Pakistan: खीझ से भरी जनरल असीम मुनीर की तकरीर, 'बुरे दौर' की ओर बढ़ता 'पाकिस्तान'

Pakistan News: जहां एक ओर हिंदुस्तानी फौज धर्मनिरपेक्ष है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तानी फौज पर मज़हब का सीधा असर है।

General Asim Munirs

पाकिस्तानी सेना के मुखिया असीम मुनीर

Pakistan News: हिंदुस्तानी डिप्लोमैटिक गलियारों में मज़ाकिया तौर पर कहा जाता है कि पाकिस्तान का मुस्तकबिल मुल्ला, अल्लाह और आर्मी तय करते है। यानी कि पड़ोसी मुल्क की बागडोर कट्टरपंथी इदारे (मुल्ला), खुदा और फौज के पास है। इस मुल्क के वजूद में आने से लेकर अब तक इन्हीं तीन ताकतों के पास कमोबेश इस्लामाबाद का तख्त रहा। इसी फेहरिस्त में पाकिस्तानी सेना के मुखिया असीम मुनीर के हालिया बयान ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। उन्होनें अपनी तकरीर ओवरसीज पाकिस्तानी कन्वेंशन में जारी की। जिस दौरान मुनीर ने अपनी तकरीर पेश की उस वक्त वजीर-ए-आज़म शहबाज शरीफ और उनके पार्लियामेंट्री सिपहसालार भी मौके पर मौजूद थे। मुनीर के ख्यालात इस्लामाबाद की सत्ता और उसके वजूद के लिए ललकार के मानिंद थे। मुनीर की बातों का लब्बोलुआब ये था कि पाकिस्तान को चलाने वाली असल ताकत फौज है ना कि शहबाज शरीफ और उनके सियासी प्यादे। मौके पर भले ही उन्होनें ये बात घुमा फिराकर कही हो लेकिन दुनिया इस सच से वाकिफ है कि पड़ोसी मुल्क में हुकूमत असल मायने में फौज ही चलाती है। वहां चुनी हुई सरकारें कठपुतलियां होती है, जिनकी डोर ISI और फौजी अफसर संभालते है। मुनीर की बातों ये साफ हो जाता है कि पाकिस्तानी सरजमीं असल जम्हूरियत के फूल खिला सकने में बांझ ही रहेगी।

पुराना रहा है फौजी हुक्मरानों का इतिहास

हिंदुस्तान तक्सीम होने के बाद जिन बुनियादों पर जिन्ना ने पाकिस्तान की नींव रखी, उसे देखकर पड़ोसी मुल्क के लिए ये मजबूरी है कि वहां की सियासत में आर्मी का दखल बना रहे। वहां की फौज ये अच्छे से जानती है कि उनकी पॉलिटिकल नुमाइंदगी नई दिल्ली के सामने बेहद कमजोर है, अगर मुल्क का वजूद कायम रखना है तो उसे हर मोड़ पर दखल देना ही होगा। पड़ोसी मुल्क तीन दशकों तक सीधे तौर पर फौजी जनरलों की सरपरस्ती में रहा। सिलसिलेवार ढंग से इसकी शुरूआत रॉयल फ्यूसिलियर्स (इंफैट्री) से आये जनरल अयूब खान से हुई। इसके बाद बलूच रेजिमेंट के याह्या खान उनके बाद फ्रेंटियर फोर्स रेजिमेंट के जनरल जिया-उल-हक और आखिर में रेजीमेंट ऑफ आर्टिलरी के जनरल परवेज मुशर्रफ ने मुल्क की हुकूमत संभाली। मुशर्रफ की ओर से ऐलान-ए-आव़ामी इंतिख़ाब से लगने लगा कि वहां उदारवाद और जम्हूरियत की जड़े पनपेगीं। 18 फरवरी 2008 के दिन पाकिस्तानी आवाम ने अपनी तकदीर बैलेट बॉक्स में बंद कर दी, चुनी हुई सरकार इस्लामाबाद की सत्ता में आयी लेकिन फौजी लीडरशिप ने मुल्क पर अपनी पैठ बनाए रखी। इसकी बेहतर मिसाल है पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) और उनके सुप्रीमो इमरान खान। ISI के इशारे पर उन्हें जेल जाना पड़ा। मजलिए-ए-शूरा में मसौदा लाकर उनकी वहां बड़ी ही बेरहमी से रूखसती करवा दी गयी। उन्हें मामूली केसों में हवालात जाना पड़ा। ये सब करके फौज ने जता दिया कि उनसे नाफरमानी करने का क्या अंजाम होता है।

