ट्रंप ने मांगी यूक्रेनी शांति और स्थिरता की कीमत, दुविधा में फंसे जेलेंस्की
जेलेंस्की को इस तरह की सौदेबाज़ी के लिए हरी झंडी दिखाना भारी पड़ सकता है, इससे उनका सियासी करियर सांसत में जरूर पड़ेगा। उनकी मुखालफत करने वाले विपक्षी सियासतदां उन्हें देशद्रोही करार देगें, ये जमात आम यूक्रेनियों के सामने ये नैरेटिव गढ़ेगें कि जेलेंस्की ने मुल्क अमेरिकी सदर के नाम कर दिया है, वो यूक्रेनी अस्मिता से समझौता कर मॉस्को के साथ समझौते की कवायदों पर जोर दे रहे हैं।

डोनाल्ड ट्रंप और वोलोदिमीर जेलेंस्की
कीव और क्रेमलिन का जंगी टकराव तीन साल पूरे करके चौथे साल की ओर कदम बढ़ा चुका है। व्हाइट हाउस में हुए सत्ता परिवर्तन का असर इस युद्ध पर साफ देखा गया। यूक्रेनी सरजमीं के नीचे दबी कुदरती मिनरल्स की मिल्कियत को महफूज़ रखने की अमेरिकी कवायदों को लेकर जेलेंस्की और ट्रंप के बीच तल्खियां उभरती दिख रही हैं। ट्रंप के सिपहसालार लगातार दबाव बनाए हुए है कि यूक्रेनी हुक्मरान मिनरल्स का बेशकीमती खजाना उन्हें सौंपे, जिसके एवज़ में वो उन्हें हथियार और हिफाज़त मुहैया करवायेंगे। ऐसे में सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या ये मुमकिन हो पाएगा? और आखिर ऐसा क्या हुआ कि यूक्रेन का कुदरती खजाना एकाएक वाशिंगटन और कीव के तालुक्कातों पर अपना असर छोड़ने लगा?
यूक्रेन में मिनरल्स का बड़ा भंडार
गौरतलब है कि दुनिया भर का करीबन 20 से 22 फीसदी टाइटेनियम का भंडार यूक्रेनी सरजमीं पर है। साथ ही कार्बोनेट डी लिथियम के भी यहां पर्याप्त भंडार है। रेडियोऐक्टिव तत्वों समेत काला सीसा, निकेल, यूरेनियम और फेरोमैंगनीज जैसे कई खनिज यहां पाए जाते है। इन सब तत्वों के भंडार का बड़ा हिस्सा करीब 42 फीसदी हिस्से पर मॉस्को का नियंत्रण है, ऐसे में अमेरिकी अगुवाई वाली पश्चिमी ताकतें इन मिनरल्स का इस्तेमाल करने से कोसों दूर है। इसी बेबसी को दूर करने के लिए ओवल ऑफिस लगातार जेलेंस्की पर दबाव बनाए रखे हुए है।
खनिज संपदा भुनाने में नाकाम रहा कीव
यूएसएसआर के विघटन के बाद नयी पहचान हासिल करने से लेकर अब तक यूक्रेन मिनरल्स और माइनिंग के क्षेत्र में फॉरेन इंवेस्टमेंट हासिल करने में पूरी तरह से नाकाम रहा है। हालांकि 21 सदी के मध्यांतर में लक्जमबर्ग से स्टील कंपनी आर्सेलर-मित्तल ने यूक्रेनी सरकारी कंपनी को अपने हाथों में संभाला था। इसके बाद पश्चिमी मुल्कों की कई कंपनियों ने इस ओर रूख़ करने से लगातार परहेज किया। इस दिशा में यूक्रेनी कानून भी बड़ी बाध्यताएं पैदा करता है, जिसके मुताबिक कोई भी देशी-विदेशी निजी फर्म या कंपनी वहां के कुदरती खजाने को सीधे तौर पर अपने हाथों में नहीं ले सकती है।
लिंडसे ग्राहम ने रखी इस सोच की नींव
