Israel Palestine Conflict: द्विराष्ट्र के दोराहे पर यरूशलम और तेल अवीव
Gaza Crisis: द्वि-राष्ट्र की सोच साल 1947 में पहली बार ब्रिटिश हुकूमत की ओर से जारी फरमान से हुई। जहां लंदन के निजामी सरमायेदारों ने दो अलग-अलग अरबी और यहूदी मुल्कों की बात कही थी। इसी सोच का अगला विस्तार साल 1993 में नार्वे में मिला, जहां ओस्लो में एक समझौते के तहत इस्राइल और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) के बीच आपसी रजामंदी कायम हुई, जिससे कि फिलिस्तीनी ऑथरिटी वजूद में आयी।
Israel Palestine conflict
Gaza Crisis: गाजा में तबाही का दौर बदस्तूर जारी है। बारूद की गंध और खून से सनी जमीन पर फिलिस्तनियों की बड़ी आबादी अपना वजूद बचाने के लिए हर मुमकिन जद्दोजहद में लगी हुई है। खाना, पानी, दवा और सिर पर छत्त जैसी बुनियादी चीजों से कोसों दूर फिलिस्तीनी दोजख़ जैसे हालातों का सामना कर रहे है। वहीं दूसरी ओर तेल अवीव अपने पश्चिमी किनारों से लगे रिहायशी इलाकों को कानूनी जामा पहनाने जा रहा है। रामल्ला, हाइफा, अशदोद, बेत शेमेस, नहशोलिम और गाजा पट्टी में बनी कई बस्तियां अब इस्राइली कैबिनेट की मंजूरी के बाद वैध हो जायेगीं। साफतौर पर ये कार्रवाई अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों को ताक पर रखकर की जाएगी। माना ये जा रहा है कि बीते जून महीने में कई यूरोपीय मुल्कों ने फिलिस्तीन को मुल्क के तौर पर मान्यता दी थी, इस पर जवाबी कार्रवाई करते हुए तेल अवीव प्रशासन ने पश्चिमी किनारों पर बसी इन बस्तियों के विस्तार का खाका तैयार किया।
जिन इलाकों में बस्तियों के विस्तार का ड्राफ्ट तैयार किया गया है, वो इस्राइल के कब्जे वाला फिलिस्तीनी इलाका है। इन इलाकों की डेमोग्राफी में बदलाव लाकर इस्राइली निजाम अपना दबदबा तो कायम करेगा ही साथ ही अपनी दीर्घकालिक रणनीति का एक और कदम पूरा कर लेगा। इन बस्तियों में अपना दखल देकर तेल अवीव ने साफ कर दिया है कि अभी उसकी अमन और चैन में कोई दिलचस्पी नहीं है। शांति प्रयासों से बेहद दूर अभी यही कहा जा सकता है कि मौजूदा जंगी हालात इजरायलियों और फिलिस्तीनियों की कोशिशों से हल नहीं होगें।
फिलिस्तीन को लेकर बढ़ी अन्तर्राष्ट्रीय हमदर्दी
फिलिस्तीन को लगातार मिलती यूरोपीय देशों की मान्यता से दक्षिणपंथी यहूदी संगठनों में खलबली का माहौल है। संप्रुभ राष्ट्र की मान्यता से फिलिस्तीन को राहत कम और परेशानियां ज्यादा मिली है। इसका नतीजा औपनिवेशिक बस्ती परियोजना के तौर पर सामने है। इससे फिलिस्तीनियों की आजादी तलाशने की संभावनाओं पर ब्रेक सा लगा सकता है। दूसरी ओर इस्राइल के कई यूरोपीय देशों के साथ द्विपक्षीय संबंधों पर भी इस प्रकरण का सीधा असर पड़ा रहा है। एक समय था, जब यहूदियों और इस्राइल को लेकर तमाम यूरोपीय मुल्कों में सहानुभूति का माहौल था, यहूदियों के सामूहिक नरसंहार, इस्राइल का वजूद में आना और इससे जुड़े अनूठे इतिहास को लेकर यूरोप तेल अवीव के साथ खड़ा रहता था। अब यही यूरोपीय हमदर्दी फिलिस्तीन की ओर शिफ्ट होती दिख रही है। दिलचस्प ये है कि जंगी हालातों के बीच आज भी इस्राइल दुनिया भर में यहूदियों के लिए महफूज़ पनाहगाह बना हुआ है, ऐसे में वो अपनी इस तस्वीर को कैसे आगे भी बरकरार रख पाएगा?, इस पर दुनिया भर की नज़रे बनी हुई हैं।
कई देश फिलिस्तीन के पक्ष में