अयूब खान के नक्शे कदम पर चलते असीम मुनीर

बता दे कि साल 1958 से 1969 में जनरल अयूब खान की सत्ता के तहत पाकिस्तान का आर्थिक विकास हुआ, लेकिन असमानता भी काफी बढ़ी। उन्होंने सेना के बजट में लगातार इज़ाफा किया, जिसके चलते तालीम और मेडिकल के लिए पैसे कम पड़ने लगे, इस वज़ह से पढ़ाई-लिखाई और क्वालिटी ऑफ लाइफ के मामले में पाकिस्तान पिछड़ता चला गया। लगातार लगने वाले कर्फ्यू, एमरर्जेंसी और सेंसरशिप से आवाम खौफज़दा थी और है। अयूब खान के दौर में डाले गए इस्लामीकरण के बीज बेरोजगारी, भुखमरी और गरीबी की शक्ल अख्तियार करते हुए चले गए। साथ ही उस दौरान आजाद ख्यालात वाली तरक्की पसंद आवाजों को कुचला गया। 1977-1988 के बीच जब जनरल जिया-उल-हक इस्लामाबाद के तख्त पर बैठे तो इस्लामी कट्टरपंथ को काफी माइलेज मिली, इससे जो इस्लामी चरमपंथी आंतकवाद फला फूला वो आज तक दक्षिण एशिया के लिए नासूर बना हुआ है। अब फौजी जनरलों की इसी रस्मी रवायती सोच को असीम मुनीर ने आगे बढ़ाया। उनके नफरती बयान में शामिल हिंदूओं के प्रति नफरत, कश्मीर, द्वि-राष्ट्र सिद्धांत और फिलिस्तीन को लेकर बेपनाह मोहब्बत ने ये साफ कर दिया है कि पड़ोसी मुल्क अभी गुरबत की और स्याह तस्वीर देखेगा।

धार्मिक कट्टरता की बुनियाद पर खड़ी पाक फौज

गौरतलब है कि असीम मुनीर पासबां-ए-पाकिस्तान होने के साथ हाफ़िज़-ए-कुरान भी है। अमूमन कई पाक जनरल इस्लाम और फौज के मॉकटेल से दूर रहे लेकिन जनरल जिया-उल-हक ने इस नुस्खे को आजमाया। उन्होंने गौर इरादतन तौर पर फौज में कट्टरपंथ को हवा दी। हालांकि जहांगीर करामत, परवेज़ मुशर्रफ़, अशफाक परवेज़ कयानी, राहील शरीफ़ और क़मर जावेद बाजवा इससे कोसों दूर रहे। असीम मुनीर पहले ऐसे सेना प्रमुख है, जिनकी सोच, काम और रवैये में इस्लामी साख साफतौर पर झलकती है। मुनीर ने अपना ये रूझान कभी भी नहीं छिपाया। वो अपनी तकरीरों में ऐसे लफ़्जों का इस्तेमाल करते है जो कि आमतौर पर मुजाहिद सोच वाले लोग अक्सर किया करते है। जिहाद, राह-ए-शहादत, कुर्बान, गाजी, काफिर और कुफ़्र जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल उनके लिए आम बात है। बकौल मुनीर मदीना के बाद पाकिस्तान ही ऐसी जगह जिसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। उन्होनें पाक सेना के नापाक इरादों को अल्लाह की रज़ा करार दिया। ओवरसीज पाकिस्तानी कन्वेंशन में उन्होनें जिस तरह से कश्मीर को इस्लामाबाद की शह-रग (गले की नस) बताया, उससे साफ है कि बतौर सेना प्रमुख उनके इरादे क्या है। साथ ही उन्होनें कहा कि उनका मुल्क हिंदुस्तान से हर मायने में अलग है। वो उसी लकीर पर चलते दिख रहे है, जिस पर कभी याह्या खान चले थे। ओवरसीज पाकिस्तानियों को लुभाने और अपना दबदबा बनाने के चक्कर में वो बलूचिस्तान से उठने वाले तूफान का जिक्र करना भी भूल गए।