यूक्रेनी खनिज संपदा पर सबसे पहली निगाह रिपब्लिकन नेता लिंडसे ओलिन ग्राहम की पड़ी थी, कूटनीतिक समझ और तोलमोल का विचार कर उन्होनें ही सबसे पहले अमेरिकी इमदाद और जंगी हथियारों के एवज में यूक्रेनी मिनरल्स हासिल करने की सोच व्हाइट हाउस में अमेरिकी सदर के सामने रखी। ग्राहम काफी वक्त से कीव-वाशिंगटन के तालुक्कातों को मजूबत करने के पैरोकार रहे हैं, जंगी फिज़ाओं के बीच वो अक्सर यूक्रेन का दौरा करते रहे। वो अक्सर यूक्रेनियों के कानों में डेमोक्रेट्स के खिलाफ जहर भरते दिखे। यूक्रेन में उनकी तकरीरों का लब्बोलुआब अक्सर ये होता था कि जंग में यूक्रेन का रूख़ सही है, लेकिन वाशिंगटन के सत्तासदन में बैठे डेमोक्रेट्स का सियासी रूख और फैसला कीव के हौंसले लगातार तोड़ रहा है।
टूटेंगे यूक्रेनी पूर्वाग्रह
जैसे ही बीते साल रिपब्लिकन पार्टी की ओर से राष्ट्रपति प्रत्याशी पद पर ट्रंप के नाम पर मुहर लगी तो ग्राहम ने दावा किया कि ट्रंप खालिस कारोबारी शख्स है, जो कि बढ़िया सौदेबाज़ी में दिलचस्पी रखते है। ऐसे में अगर वो यूक्रेन को हथियार और तकनीक देते है तो उसके बदले उन्हें यूक्रेनी मिनरल्स की पेशकश की जानी चाहिए। दोनों ही मुल्कों के लिए ये शानदार डील होगी। कहीं ना कहीं यूक्रेनी सत्ता भी इस बात को लेकर मुतासिर थी। ट्रंप के व्हाइट हाउस में तख्तनशीं होते ही कीव को अपने मुस्तकबिल को लेकर बेकरारी बढ़ती दिखी। उन्हें भरोसा था कि यूक्रेनी मिनरल्स के बदले उन्हें जंगी इमदाद, इंवेस्टमेंट, माइनिंग तकनीकें और अमेरिकी सैन्य बल उन्हें अपने खेमें में खड़े मिलेगें। कीव ने लगभग ये मान ही लिया कि ये सब अपने आप ही हो जायेगा, उन्हें किसी भी तरह का कोई कदम उठाने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी।
डील को लेकर जेलेंस्की ने दिखाई बेरूखी
अब ट्रंप ठहरे ट्रंप उन्हें सौदेबाजी और लफ्फाज़ी दोनों में ही महारत हासिल है। उन्होनें कीव की दहलीज पर अपना तिजारती हरकारा भेजा। अमेरिकी पहल पर इकरारनामा तैयार किया गया, जिसमें साफ था कि वाशिंगटन खनिज समेत कई मुद्दों पर कीव से एकतरफा शर्तें मनवाना चाहता है। ट्रंप यूक्रेन की खनिज संपदा और सामरिक ठिकानों पर अपनी मजबूत पकड़ चाहते है, इसीलिए तिजारती शर्तों और इकरारनामें को लेकर जेलेंस्की प्रशासन पशोपेश में है। इस फेहरिस्त में पहली शर्ते ये थी कि साल 2022 में छिड़ी जंग से लेकर अब तक कीव को दी गयी अरबों अमेरिकी डॉलर की सैन्य सहायता के बदले यूक्रेन उन्हें अपना मिनरल्स का खजाना सौंप दे। साथ ही आगे के लिए अमेरिकी जंगी हथियारों की खेप या फिर सुरक्षा गारंटी को लेकर वाशिंगटन कोई वादा नहीं करेगा।
