जातिगत जनगणना के पीछे क्या है सियासी गणित? क्या 2024 में मोदी के लिए साबित होगा चुनौती
जातिगत जनगणना को लेकर सबसे पुरजोर आवाज बिहार से उठ रही है। नीतीश कुमार सरकार ने केंद्र से इसकी कई बार मांग की है। इसे लेकर नीतीश-तेजस्वी ने दिल्ली जाकर पीएम मोदी से भी मुलाकात की थी।
जातिगत जनगणना के पीछे क्या है सियासी गणित
Politics Over Caste Census: देश में जातिगत जनगणना को लेकर सियासी घमासान छिड़ा हुआ है। विपक्ष की ओर से इसे 2024 चुनाव में मुद्दा बनाए जाने की पूरी संभावना है। कांग्रेस, आरजेडी, सपा, जेडीयू जैसी कई पार्टिंयां जातिगत जनगणना की मांग उठा रही हैं, लेकिन केंद्र फिलहाल इस पर राजी नहीं दिख रहा है। इस मुद्दे पर विपक्षियों और केंद्र सरकार दोनों का अलग-अलग रुख है। क्या है पूरा विवाद और किस तरह का सियासी गणित लगाया जा रहा है, ये समझने की कोशिश करते हैं।
क्या है जातिगत जनगणना
जातिगत जनगणना का अर्थ है जनगणना की कवायद में भारत की जनसंख्या का जातिवार सारणीकरण करना। भारत ने 1872 में देशवासियों की गिनती शुरू की थी। 1952 से देश ने अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) पर अलग-अलग डेटा भी गिना और प्रकाशित किया। भारत अपने लोगों के धर्मों, भाषाओं और सामाजिक-आर्थिक स्थिति से संबंधित डेटा भी प्रकाशित करता है।
भारत की आखिरी जनगणना 2011 में कांग्रेस शासन के दौरान हुई थी। इसमें जातिगत जनगणना को शामिल करने की बात कही गई थी, लेकिन जाति के आंकड़े जारी नहीं किए गए। लेकिन अब कांग्रेस के भी सुर बदल गए हैं। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने केंद्र की भाजपा नीत सरकार को चुनौती दी है कि वह या तो 2011 की जातिगत जनगणना के आंकड़े जारी करे या जातिगत जनगणना नए सिरे से करवाई जाए। कांग्रेस जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं थी, लेकिन राहुल गांधी और फिर मां सोनिया गांधी के पार्टी अध्यक्ष पद छोड़ने और मल्लिकार्जुन खड़गे को कमान मिलने के बाद यथास्थिति बदल गई है।
कांग्रेस के सुर बदले
कांग्रेस नेता राहुल गांधी मोदी सरकार से जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में हैं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने पीएम मोदी को पत्र लिखकर सामाजिक न्याय के लिए जातिगत जनगणना तुरंत कराने की मांग की है। कांग्रेस की सहयोगी तमिलनाडु की एमके स्टालिन सरकार और एनसीपी नेता शरद पवार ने भी केंद्र से भारत की दशकीय जनगणना के साथ-साथ जातिगत जनगणना कराने का आग्रह किया है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भाजपा विरोधी दलों ने भी यही बात कही है। ये सूची दिन पर दिन लंबी होती जा रही है।
बिहार से पुरजोर आवाज
जातिगत जनगणना को लेकर सबसे पुरजोर आवाज बिहार से उठ रही है। नीतीश कुमार सरकार ने केंद्र से इसकी कई बार मांग की है। इसे लेकर नीतीश-तेजस्वी ने दिल्ली जाकर पीएम मोदी से भी मुलाकात की थी। नीतीश सरकार ने जनवरी में बिहार में अपना बहुप्रचारित जाति सर्वेक्षण शुरू किया था। लेकिन बिहार में जो हो रहा है वह जाति जनगणना नहीं, जाति सर्वेक्षण है। तकनीकी रूप से जनगणना एक ऐसी चीज है जो केवल केंद्र ही कर सकता है। नीतीश सरकार के सर्वे में लोगों की गिनती के साथ उनकी जातियों की पहचान भी हो रही है। समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव ने भी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश में जातिगत जनगणना की मांग की है।
50 फीसदी आरक्षण की शुरुआत
भारत के स्वतंत्र होने के बाद सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में पिछड़ी/अनुसूचित जातियों (धोबी, पासी, दुसाध, मुसहर, डोम, धानुक और जाटव जैसे दलितों) और अनुसूचित जनजातियों (या आदिवासी जैसे संथाल और मीणा) को आरक्षण के लिए सशर्त प्रावधान किए गए थे। पिछड़ी जाति के छात्रों के लिए विशेष प्रोत्साहन के साथ सरकारी संस्थानों में स्कूली शिक्षा वैसे भी मुफ्त थी। 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने सहयोगी भाजपा के कमंडल (राम मंदिर) की राजनीति से अपनी कुर्सी बचाने और हिंदुत्व के नाम पर जातिगत एकीकरण का मुकाबला करने के लिए 1931 की जाति जनगणना के आधार पर तैयार मंडल आयोग की रिपोर्ट को धूल चटा दी और 27% आरक्षण की घोषणा की। इसमें यादव, कुर्मी/कोइरी जैसे अन्य पिछड़े वर्गों और बनियों के कुछ वर्गों के लिए आरक्षण लागू कर दिया। इन्हें सामाजिक-आर्थिक मानकों पर पर्याप्त रूप से हाशिए पर पाया गया और कोटा लाभ देने का फैसला किया गया। 27 फीसदी आरक्षण के बाद साफ हो गया सरकारी नौकरियों और सरकार द्वारा चलाए जा रहे उच्च शिक्षा संस्थानों में 49.5% पद अब आरक्षित होंगे।
केंद्र सरकार का रुख
इतने सारे विपक्षी दल जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं, लेकिन सरकार इस पर राजी नहीं है। हाल ही में केंद्र ने संसद में कहा था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को छोड़कर कोई जाति आधारित जनगणना नहीं की जाएगी। भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने कहा है कि जाति एक जटिल मुद्दा है और जातियों की गणना करना एक बोझिल प्रक्रिया है और यह जनगणना की प्रक्रिया को ही खतरे में डाल सकती है। उदाहरण के लिए कई जातियों को अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग नाम दिए गए हैं।
इसके पीछे का सियासी गणित
विपक्षी दलों की रणनीति को भी समझना मुश्किल नहीं है। विपक्षी दलों को लगता है कि जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाने और इसी बहाने अधिक आरक्षण के जरिए हिंदुत्व के नाम पर हिंदुओं को एकजुट करने के बीजेपी के अभियान पर ब्रेक लगेगा। 2019 में पीएम मोदी के उभार को विपक्षी इसी का नतीजा मानते हैं। दूसरी ओर भाजपा को एहसास है जातिगत पहचान को गहरा करने से हिंदुत्व वोट का छत्र टूट सकता है। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले अगर बिहार जाति सर्वेक्षण के आंकड़े सामने आएं तो नीतीश और उनके डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव दोनों को ही इसका सबसे अधिक फायदा होगा। लेकिन जातिगत जनगणना एक संवेदनशील मुद्दा है और इसके आंकड़े सामने आने के बाद देश 1990 के दशक की मंडल और कमंडल राजनीति का एक नया दौर देख सकता है।
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