जिस तरह से हमास ने सोशल मीडिया का सहारा लेकर शानदार नैरेटिव, एजेंडा और पर्सपेक्टिव अपने पक्ष में बनाना शुरू किया, उसका सीधा फायदा फिलिस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मिला। स्पेन और नॉर्वे ने बीते अप्रैल में यूएन में साफ कर दिया कि साल 1967 के दौरान जो सीमाएं फिलिस्तीन की हुआ करती थी, उसे फिलिस्तीनी संप्रभु राष्ट्र का दर्जा दिया जाए। इसी दलील की बुनियाद पर माल्टा ने भी साफ कर दिया कि सही वक्त आने पर वो भी इस तरह की पैरवी कर सकता है। फिलिस्तीन के लिए कुछ इसी तरह की हिमायत आयरलैंड और स्लोवेनिया ने भी की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हुई कवायदों से साफ हो गया कि यूएन में फिलिस्तीन की पूर्ण सदस्यता का रास्ता साफ हो चुका है। यूएन में शामिल 147 मुल्कों में से 12 यूरोपीय मुल्क फिलिस्तीन को यूएन में लाने के लिए लामबंद हो चुके है।
कांटों से भरी है टू-नेशन थ्योरी की राह
यूएन में फिलिस्तीन को लाना समस्या का पूर्ण समाधान की ओर बढ़ता कदम माना जा सकता है। कई मुल्कों के निजाम इस संकट के लिए द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत को अचूक उपाय मानते है। इसकी पैरवी में आयरलैंड का नाम सबसे ऊपर आता है। इस सोच को अमली जामा पहनाना तभी मुमकिन है, जब सीजफायर हो और यरूशलम-तेल अवीव एक साथ बातचीत की मेज पर आए। इस व्यावहारिक विकल्प को लागू करने में आम सहमति के साथ जनसांख्यिकीय पक्षों को केंद्र में रखना होगा। इससे इस विकल्प को जमीनी स्तर पर लागू करने में खासा मदद मिलेगी। हाल ही में हमास ने साफ कर दिया है कि अगर फिलिस्तीन संप्रभु राज्य अस्तित्व में आता है तो वो हथियार छोड़ने के लिए बिना शर्त राजी हो जायेगें साथ ही इजरायल के वजूद का वो पूरी तरह से एहतेराम भी करेगें।
द्वि-राष्ट्र की सोच साल 1947 में पहली बार ब्रिटिश हुकूमत की ओर से जारी फरमान से हुई। जहां लंदन के निजामी सरमायेदारों ने दो अलग-अलग अरबी और यहूदी मुल्कों की बात कही थी। इसी सोच का अगला विस्तार साल 1993 में नार्वे में मिला, जहां ओस्लो में एक समझौते के तहत इस्राइल और फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (पीएलओ) के बीच आपसी रजामंदी कायम हुई, जिससे कि फिलिस्तीनी ऑथरिटी वजूद में आयी। इससे दोनों पक्षों के बीच बातचीत का रास्ता खुला। कुछ समय बाद ये रास्ता भी बंद पड़ा गया। सीमा, शरणार्थी और यरूशलम को लेकर दोनों की राहें हिंसक तरीके से अलग हो गयी। इससे चरमपंथ की खासा बढ़ावा मिला, इसकी साफ वजहें थी, लड़खड़ाती फिलिस्तीनी सियासी रहनुमाई, कट्टर अरबी देशों का सीधा दखल और बढ़ता अविश्वास। रही सही कसर इस्राइल के पांचवें प्रधानमंत्री जनरल यित्ज़ाक राबिन की हत्या ने पूरी कर दी। इससे शांति की कोशिशों की भारी धक्का लगा। फिलहाल जनसांख्यिकीय वास्तविकताओं को दरकिनार करके जिस तरह से इस्राइली हुक्मरान पश्चिमी किनारे से लगी बस्तियों का विस्तार करने की तैयारी कर रहे है, उससे साफ है कि द्वि-राष्ट्र की सोच और सप्रंभु फिलिस्तीन अभी दूर की कौड़ी है।
संप्रभु फिलिस्तीन राष्ट्र के लिए हुई हैं कवायदें
तमाम नाकामियों के बीच कई बड़े मुल्क अमन-शांति के लिए द्वि-राष्ट्र के विकल्प को बेहतर मानते है। इस बात की तस्दीक इससे हो जाती है कि मामले को लेकर संयुक्त राष्ट्र में अब तक 800 से ज्यादा प्रस्ताव पारित किए जा चुके है। इस मुद्दे के कई जानकारों का मानना है कि दोनों पक्षों की धार्मिक-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, जमीनी विवाद और रिहायशी इलाकों का फैलाव इस विकल्प के आड़े आता है। तस्वीर का दूसरा रूख़ ये भी है कि बातचीत से तीस साल (1968-1998) तक चले ‘द ट्रबल्स’ यानि उत्तरी आयरलैंड विवाद खत्म हो सकता है तो ये विवाद क्यों नहीं?