बता दें कि जेलेंस्की बीते 3 सालों से पुख्ता गारंटी की काफी सरगर्मी से तलाश कर रहे है, इसे लेकर उन्होंने काफी मशक्कत भी की। इस अमेरिकी पेशकश को लेकर वो खासा नाराज है, उन्होंने फिलहाल इस इकरारनामे पर अपनी मुहर लगाने से इंकार कर दिया है। दक्षिणी जर्मनी में संपन्न हुए सुरक्षा सम्मेलन के दौरान ये मसला अपने चरम पर पहुंच गया था, उस दौरान अमेरिकी पक्ष से मुलाकात कर गहन चर्चा कर तिजारती इकरारनामें पर हामी भरने से साफ इंकार कर दिया गया था, जेलेंस्की के इस फैसले से तत्कालीन अमेरिकी सरकार खासा नाराज़ हुई। यूक्रेन के इस रूख़ से अमेरिका को काफी हैरानी भी हुई, उन्हें इस बात का ज़रा सा भी इल्म नहीं था कि यूक्रेनी नेता एकाएक इस तरह से रुख बदल लेगें।
ट्रंप को होगी पुतिन के सहयोग की दरकार
संभावनाओं को टटोला जाए तो अगर किसी तरह जेलेंस्की इस सौदेबाज़ी के लिए हामी भर भी दे तो इससे अमेरिका को मोटा नफ़ा नहीं होगा। इसके लिए उसे क्रेमलिन से हरी झंडी मिलने की दरकार होगी। दूसरा पक्ष ये भी है कि बड़े पैमाने पर मिनरल्स माइनिंग के लिए अमेरिका को पुतिन के ठोस आश्वासन की जरूरत होगी क्योंकि अमेरिकी मालिकाना हक़ वाली मिनरल्स माइनिंग कंपनियां कभी नहीं चाहेगीं कि उनके माइनिंग ब्लॉक्स में रूसी मिसाइलें इरादतन या गैर इरादतन तौर पर गिरे। इस कारोबारी तस्वीर में रंग तभी भर पायेंगे जब ओवल और क्रेमलिन के बीच बड़े पैमाने पर व्यापारिक समझ वाले समझौते पर हामी हो। भले ही इस मोर्चें पर अमेरिका यूक्रेन को मना ले, ऐसे में माइनिंग ब्लॉक्स की हिफाजत के लिए अमेरिकी सैनिकों या फिर रेथियोन, टाइटन कॉर्पोरेशन, ट्रिपल कैनोपी और नॉर्थरोप ग्रूममैन जैसी प्राइवेट आर्मी तैनाती कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ नहीं है। अगर इस तरह के हालात बनते भी है तो मास्को इसे पलभर के लिए भी बर्दाश्त नहीं करेगा।
जंग के चलते सीमित हुई संभावनाएं
माइनिंग साइट्स की हिफाजत का मसला अगर एक तरफ रख दिया जाए तो भी कारोबारी तौर पर मंहगी धातुओं का खनन कम मुनाफे वाला व्यवसाय है। बड़े पैमाने पर अगर किसी खनिज का विशाल भंडार मिलता है तो भी इस बात की गारंटी नहीं होती है कि वो मुनाफे का सौदा होगा। अगर यूक्रेनी माइनिंग ब्लॉक्स की बात की जाए तो इनमें से ज्यादातर खत्म हो चुके है बचे हुए कुछ पर रूस कब़्जा कर चुका है, साथ ही कुछ माइनिंग साइट्स जंगी इलाके में है। खनन के नए भंडार और जगह की तलाश के लिए भारी निवेश की दरकार है, जिसे यूक्रेन सरकार मौजूदा हालातों में किसी भी कीमत पर नहीं कर सकती। जंग फिजाओं के बीच दूसरे मुल्क भी इस ओर निवेश करने में हिचकिचा रहे है।
अफगानिस्तान में भी हुई थी, यही कवायद
