मिस्र है मिसाल, शांति और स्थिरता से पश्चिम एशिया को होगा फायदा

पश्चिम एशिया का इतिहास में ऐसी कई मिसालें दर्ज है, जो ये दिखाती है कि बातचीत, शांति और सैन्य गठजोड़ जैसी पहल इस क्षेत्र में ज्यादा टिकाऊ नहीं रही। समझौते और बातचीत में लगातार स्थायी तौर पर अस्थिरता ही रही है। 70 के दशक के पूर्वार्ध में काहिरा और तेल अवीव के वार्ताएं हुई, जिससे अरब मुल्कों का हौंसला बहाल हुआ।

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बारूदी गंध, आसमान चीरते जेट्स, खून से सनी जमीन, गिरती मिसाइलें और सायरन अलर्ट ने मध्यपूर्व के भूगोल में अस्थिरता बना रखी है। जंगी तनाव और हथियारबंद कार्रवाई के बीच अहम सवाल ये उभरता दिख रहा है कि शांति बहाली और सीजफायर होने से किसे ज्यादा नफा होगा? इस सवाल के जवाब में कयास कम और पेचीदियां ज्यादा है। इस जंग में शामिल हर खेमा एक दूसरे से अलग और आपसी दुश्मनी से भरा है। इतिहास के पन्ने पलटे तो हम ये पाते है कि वर्चस्व की बुनियाद पर लड़ी जा रही मजहबी सियासी जंग उतनी सीधी नहीं, जितना कि उसे अक्सर देखा जाता है। अगर किसी भी समीकरण के बैठने से शांति और अमन की बहाली होती है तो हमास, हिज्ज़बुल्लाह, तेहरान (कथित तौर पर IRGC भी) और हूतियों को उनके कारनामों के लिए कौन जिम्मेदार ठहरायेगा? इनकी साझा कवायदें इंसानियत के खिलाफ रही है। चौतरफा दुश्मनों से घिरे तेल अवीव की जंगी कार्रवाई को वजूद की हिफाजत के तौर पर देखा जा रहा है, जो कि सही भी है। इससे पहले भी कई पश्चिम ताकतों ने अपना वजूद बनाए रखने के लिए इसी तरह की कार्रवाईयों को अंजाम दिया था, तब उन्हें किसी ने भी कटघरे में नहीं खड़ा किया। इस राह पर खुद को जायज ठहराने के लिए बेंजामिन नेतन्याहू जो भी तकरीर जारी करे पश्चिम को उन्हें मानना ही पड़ेगा।

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जंगी चिंगारियों से नेतन्याहू को मिलेगा फायदा?

मौजूदा हालातों के चलते पश्चिम एशिया बदलाव का दौर देख रहा है, सामरिक/रणनीतिक बढ़त और शक्ति संतुलन नेतन्याहू के पक्ष में बना हुआ है। फिलहाल ये साफ नहीं हो सका है कि जिनके चलते हालात बिगड़े उनके साथ भविष्य़ में इस्राइल का रूख़ किस तरह का होगा? इससे जुड़ा दूसरा और अहम पहलू ये भी है कि इस मौके का फायदा नेतन्याहू कितना उठा पायेगें? क्या वो वाकई में शांति चाहते है? या फिर अपनी छवि (भष्ट्रचार के आरोपों में घिरी) सुधारने के साथ वो दक्षिणपंथी यहूदी समुदाय (कट्टर/गैर उदारवादी) के तुष्टीकरण के लिए जंग के शोले सुलगाए रखेगें?

बदला है इस्राइली रवैया

10 जून 1967 के बाद से ही अरब मुल्कों का इस्राइल के साथ शांति बनाए रखना पेचीदी भरा मसला बन गया। ये देश यहूदी बहुल मुल्क को कब्जा करने वाली ताकत की हैसियत से देखते रहे। बदकिस्मती से ज़मीनी और सियासी हकीकतों के चलते उन्हें इस्राइल के वजूद को गैर मन से मानना पड़ा। इनके बीच जिन ताकतों ने जवाबी कार्रवाई का परचम बुलंद किया उन्हें मुंह की खानी पड़ी। इसकी अहम वज़ह ये भी रही कि लंबे वक्त से मादरे वतन से दूरी झेलने वाले यहूदियों की जंगी कुव्वत, तैयारी और तकनीक अव्वल थी, जिसके आगे अरब ताकतों को घुटने टेकने पड़े। इसी बात को भांपते हुए बेरूत में बैठे हिज़्बुल्लाह ने इस्राइल विरोधी फिरकों का एक करना शुरू किया ताकि एकजुटता बने लेकिन ये कोशिश भी धूल चाटती दिखी। आज के हालात काफी बदल चुके है, सालों के खूनखराबे और खेमेबंदी के असर के बीच सभी पक्ष अमन बहाली, स्थिरता और विकास को लेकर खासा फिक्रमंद है। अब माली इमदाद और रिहायश बहाली पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। पहले बेरूत से तेल अवीव तक हमले होना आम बात होती थी, लेकिन अब मानवीय सहायता की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं। शांति की पेशकश लगातार सभी पक्षों की ओर से आ रही है।

