न्यूक्लियर हथियारों की छत्रछाया तलाशते यूरोपीय मुल्क, यूरोप के पास सीमित विकल्प
World News: यूरोप मुल्कों का मानना है कि इन कवायदों का मकसद वजूद के खतरे और सुरक्षा ढांचों को मजबूत करने से कहीं ज्यादा परमाणु शक्ति संतुलन से जुड़ा हुआ है। भले ही यूरोपीय देश ये आदर्शवादी दावा दुनिया के सामने पेश कर रहे हो लेकिन परमाणु हमले के खिलाफ क्षमता पैदा करने की आड़ में उनकी चिंता अस्तित्व और सुरक्षा से ही जुड़ी हुई है।

यूरोपीय देशों का सुरक्षा समीकरण भी लड़खड़ाता दिख रहा।
दूसरी बार सत्ता की डोर संभालते ही डोनाल्ड ट्रम्प ने अपनी नीतियों से दुनिया पर असर डालना शुरू कर दिया। उनकी ओर से जवाबी टैरिफ की कार्रवाई कारोबारी जंग की हिस्सा है, वहीं दूसरी ओर यूरोपीय देशों का सुरक्षा समीकरण भी लड़खड़ाता दिख रहा है। यूरोप में शुमार सभी मुल्क इस राह पर दूसरे विकल्प तलाशते दिख रहे है, अमेरिकी सैनिकों की वापसी और नाटो में असहयोग से अमेरिकी रूख़ काफी हद तक साफ हो चुका है। अब वो यूरोपीय देशों में जंगी फडिंग को लेकर अपनी दिलचस्पी पूरी तरह खत्म कर चुका है। ये वहीं देश हैं, जिन्होनें अपनी ताकत वाशिंगटन के इशारे पर अफगानिस्तान के पठारी और पहाड़ी इलाकों में झोंक दी थी। इन देशों का तालिबान से कुछ भी नहीं लेना देना था, फिर भी अंकल सैम के कहने पर ये मुल्क जंग में कूद पड़े थे। अब वहीं अमेरिका इन देशों से सामरिक दूरी बनाता दिख रहा है।
बर्लिन को लंदन और पेरिस उम्मीद
इन हालातों ने कई यूरोपीय देशों में आने वाले कल को लेकर दिमागी रस्साकशीं बढ़ी दी। इस मसले को लेकर बर्लिन के नीति नियंता लंदन और पेरिस के सत्ता सदन की ओर आस लगाए ताक रहे हैं। जर्मनी अब फ्रांस और ब्रिटेन से परमाणु सुरक्षा की मेजबानी की उम्मीद लगा रहा है। बता दे कि तीन साल पहले यानि कि 2023 अप्रैल में बर्लिन अपने सभी न्यूक्लियर रिएक्टर्स को बंद कर चुका है, लेकिन जिस तरह से यूरोप के अंतरमहाद्वीपीय सामरिक गणित बदल रहे है उसे देखते हुए मुमकिन तौर पर ब्रिटेन और फ्रांस ही उसे परमाणु सुरक्षा मुहैया करवा सकते है। फिलहाल इस मसले पर तीनों मुल्कों के बीच अभी किसी किस्म की औपचारिक वार्ता नहीं हुई है।
परमाणु हथियारों के साझाकरण पर जोर
हाल ही में फ्रांसीसी सदर ने ये साफ किया कि मौजूदा हालातों में इस मुद्दे को लेकर वो यूरोपीय मुल्कों के बीच बातचीत का दौर शुरू करने जा रहे है। उन्हें उम्मीद है कि बातचीत की मेज पर रणनीतिक बहस से कोई ना कोई ठोस हल निकाल लिया जायेगा। अगर इस मोर्चें पर यूरोप मुल्क कामयाबी हासिल कर लेगें तो वो अमेरिकी सरपरस्ती के बगैर किसी भी न्यूक्लियर हमले को रोकने की जंगी कुव्वत हासिल कर लेगें। रूस की ओर से आने वाले संभावित हमलों से बचने के लिए यूरोपीय मुल्क के साथ पेरिस और लंदन की न्यूक्लियर जुगलबंदी नई रवायत नहीं है, करीब 4 दशकों से इस तरह के साझी व्यवस्था के हालात अलग-अलग तरह से सामने आते रहे हैं।
अस्थिरता के साथ बढ़ सकता है जोखिम
मौजूदा हालातों में इस तरह की पेशकश का खाका फिर से तैयार करना आपसी खींचतान से ज्यादा ये भू-राजनीतिक जरूरत है। यूरोप मुल्कों का मानना है कि इन कवायदों का मकसद वजूद के खतरे और सुरक्षा ढांचों को मजबूत करने से कहीं ज्यादा परमाणु शक्ति संतुलन से जुड़ा हुआ है। भले ही यूरोपीय देश ये आदर्शवादी दावा दुनिया के सामने पेश कर रहे हो लेकिन परमाणु हमले के खिलाफ क्षमता पैदा करने की आड़ में उनकी चिंता अस्तित्व और सुरक्षा से ही जुड़ी हुई है। उनका ये रूख़ जोखिम के साथ अस्थिरता की ओर बढ़ता दिख रहा है, जिससे वो कभी परहेज किया करते थे।
