने सिर्फ़ सम्मान मांगा था। मुझे सिर्फ़ अपमान और बेइज्जती मिली।' इसके साथ ही राज ठाकरे ने शिवसेना से अपनी राह अलग कर ली थी। इसके ठीक तीन महीने बाद राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना यानी मनसे का गठन किया।
2024 के विधानसभा चुनाव में कोई सीट नहीं जीत पाई मनसे
ऐसा नहीं है कि बाला साहेब ने राज ठाकरे को मनाने की कोशिश नहीं की। उन्होंने राज को दोबारा शिवसेना में लाने के लिए कई प्रयास किए लेकिन इसके लिए वह तैयार नहीं हुए। इसके बाद राज की राहें अलग हो गईं। उनकी पार्टी निकाय से लेकर विधानसभा का चुनाव लड़ती रही। 2009 के विधानसभा चुनाव में मनसे ने 13 सीटें भी जीतीं लेकिन धीरे-धीरे उसका प्रदर्शन कमजोर होता गया। चुनाव में अपना छाप छोड़ने में बे-असर रही मनसे इन दिनों हाशिए पर है। भाजपा नेताओं के साथ राज की मुलाकातों से अटकलें भी लगती रही हैं। ऐसा कई बार लगा कि वह भाजपा के साथ आ सकते हैं लेकिन उन्होंने भगवा पार्टी से दूरी बनाए रखी। 2024 के विधानसभा चुनाव में मनसे कोई सीट नहीं जीत पाई। उनका जनाधार लगातार कम हुआ है। मराठी अस्मिता और उत्तर भारतीयों का मुद्दा उठा राजनीति में अपनी जमीन तैयार करने वाले राज ठाकरे अब मराठी भाषा का भावनात्मक मुद्दा उठाकर महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर प्रासंगिक होना चाहते हैं।
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