अम्मान और काएरो ने चुनी सही राह

पश्चिम एशिया का इतिहास में ऐसी कई मिसालें दर्ज है, जो ये दिखाती है कि बातचीत, शांति और सैन्य गठजोड़ जैसी पहल इस क्षेत्र में ज्यादा टिकाऊ नहीं रही। समझौते और बातचीत में लगातार स्थायी तौर पर अस्थिरता ही रही है। 70 के दशक के पूर्वार्ध में काहिरा और तेल अवीव के वार्ताएं हुई, जिससे अरब मुल्कों का हौंसला बहाल हुआ। वहीं इसी दशक के उत्तरार्ध में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर की अगुवाई में हुए कैंप डेविड समझौते को अरब मुल्कों ने फिलिस्तीनियों के हको हुकूक के खिलाफ बताया। भले ही इस समझौते से अरब मुल्क खफा रहा हो लेकिन कायरो को इससे काफी फायदा मिला। सिनाई इलाके से IDF की वापसी हुई, तेल अवीव और काएरो के बीच राजनयिक रिश्ते पनपे साथ ही मिस्र में सोवियत ताकतों का असर फीका पड़ने लगा। जॉर्डन भी मिस्र का राह पर रहा है, क्योंकि उसे अपने कारोबार और निवेश की फिक्र ज्यादा है।

संघर्ष से दूर हैं अरब मुल्क

बीते डेढ़ दशकों में वाशिंगटन के सियासी गलियारे में इजरायल समर्थक लॉबिंग काफी ताकतवर हुई है। इसलिए अरब की तस्वीर में थोड़ा बदलाव जरूर होता दिखा। व्हाइट हाउस अब इस इलाके में अपना असर वैसा नहीं रखना चाहता जो कि जिमी कार्टर के वक्त में हुआ करता था। अब क्रेमलिन और ओवल ऑफिस पश्चिम-एशिया और पूर्वी-यूरोप के मसलों पर आपसी हित साधने के लिए अक्सर पिछले दरवाज़े से बातचीत करते है। अतीत के उलट इस्राइल जंग लड़ने की मंशा नहीं रखता है, मौजूदा संघर्ष उस पर थोपा गया है जिसे वो अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानकर मैदान में डटा हुआ है। इन सबके बीच अरब मुल्क जंगी परछाईंया से परहेज करते हुए सुकून की तलाश में है। हाल ही में हुई तेहरान और खाड़ी मुल्कों की मुलाकात से ये बात साफ हो चुकी है। अमेरिका को लेकर जो ईरानी प्रतिरोध बना हुआ है उससे खाड़ी देश अछूता रहना चाहते है। हाल ही में हूतियों के बढ़े हमलों और ईरानी परमाणु प्रतिष्ठानों को जमींदोज करने की अमेरिकी धमकी से इस सोच को और भी मजबूती मिली है कि अरब देश इस पचड़े से दूर रहना चाहते है। बेरूत, सना और दमिश्क भी कहीं ना कहीं इसी सोच से मुतासिर है।

फायदे में रहेगें वाशिंगटन और तेल अवीव

हमास, हिज़्बुल्लाह और हूती जिन्होनें खुद को इस्राइल के खिलाफ बड़े खिलाड़ी के तौर पर पेश किया, वो कभी भी अपने मंशा हासिल करने में कामयाब ना रहे। इनकी कार्रवाईयों से इस्राइल कमजोर होने के बजाए पहले से कहीं ज्यादा मजबूत हुआ। कथित ईरानी प्रॉक्सियों की कवायदों से इस्राइली नेतृत्व की पकड़ इलाके में कसती चली गयी। नतीजा ये हुआ कि IDF और खुफ़िया एजेंसियों (मोसाद, साइरत मेटकल और शिन बेट) ने अपनी कई अप्रत्याशित रणनीतियों से इन्हें गच्चा दिया। साथ ही ईरानी प्रॉक्सियों को युद्ध अपराध और सामूहिक बलात्कार का दोषी ठहराया जाने लगा। इनकी अतिसक्रियता के चलते कूटनीतिक और राजनीतिक समाधान के दरवाज़े बंद होने लगे। इससे होने वाले नुकसान की जद में अरब मुल्क भी आए। क्षेत्रीय सहयोग के नाम पर जो तकनीकी हस्तांतरण और समझौते इस्राइल से हो सकते थे वो ना के बराबर हुए। हालिया दौर में पश्चिम एशिया पर पड़े ईरानी असर ने इस खाई को पाटने का काम किया है, अब आबू धाबी, रियाज और तेल अवीव के आपसी रिश्ते खिलने लगे हैं। पश्चिम एशिया में स्थायी शांति से सबसे ज्यादा फायदा वाशिंगटन और तेल अवीव को ही होगा। दोनों ही देशों को अपने फौजी संसाधन संघर्ष में नहीं लगाने होगें। इससे क्षेत्र में सुरक्षा स्थिरता के साथ फौजी और इक्नॉमी साझेदारी बढ़ेगी। साथ ही कई कूटनीतिक और रणनीतिक लाभ भी इस्राइल से लगे देशों को मिलेगें। असली दिक्कत है इस राह का संतुलित मसौदा तैयार करने की, जिस पर सभी खेमे रजामंदी जाहिर करे।

इस लेख के लेखक राम अजोर जो स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।

Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं, टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।

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शिशुपाल कुमार author

पिछले 10 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए खोजी पत्रकारिता और डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में एक अपनी समझ विकसित की है। जिसमें कई सीनियर सं...और देखें

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