मुश्किल होगा रूस को पार पाना
यूक्रेन युद्ध को रूकवाने का वादा ट्रंप अभी पूरा नहीं कर पाए है, ऐसे में ओवल और क्रेमलिन के तालुक्कात किस राह पर है, इसे लेकर फिलहाल कयास ही लगाए जा रहे हैं। अनिश्चितता के इन बादलों के बीच यूरोप के दो मुल्कों के पास सीमित न्यूक्लियर ताकत होने का नैरेटिव कूटनीतिक तौर पर हिम्मती एजेंडे की ओर बढ़ना माना जायेगा। भले ही यूरोपीय मुल्क खुद को एक परमाणु छत्रछाया में ले आए लेकिन मॉस्को से वो किसी भी कीमत पर पार नहीं पा सकते। रूसी हथियार खाने में करीब 5600 के आसपास परमाणु हथियारों का जखीरा है, वहीं अगर लंदन और पेरिस की परमाणु साझेदारी होती भी है तो उनके पास रूस के मुकाबले 10 गुना कम न्यूक्लियर वेपन है। रणनीति संघर्ष के मैदान में दोनों ही देश ये खाई कभी पाट नहीं पायेगें, ऐसे में क्रेमलिन की अजेयता बनी रहेगी। ये बात कहीं ना कहीं अमेरिकी थिंक टैंक भी मानते हैं।
अमेरिकी सरपरस्ती की कमी महसूस करता यूरोप
इस मोर्चें पर एक और अहम पहलू है, वो है बजट। यूरोप मुल्कों के पास हथियार बनाने से लेकर उन्हें इकट्ठा करने का खाका तैयार नहीं है, उनके पास धन और तकनीकी दक्षता दोनों की ही कमी है। बात जर्मनी की करे तो उसका रक्षा बजट 8 अरब 56 करोड़ रूपए का है, ये पैसा जर्मन सैन्य जरूरतों के हिसाब से नाकाफी है। जर्मन हथियारखाने के आधे से ज्यादा हथियार नाटो की फौरी तैयारी से जुड़े कायदों को पूरा नहीं करते है। अगर जर्मनी फ्रांस और लंदन के साथ साझेदारी करता है तो भी तीनों के पास वो सामरिक स्थिति नहीं बन पायेगी जो कि अमेरिका के होने से बनती थी। तीनों के पास स्ट्रैटेजिक मॉनिटरिंग ग्रिड और इंटेलीजेंस नेटवर्क नदारद है। मॉस्को के खिलाफ रणनीतिक प्रतिरोधक क्षमता हासिल करने के लिए तीनों मुल्कों को कई दशकों का समय लगना तय है।
नाटो निर्भरता ने बिगाड़े यूरोप के सैन्य समीकरण
नाटो परमाणु साझेदारी पर पूर्ववर्ती निर्भरता के चलते यूरोप अपने सुरक्ष बलों के एकीकरण को लगातार नज़र अंदाज करता रहा, जिसका खामियाजा उसे अब उठाना पड़ रहा है। जिस तरह के नए सामरिक और रणनीतिक खतरे अब मंडरा रहे है, उससे निपटने में यूरोप लगभग नाकाम सा दिख रहा है। पोजिशनिंग डिपेंडसी बदलने से यूरोप को कुछ खास हासिल होने से रहा। भले ही यूरोप मुल्क न्यूक्लियर हथियारों को साझा करके रणनीतिक छत्रछाया हासिल कर ले, लेकिन सच्चाई ये है कि इससे वो सामरिक वशीकरण में फंस सकता है।
ट्रंप के तिजारती रवैये से पैदा हुए हालात
इमैनुएल मैक्रों और कीर स्टारमर हर सूरत में अपने न्यूक्लियर हथियार पर अपना कंट्रोल बनाए रखेगें, दोनों ही किसी भी कीमत पर इन्हें यूरोपीय मुल्कों हाथों में नहीं जाने देगें। ऐसे में ये साफ है कि जर्मन अगुवाई में जो अन्य यूरोपीय देश इस व्यवस्था की मांग कर रहे है, वो सिर्फ और सिर्फ फ्रांसीसी-ब्रिटिश परमाणु हथियारों के स्टॉक यार्ड से ज्यादा कुछ नहीं बन पायेगें। इस व्यवस्था को असल मायनों में रेगुलेट करने वाली कोई संस्था नहीं होगी। अगर जमीन पर ऐसे हालात बनते है तो ये ट्रंप के लिए परेशानी का सब़ब जाहिर तौर पर बनेगा। अमेरिकी सदर कारोबारी शख्स है, अगर उन्हें कहीं नफा नहीं दिखता है तो वो किसी को भी छोड़ने में देर नहीं लगाते। बेहिचक वो अपनी जंगी साझेदारों को छोड़ने के लिए आमादा दिख रहे है। हाल ही में उन्होनें कीव को दी जाने वाली जंगी इमदाद और खुफिया जानकारियां रोक दी, क्योंकि उन्हें इसमें कोई फायदा नहीं दिख रहा था। ठीक इसी तरह ट्रंप नाटो से भी हाथ लगभग खींच चुके है, इससे नाटो की कमजोरियां और उसकी सरकती जमीन जगजाहिर हो गयी। ट्रंप की मेक अमेरिका ग्रेट अगेन की सोच उन्हें वहां जंगी मदद बांटने से रोकती है, जहां नफा नदारद हो। इसी से यूरोप मुल्कों में घबराहट का माहौल है। ये समीकरण नाटो सहभागिता और सामंजस्य को कमजोर करते है, साथ ही ये ट्रंप की बनिया सोच को वैश्विक पटल पर स्वीकार्यता दिलाने में मददगार होगा।