लंदन और वॉशिंगटन भी दुविधा में
जिस रफ्तार से फिलिस्तीन को यूएन में मान्यता मिल रही है, उसे देखकर लगता है कि कुछ और देश इस फेहरिस्त में शामिल होगें या जिन मुल्कों ने मान्यता दी है वो अपने खेमे में दूसरे देशों को भी जोड़ सकते है। दिलचस्प है कि तेल अवीव को खुले समर्थन के बावजूद व्हाइट हाउस इस पशोपेश में आ गया है कि संप्रभु फिलिस्तीन की आलोचना करें या ना करें। जो बिडेन का मानना है कि इस मुद्दे पर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों की आम सहमति से ही बात बन सकेगी। इस मामले पर ट्रंप की सोच दूसरे ध्रुव पर है। वो द्वि-राष्ट्र वाले उपाय के खिलाफ है। माना ये भी जा रहा है कि संभावित तौर पर सत्ता में आते ही वो अपने इस रूख़ को और भी पुख्ता कर देगें। कुछ ऐसे ही सूरते हाल यूनाइटेड किंग के भी हैं। हाल ही में वेस्टमिंस्टर पैलेस में सत्ता पर काबिज हुई ब्रिटिश लेबर पार्टी ने साफ कर दिया है कि शांति प्रक्रिया में फिलिस्तीन को दो-राज्य समाधान के मार्फत मान्यता देकर इस संघर्ष से छुटकारा पाया जा सकता है।
इस्राइल में भी है दोधुरी सुर
1990 के दशक के दौरान तत्कालीन इस्राइली सरकारें दो राष्ट्र सिद्धांत को लेकर काफी संजीदा थी, साथ ही ये विकल्प गंभीर तौर पर नेसेट (इस्राइली संसद) के विमर्श के केंद्र में था। मौजूदा नेतन्याहू की अगुवाई वाली सरकार इसे लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं है। दूसरे शब्दों में कहे तो वो इसका पुरजोर विरोध करती रही है। पूर्व में तेल अवीव के कई हुक्मरान इस बात की पैरवी करते थे कि इसे लागू करने से पहले फिलिस्तीन को हथियार रखने होगें। इस्राइल में एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है, जो कि फिलिस्तीन हथियार बंद विद्रोहों का गवाह रहा है। बावजूद इसके उदारवादी यहूदी तबका शांति, सुरक्षा और सम्मान की आवाज़ को बुलंद करता रहा है। 7 अक्टूबर 2023 के दिन दक्षिणपंथी यहूदी ताकतों को एक बड़ा मौका मिल गया उदारवादी यहूदी जमात का मखौल उड़ाने के लिए।
मुश्किल है शांति बहाली का रास्ता
खूनी संघर्ष के बीच फौरी राहत के लिए अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को सबसे पहले ये पुख्ता करना होगा कि हर फिलिस्तीनी महफूज़ हो। इस काम के लिए फिलिस्तीन लिबरेशन फ्रंट और हमास को अपने तेवरों में नरमी लानी होगी। फिलिस्तीनी इलाकों में यहूदी बस्तियों के नियंत्रण पर इस्राइल को भी पीछा हटना होगा। इस बात की पैरवी खुद इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस ने की, जहां से तकरीर सामने आयी कि फिलिस्तीनी इलाकों में आईडीएफ की मौजूदगी पूरी तरह से गैरकानूनी है। इसे जल्द से जल्द खत्म किया जाना चाहिए। इस मोर्चें पर इस्राइल की मानमानी पर नकेल कसने के लिए वाशिंगटन, पेरिस, लंदन, बर्लिन और वॉरसा ने जिम्मेदारी तय करते हुए कई इस्राइली सैनिकों पर प्रतिबंध लगाए।
फिलिस्तीन को लगातार मिल रहा संतुलित अंतर्राष्ट्रीय समर्थन विश्वास और सहयोग में बढ़ावा देने का संभावित काम कर सकता है। साथ ही शांति वार्ताओं के लिए इससे दोनों पक्ष समान स्तर पर आ जाएगें। टिकाऊ शांति मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति से ही संभव है, इसके लिए दोनों पक्षों को कई मोर्चों से पीछे हटना होगा। इससे ही गाजा के पुनर्निर्माण का रास्ता साफ होगा और दोनों पक्ष शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए तैयार होगें। फिलहाल तो ये स्थिति दिवास्वप्न है।
इस लेख के लेखक राम अजोर जो स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।
Disclaimer: ये लेखक के निजी विचार हैं, टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल इसके लिए उत्तरदायी नहीं है।
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