अफ्रीका बनेगा चीनी विस्तारवाद का अगला शिकार, अफ्रीकी महाद्वीप में दखल बढ़ायेगा ड्रैगन

व्यावसायिक शिक्षा देने के नाम पर चीन कई अफ्रीकी देशों में बुनियादी इफ्रांस्ट्रक्चर खड़ा करेगा। ये वही व्यावसायिक शिक्षा पद्धति है, जिसके दम पर चीनी उत्पादों ने दुनिया भर में अपनी धूम मचा रखी है।

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अफ्रीकी संसाधनों पर बीजिंग की नज़र (प्रतीकात्मक फोटो- Canva)

मुख्य बातें
  • अफ्रीकी देशों को चीन ने 50 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मदद का वादा किया है
  • ड्रैगन कई देशों में अपनी गहरी पैठ बना चुका है
  • रोगों की रोकथाम के नाम पर आगे बढ़ेगा चीनी नैरेटिव
बीते 1.5 दशकों में दुनिया भर में जिस तरह से चीनी कारोबार एकाएक फैला, उससे कई देशों के स्थानीय कारोबारियों में भारी धक्का लगा। सस्ते माल की आड़ में उसकी विस्तारवादी नीतियां अब जगजाहिर हो चुकी है। अपने कारोबारी क्षमता के बूते ड्रैगन कई देशों में अपनी गहरी पैठ बना चुका है। उसकी इसी नीति का अगला हिस्सा अफ्रीका में सक्रिय होता दिख रहा है। बीते हफ्ते बीजिंग में एक अहम कार्यक्रम के दौरान अफ्रीकी देशों को चीन ने 50 मिलियन अमेरिकी डॉलर की मदद देने का भरोसा दिया। अफ्रीका-चीन के कथित छद्म सहयोग के नाम पर शुरू की गई इस कवायद में कई अहम संदेश मिल रहे है।

ड्रैगन ने पकड़ी अफ्रीका की नब़्ज

बीजिंग की ओर से दावा किया जा रहा है कि वो अफ्रीका के बुनियादी ढांचे, ग्रीन क्लीन एनर्जी और कई कारोबारी परियोजनाओं में अपना पैसा लगाएगा। चीन वहां इफ्रांस्ट्रक्चर डेवपलमेंट और विकास योजनाओं को फाइनेंस करने के नाम पर सीधे घुसपैठ करने की फिराक में है, अपनी इस मंशा को पूरा करने के लिए वो अफ्रीकी शिक्षा प्रणाली और औद्योगिक संस्थानों की साफतौर पर मदद लेगा। कई विकसित अर्थव्यवस्थाएं और औपनिवेशिक मानसिकता वाली ताकतें अफ्रीकी प्राकृतिक संसाधनों में अपना रूझान रखती है। लगभग सभी अफ्रीकी देशों में इन संसाधनों पर अभिजात वर्ग से जुड़े लोगों का कब्जा रहा है, वो शायद ही कभी इसे मध्यम वर्ग और राष्ट्र के हित में बांटना चाहेगें। इस खास वर्ग को भी रिझाने में चीन कामयाबी हासिल कर लेगा।

अफ्रीकी संसाधनों पर बीजिंग की नज़र

उत्पादों के नजरिए से बीजिंग मोरक्को से नफा कमा सकता है, जहां फॉस्फेट प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इस खनिज का इस्तेमाल करके बीजिंग अपने लिए मजबूत औद्योगिकीय बैटरी विनिर्माण कर सकता है। चीन की नज़रे जिम्बाब्वे पर भी टिकी है, जहां संभावित तौर पर लिथियम में बड़े भंडार हो सकते है। अपनी उन्नत उत्खनन तकनीक का इस्तेमाल करके बीजिंग उसका इस्तेमाल अपनी इलेक्ट्रिक व्हीकल इंडस्ट्री में कर सकता है। संभावनाओं की तलाश में गिनी में वो तेल के भंडार की खोज कर सकता है। अफ्रीकी देशों को ये सब्ज़ बाग लगातार दिखाया जा रहा है कि चीनी निवेश से उनकी अर्थव्यवस्था और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बढ़ेगा, जो कि साफतौर पर भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं है।