यूरोप के पास सीमित धन और संसाधन
परमाणु हथियारों को लेकर यूरोप की फ्रांस-ब्रिटेन पर संभावित निर्भरता-वैचारिक खींचतान मास्को और बीजिंग जैसे बड़े खिलाड़ियों के लिए मैदान में जगह बना देगा। ऐसे में यूरोप अपने संसाधन और धन टिकाऊ विकास, हरित ऊर्जा और एआई से हटाकर इस दिशा में लगायेगा। उसे मजबूर होकर अपने सीमित संसाधन और अरबों यूरो गैरजरूरी तौर पर हथियार बनाने पर खर्च करने पड़ेगें। ये दीर्घकालीन प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसे पूरा होने में कम से कम एक दशक लग सकते है।
यूरोपीय देशों के लिए शानदार मौका भी
यूक्रेन पर हमले के बाद से ही रूसी अर्थव्यवस्था लगातार लड़खड़ा रही है, वहीं अमेरिकी सदर अपने मुल्क को पुरानी वाली पहचान देने की जिद में लगातार खर्चों में कटौती किए जा रहे है। ट्रंप हथियार पर कम खर्च करने की अपनी नीति एक सौदे के तौर पर देख रहे है जहां संसाधनों को विकास रफ्तार बढ़ाने मे लगाएगें। अब ये यूरोप के हाथों में है कि वो फ्रांस और ब्रिटेन की परमाणु हथियारों वाली छत्रछाया में रहे या फिर हथियारों की होड़ पर नकेल कसने के लिए मध्यस्थता करें। जो भी हो यूरोप के फैसले का असर पूरी दुनिया पर साफ दिखाई देगा।
दुविधा के दोराहे पर यूरोप
फिलहाल यूरोप के लिए बड़ा मौका है कि वो अपना ध्यान कूटनीतिक पक्षों में लगाए। फ्रांस और ब्रिटेन की परमाणु छत्रछाया में जाने के बजाए वो परमाणु हथियारों की होड़ खत्म करने की पैरवी करें, साथ ही खुद को बेहतर मध्यस्थ साबित कर अपनी छवि अमेरिका से आगे ले जाए। ये वक्त इसलिए भी खास है क्योंकि वाशिंगटन और मॉस्को नए सिरे से बातचीत के साथ अपने द्विपक्षीय संबंध को बेहतर बनाने की जुगत में लगे हुए है। अगर परमाणु शस्त्र विहीन यूरोप न्यूक्लियर होड़ कम करने की कोशिशें करता है तो उसकी डिफेंस पॉलिसी पहले से ज्यादा मजबूत लगेगी, बजाए इसके कि वो परमाणु हथियार निवारक विकल्पों पर गौर करे।
इस लेख के लेखक राम अजोर जो स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।
Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं, टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।
देश और दुनिया की ताजा ख़बरें (Hindi News) पढ़ें हिंदी में और देखें छोटी बड़ी सभी न्यूज़ Times Now Navbharat Live TV पर। एक्सप्लेनर्स (Explainer News) अपडेट और चुनाव (Elections) की ताजा समाचार के लिए जुड़े रहे Times Now Navbharat से।
मैं टाइम्स नाउ नवभारत (Timesnowhindi.com) से जुड़ा हुआ हूं। कलम और कागज से लगाव तो बचपन से ही था, जो धीरे-धीरे आदत और जरूरत बन गई। मुख्य धारा की पत्रक...और देखें

भारतीय सेना को मिला नया फौलाद, सिक्किम में VMIMS तैनात, इसकी ताकत देख बढ़ जाएगी चीन टेंशन

कौन हैं भारतीय छात्रा रंजनी श्रीनिवासन, जिन्हें वीजा रद्द होने के बाद छोड़ना पड़ा अमेरिका, हमास का समर्थन करना भारी

आज भी हजारों लोगों का कुछ अता-पता नहीं, आवाज उठाने वाले बलोचों को 'गायब' करती आई है पाकिस्तानी सेना

चीन में राजनीतिक हलचल, जानिए क्या खास हुआ चीन के दो सत्रों में?

वरदान नहीं 'अभिशाप' बन गई बलूचिस्तान की खनिज संपदा, पाकिस्तान की लूट की कीमत चुकाते हैं बलोच
© 2025 Bennett, Coleman & Company Limited