इस्लामीकरण को मुखौटा बनाते पाक सेना सुप्रीमो

बतौर फौज सुप्रीमो असीम मुनीर जिस मुल्क की नुमाइंदगी कर रहे है, उनसे ऐसे लफ्ज़ों, रवैए और सोच की उम्मीद की जा सकती है। कई दशकों से पाक फौज हरकतुल मुजाहिद्दीन, हिज़्बुल मुज़ाहिद्दीन, सिपाह-ए-सहाबा, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-ओमर और लश्कर-ए-तैय्यबा जैसी जमातों से मिलकर किन इरादों को अंज़ाम दे रही है ये किसी से छिपा नहीं है। इन नॉन स्टेट एक्टर्स (मुल्ला) के साथ मिलकर इस्लामाबाद जिन करतूतों को अंजाम देता है, उसे मज़हब का चोला ओढ़ा देता है। अंदरखाने रावलपिंडी में बैठे जंगी सिपहसालार फौज को लगातार कट्टरपंथ का मॉकटेल पिला रहे है। यहीं वज़ह है कि पाकिस्तानी सेना मुज़ाहिदों को फिदायीन ट्रेनिंग और साजोसामान देती है। कट्टरपंथी ज़हर मुनीर के हालिया बयान में साफ झलकता है, जहां उन्होनें कहा कि पाकिस्तानी हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बड़ी खाई है। पाकिस्तानी मुसलमानों का खानपान, रहन-सहन, रीति रिवाज़ और सोच हिंदूओं से काफी अलग है। इसी बुनियाद पर द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत रखा गया। इसे इसी नजरिए से देखे जाने की दरकार है। मुनीर ने मौके पर मौजूद लोगों से गुज़ारिश करते हुए कहा कि वो आने वाली नस्लों को पाकिस्तान की कहानी बताए। गहराई से देखा जाए तो मुनीर इस्लामीकरण की आड़ लेकर पाकिस्तान में फैली भुखमरी, बदहाली, गिरती इक्नॉमी और अलगाववादी ताकतों से जुड़ी समस्याओं पर पर्दा डालना चाह रहे है। जिस जोशोखरोश के साथ उन्होनें द्वि-राष्ट्र की बात कही उसमें कश्मीर का मुद्दा कमतर और बलूचिस्तान समेत अलगाववादी इलाकों को लेकर बढ़ती चिंता का असर ज्यादा दिखता है।

अपने ही दांव से शिकस्त खाता इस्लामाबाद

तहरीक-ए-तालिबान और बलूच नेशनल आर्मी से जो चुनौतियां मिल रही है, उसकी खीझ मुनीर की तकरीर में साफ दिखी। पाकिस्तान में लगातार सिर उठाए घूम रही अंदरूनी समस्याओं से असीम मुनीर आज़िज आ चुके है, इसी से उपजी हताशा ने उन्हें ऐसे बयान देने के लिए बेबस किया। जिस द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत का कसीदा उन्होनें गढ़ा वो पूरी तरह से खोखला है। जिन हिंदुस्तानी मुसलमानों को जिन्ना अपना बनाने में नाकाम रहे थे, अब मुनीर उन्हीं को अपने पाले में खींचने की नाकाम कोशिश कर रहे है। कश्मीर को लेकर उनका मुल्क कई बार कई मोर्चों पर शिकस्त खा चुका है। जंग, दहशतगर्दी और कूटनीतिक से जुड़ा हर पाकिस्तानी पैंतरा घुटने टेक चुका है। 1971 में उसने बंगाली मुसलमानों को सब़्ज बाग दिखाकर क्या हासिल किया? दुनिया इससे अच्छी तरह वाकिफ है। मौजूदा दौर में पाकिस्तान कंगाली और टूट के मुहाने पर खड़ा थका हुआ बेबस मुल्क है, उसके लिए बेहतर होगा कि कश्मीर का राग छोड़कर वो टीटीपी और बलूच अलगावादियों की ओर से मिलने वाली ललकार पर अपना ध्यान लगाए वरना वो अपना वजूद खो बैठेगा।

इस लेख के लेखक राम अजोर जो वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।

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रवि वैश्य author

मैं 'Times Now नवभारत' Digital में Assistant Editor के रूप में सेवाएं दे रहा हूं, 'न्यूज़ की दुनिया' या कहें 'खबरों के संसार' में काम करते हुए करीब...और देखें

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