सहयोग के नाम पर फैलेगा चीनी विस्तारवाद

फ्लैश की ओर रूख़ करे तो साफ देखा जा सकता है कि करीब दो दशक पहले दक्षिण-पूर्वी एशिया (खासतौर से चीन) और उप-सहारा अफ्रीकी देशों की माली हालात लगभग एक जैसी ही थी। सकल घरेलू उत्पाद, गरीबी, बीमारी और भुखमरी जैसे मामलों में दोनों कमोबेश लगभग एक ही पायदान पर खड़े थे। 90 के उत्तरार्ध में चीनी अर्थव्यवस्था को माइलेज मिलने लगी, हैरतअंगेज तौर पर उसने आर्थिक मोर्चें पर जो रफ्तार पकड़ी वो अभी तक कायम है। चीन के आर्थिक विकास का मूल आधार मानव संसाधन रहा है। प्राकृतिक संसाधनों की कमी से जूझने के चलते अब वो अपना रूख़ अंतर महाद्वीपीय सहयोग की ओर कर रहा है, इसी कड़ी हिस्सा अब अफ्रीकी मुल्क बनते दिख रहे है।

औद्योगिकीकरण के नाम पर अफ्रीकी महाद्वीप में घुसपैठ करेगा चीन

दक्षिण-पूर्वी एशिया में अपनी मजबूत पैठ बनाने के बाद चीन अफ्रीका महाद्वीप में अपनी शुरूआत कपड़ा उद्योग से करेगा। अपने माल को खपाने के लिए वो इथोपिया और नाइजीरिया के बाजारों को टारगेट करेगा। माना ये भी जा रहा है कि चीनी कपड़े के बाद वो इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण को भी इस क्षेत्र में आगे बढ़ाएगा। इलेक्ट्रिक वाहनों के विनिर्माण से जुड़ी इकाइयां लगाने से उसे अफ्रीका में काफी सस्ता मानव श्रम मिलेगा, साथ ही वो इसी क्षेत्र में सस्ता माल और बाजार भी ढूढ़ लेगा। कार्यबल, मानव श्रम और सतत् विकास से जुड़े औद्योगिकीकरण के नाम पर चीनी विस्तारवादी कोशिशें अफ्रीकी महाद्वीप काफी अंदर पैठ बनाने की कोशिश करेगी।

शिक्षण-प्रशिक्षण और युवाओं की आड़ में चीन चलेगा चाल

सिर्फ पूंजी और औद्योगिकीकरण ही नहीं अफ्रीका का आने वाला कल भी ड्रैगन के नापाक निशाने पर है। इसी क्रम में अफ्रीका को आश्वासन दिया गया है कि उनके युवा छात्रों को चीन में रियायती दरों पर उच्च शिक्षा मिलेगी। व्यावसायिक शिक्षा देने के नाम पर चीन कई अफ्रीकी देशों में बुनियादी इफ्रांस्ट्रक्चर खड़ा करेगा। गौरतलब है कि ये वहीं व्यावसायिक शिक्षा पद्धति है, जिसके दम पर चीनी उत्पादों ने दुनिया भर में अपनी धूम मचा रखी है। अफ्रीकी शिक्षण प्रणाली में तकनीक, गणित और विज्ञान पाठ्यक्रमों को बेहतर बनाने के लिए भी वहां चीनी प्रशिक्षक भेजे जायेगें। स्थानीय स्तर पर शुरू की जाने वाली इन कोशिशों से एक करोड़ दस लाख से ज्यादा अफ्रीका छात्र विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित में ग्रेजुएट हो सकेगें। इन सब कोशिशों से चीन एक साथ कई लक्ष्यों को हासिल करेगा, पहला अफ्रीकी संसाधनों पर उस कब्ज़ा, दूसरा विस्तारवादी फैलाव और तीसरा सबसे अहम महाद्वीप में उसकी स्थिति मजबूत होगी, जिससे कि वो जिबूती के तर्ज वहां अपने सैन्य अड्डे भी बना सकता है।