करीब आठ साल पहले ट्रंप ने ठीक इसी तरह की पेशकश अफ़गानिस्तान के सामने रखी थी, यानि की जो पैसा अमेरिका ने अफगानिस्तान की शांति और स्थिरता के लिए खर्च किया था उसकी भरपाई वो अफगानी खनिजों की माइनिंग से करना चाह रहा था। गौरतलब है कि अभी तक कोई भी अमेरिकी कंपनी इस दिशा में आगे नहीं बढ़ पायी। इसके उलट साल 2020 में काबुल से यूएस सेंट्रल कमांड की तैनाती को खत्म कर दिया गया और सत्ता की चाबी तालिबान को सौंप दी गयी।
कम मुनाफे के साथ ज्यादा दिखावा कर सकते हैं ट्रंप
अब बड़ा सवाल ये है कि मौजूदा हालातों में ट्रंप यूक्रेनी खनिज हासिल करने को लेकर तल्ख तेवर अख्तियार क्यों किए हुए है? साफ है कि नफा कमाने वाली उनकी कारोबारी सोच मुमकिन तौर पर बेहद अच्छे सौदों की तलाश करना चाह रही है, भले ही उनमें मुनाफे माइलेज कम ही हो। कहीं ना कहीं ये जेलेंस्की का भी इंतिहान है, इसमें उनकी वफादरी की छानबीन होगी कि वो ट्रंप प्रशासन के सामने किस हद तक नतमस्तक होने के लिए तैयार हैं? अगर यूक्रेनी सदर कथित तौर पर अमेरिकी इकरारनामे पर हामी भर भी देते है तो ट्रंप इसे अपनी कूटनीतिक जीत के तौर पर दुनिया के सामने पेश करेंगे। हालांकि इस दौरान वो ये तकरीर जरूर जारी कर सकते है कि दूसरे मुल्कों को जंगी इमदाद देना अब अमेरिकी तोहफा नहीं रहा है बल्कि ये एक सौदा होगा जो कि उनकी इक्नॉमी को बूस्ट अप देगा। भले ही ऐसी कवायदों से अमेरिका को कुछ भी हासिल ना हो लेकिन इसका दिखावा करना ही काफी है।
दुविधा में फंसे यूक्रेनी सदर
दूसरी ओर जेलेंस्की को इस तरह की सौदेबाज़ी के लिए हरी झंडी दिखाना भारी पड़ सकता है, इससे उनका सियासी करियर सांसत में जरूर पड़ेगा। उनकी मुखालफत करने वाले विपक्षी सियासतदां उन्हें देशद्रोही करार देगें, ये जमात आम यूक्रेनियों के सामने ये नैरेटिव गढ़ेगें कि जेलेंस्की ने मुल्क अमेरिकी सदर के नाम कर दिया है, वो यूक्रेनी अस्मिता से समझौता कर मॉस्को के साथ समझौते की कवायदों पर जोर दे रहे हैं। कुल मिलाकर अमेरिका का तिजारती समझौता जेलेंस्की की गले की हड्डी बना हुआ है। अगर वो उसे लागू कर देते है तो उन्हें अपने ही लोगों की आलोचनाओं का शिकार होना पड़ेगा। अगर वो इस समझौते को खारिज कर देते है तो उनके लिए वो दरवाजे बंद हो जायेंगे जहां से उन्हें अभी भी सैन्य सहायता और जंगी इमदाद मिल सकती है। हर सूरत में यूक्रेनी सदर ऐसे हालातों में फंसे हुए जहां हर तरफ उन्हें शिकस्त ही नज़र आ रही है। ऐसे में ये देखना दिलचस्प रहेगा कि मात के जोखिम को कम करके वो अगला कौन सा दांव चलते है?
इस लेख के लेखक राम अजोर जो स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।
Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं, टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।
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