रोगों की रोकथाम के नाम पर आगे बढ़ेगा चीनी नैरेटिव

अफ्रीका में शिक्षण-प्रशिक्षण के अलावा संक्रामक और गैर संक्रामक रोग की रोकथाम का वादा भी चीन ने किया है। कई अफ्रीकी देश गंभीर बीमारियों की चपेट में है, जैसे एचआईवी, एमपॉक्स, डायरिया, मलेरिया और वेस्ट नाइल वायरस संक्रमण इन पर लगाम कसने में भी चीन उनकी मदद करेगा। इस काम को अंजाम देने के लिए चीन क्षेत्रीय स्तर पर रोग नियंत्रण प्रणालियां स्थापित करेगा। इस मोर्चें पर ड्रैगन के निशाने पर कई मध्य अफ्रीकी देश खासतौर से होगें। बीजिंग एमपॉक्स टीके बनाने के साथ साथ वहां सस्ती एंटीरेट्रोवायरल दवाएं और एचआईवी टेस्टिंग किट भी मुहैया करवायेगा। बड़े पैमाने पर अफ्रीकी मेडिकल छात्रों को सस्ती मेडिकल पढ़ाई के अवसर मुहैया करवाने का भी मसौदा तैयार किया जा रहा है। स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे में चीनी निवेश के अलावा स्थानीय स्तर पर काम कर रहे अफ्रीकी सार्वजनिक स्वास्थ्य कर्मियों और पैरामेडिकल सेवाओं में लगे लोगों को उन्नत कौशल प्रशिक्षण भी चीन देगा।

अफ्रीका की जमीनी जरूरतों से वाक़िफ हैं चीनी नीति नियंता

भोजन की कमी और लड़खड़ाती सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अफ्रीका के कई देशों खासतौर से सूडान में चरम भुखमरी के हालात है, ये साल खत्म होते-होते वहां 20 लाख से ज्यादा लोग काल के गाल में समा जायेगें। सोमालिया, मोजाम्बिक, नाइजीरिया और माली समेत कई दूसरे अफ्रीकी देश गृहयुद्ध के नाजुक दौर से गुजर रहे है। भुखमरी के बाद इनकी चपेट में आने से भी लाखों लोग प्रभावित हुए है। ऐसे में इन हालातों का फायदा उठाकर चीन मानवीय आधारों का हवाला देते हुए इन देशों में भी अपनी मौजूदगी पुख्ता तौर पर कायम करेगा। विस्थापन रोकने, क्षेत्रीय स्थिरता और पुर्ननिर्माण की आड़ में यहां चीनी दखल देखने को मिलेगा।

कर्जें के बोझ तले दबे हैं अफ्रीकी मुल्क

कई अफ्रीकी देशों की दिक्कत है अन्तर्राष्ट्रीय निवेश की तलाश और लोन का निपटारा। लोन के बोझ के तले दबे हुए इन देशों को करीब एक ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्जा चुकाना है, जिसके लिए उन्हें ड्रैगन से मदद की दरकार है। अगर अफ्रीकी देश अपने दम पर इस उधारी की भरपाई करे तो शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास के निर्धारित बजटीय आंबटनों से उन्हें अनचाहा समझौता करना पड़ेगा। इस मोर्चें पर अफ्रीकी देशों की स्थिति बेहद दोयम दर्जें की है, उन्होनें बेहद उच्च दरों पर ये लोन हासिल किया है, और ये बात बीजिंग भली भांति समझता है। वित्तीय सुधार के नाम पर इन देशों के पास कोई मजबूत प्लान नहीं है। इन्हीं तथ्यात्मक बुनियादों पर चीन अफ्रीकी में अपना फैलाव चाहता है।

वैश्विक लोकतांत्रिक ताकतों को लेना होगा संज्ञान

भले ही चीन अपनी मजबूत छवि और विश्वसनीयता अफ्रीकी देशों के सामने रख रहा हो, पर इन सभी देशों को वो उपभोक्ता बाजार, कमोडिटी खरीदार और औद्योगिक साझेदार से ज्यादा कुछ नहीं समझता। चीन अफ्रीका में औद्योगिक उन्नयन के नाम पर अंतरमहाद्वीपीय विस्तारवाद का पारिस्थितिकी तंत्र तैयार करना चाहता है, इस काम में बीजिंग की मदद देने वाले तत्व है, औद्योगीकरण, शिक्षण-प्रशिक्षण, भुखमरी रोकथाम, ऋण आंबटन, बुनियादी संरचनाओं का विकास और मेडिकल सहायता। चीन अफ्रीका को जिस नफे का भरोसा दे रहा है, उससे अफ्रीकी देशों को कम और ड्रैगन को ज्यादा लाभ होगा। अमेरिका और ईयू समेत कई हितधारकों के लिए ये चीनी कवायदें खतरे की घंटी हैं।
इस आलेख के लेखक राम अजोर (वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार एवं समसामयिक मामलों के विश्लेषक) हैं।
ये लेखक के निजी विचार हैं, टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।
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शिशुपाल कुमार author

पिछले 10 सालों से पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करते हुए खोजी पत्रकारिता और डिजिटल मीडिया के क्षेत्र में एक अपनी समझ विकसित की है। जिसमें कई सीनियर सं...और देखें

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