Coup in Bangladesh: अनजानी राहों पर बांग्लादेश, नई दिल्ली में हलचल का माहौल
बांग्लादेश की पूर्व पीएम शेख हसीना हिंसक आंदोलन के कारण देश छोड़ने को मजबूर हो गई। सोमवार शाम वो ढाका से निकलकर भारत पहुंची, जिसके बाद से वो यहीं है।
बांग्लादेश में आंदोलन के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ
- बांग्लादेश में आंदोलन के पीछे बाहरी ताकत
- पाकिस्तान के हाथ होने के संकेत
- आंदोलन भड़काने में विदेशी ताकतों का हाथ
वीं सदी के दक्षिण एशिया में बीते दिन अगस्त बांग्लादेश में हुआ प्रकरण अभूतपूर्व रहा। बीते एक महीने या उससे भी ज़्यादा बने हालातों ने एक बात साफ कर दी है कि युवा बांग्लादेशी बाहरी ताकतों के प्रभाव में है। नई दिल्ली के नज़रिये ये घटनाक्रम काफी संवेदनशील हैजब ये इंटेलीजेंस रिपोर्ट सामने आयी कि इस तख्तापलट के पीछे बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जमातएइस्लामी इस अंदाज़ा बेहद कम लोगों को ही था। षडयंत्र का पूरा तानाबाना ढ़ाका विश्वविद्यालय से मोबालाइज किया गया। इस पूरे प्रकरण की पटकथा बीते सालों से तैयार की जा रही थीजिसकी देखरेख पाकिस्तानपश्चिम एशिया सऊदीयूरोप और लंदन से जुड़े हुए है।
संभल सकते थे हालातजुलाई में आखिरी हफ्तों में काफी हद तक ये साफ हो चुका था कि हालात काबू से बाहर हो चुके थेबांग्लादेशी आवाम हसीना और मौजूदा व्यवस्था से आज़िज आ चुकी थी। दिन ब दिन बढ़ रहे संकट के बीच हसीना की पकड़ ढ़ीली पड़ती चली गयी। इस प्रकरण में कई मोड़ ऐसे भी आयेजहां से हालातों को संभाला जा सकता थालेकिन हसीना उन अवसरों को भुनाने में नाकाम रही। इससे स्थिति बिगड़ती चली गयी। मरने वालों की तादाद में लगातार होता इजाफा और राजनीतिक अस्थिरता के चलते लोगों में नाराजगी और गुस्सा बढ़ता चला गयाजिसका नतीजा कल देखने को मिला। आवामी लीग के दूसरे नेताओं की सुस्ती भी इसके लिए जिम्मेदार हैमुक्तियोद्धा बहुल ये पार्टी आपसी मशविरा से इन हालातों को संभाल सकती थीलेकिन उन्होनें इसका संज्ञान लेना जरूरी नहीं समझा।
कई फैक्टर्स के चलते हुई बगावत
बात करें शेख हसीना की सत्ता की तो उन्होनें बांग्लादेशी अर्थव्यवस्था को कपड़ों के निर्यात से मजबूती दी। इस सेक्टर में लगातार इजाफा होता गया। कोरोना महामारी के चलते इस सेक्टर में गिरावट के चलते बेरोजगारी चरम पर पहुंच गयी। अवामी लीग पार्टी के बेपरवाह रवैयेअसंतोषबढ़ते आर्थिक संकट और सरकारी नौकरियों में मुक्तियोद्धाओं के परिवारों को मिलते आरक्षण इन सभी ने आग में घी का काम किया। इस नब्ज़ को जिसके चलते और जमातएइस्लामी ने मौके का फायदा उठाया। युवा छात्रों में कट्टरपंथियों ने घुसपैठ कर आंदोलन और गृहयुद्ध के हालातों को भड़का दियाजिससे कि ढ़ाका और चटगांव समेत कई बड़े शहरी केंद्रों में आगजनी और कत्लोगारत देखने को मिला।
नई दिल्ली के लिए अहम रहा है ढाका
साल से ही शेख हसीना की सरपरस्ती में ढ़ाका और दिल्ली के मजबूत तालुक्कात रहे हैं। इसका सीधा फायदा भारत को मिलता रहा। भारत इस बात को लेकर इन सालों में आश्वास्त रहा कि बांग्लादेश आंतकी कट्टरपंथियों की पनाहगाह नहीं रहा। साथ ही इसका असर पूर्वोत्तर राज्यों की शांति व्यवस्था पर भी दिखाजहां शांति लाने की कवायदें रंग लाने लगी। आयातनिर्यातपरिवहन संपर्क परियोजनाएं और भारत द्वारा वित्त पोषित बांग्लादेश में चल रही कई योजनाओं ने ढाका का रूझान नई दिल्ली की ओर बनाए रखा। बीते सालों से ढाका की ओर से संचालित राजनीतिक व्यवस्था ने लंबे समय तक सह अस्तित्व और साझा निर्भरता बनाए रखीऐसे में बांग्लादेश की अंतरिम सरकार और आने वाली सरकार को भी इस रवायत को कायम रखना जरूरी होगाजो कि थोड़ा मुश्किल दिखता है। ऐसे में नई दिल्ली को चार कदम आगे बढ़ते हुए द्विपक्षीय आर्थिक जुड़ाव को बनाए रखने के लिए कोशिशों को बढ़ाना होगाहालांकि इस दौरान बांग्लादेशी बदलाव के नैरेटिव हिंदू विरोधी और भारत विरोधी को दरकिनार रखना होगा।
मामले पर हो सकता हैभारत का घेराव
आने वाले दिनों में इस्लामाबाद और बीजिंग साझा तौर पर इस तख्तापलट के लिए भारत के दखल से जुड़े शिगूफे उड़ा सकते है। दोनों का जोर इस बात पर रहेगा कि हसीना की डोर नई दिल्ली के हाथों में थीइस एजेंडे को पूरी रफ्तार के साथ वो दुनिया के सामने संभवतरख सकते हैं। ऐसे में नई दिल्ली को अपने आकाट्य तर्क तैयार कर लेने चाहिए। इससे ज्यादा भारत को बांग्लादेश से जुड़े आर्थिक हितों पर अपना विमर्श आगे लाना चाहिए। पूरी दुनिया जानती है कि दोनों मुल्कों के बीच साझा विरासतमजबूत संबंध और सांस्कृतिक एकरूपता रही हैंजब तक ये मार्धुयपूर्ण रहे तो हालात बेहतर रहे। इसके ठीक उलट इन्हें खंड़ित कर बांग्लादेश में जानबूझकर नकारात्मक राजनीतिक भावना को भड़काया गयाजिससे कि दोनों ओर के द्विपक्षीय संबंधों को दागदार करने की कोशिश की जा सकती है।
सवालों और संभावनाओं का दौर चरम परमौजूदा हालातों में साफ नहीं है कि बांग्लादेशी अंतरिम सरकार के बाद मुल्क की रहनुमाई कौन करेगाबांग्लादेश नेशनल पार्टी या जमातएइस्लामीसाथ ही स्थिर सरकार में सेना की भूमिका कितनी तटस्थ होगीजिस बेरहमी के साथ शेख मुजीबुर रहमान के बुत को तोड़ा गयाउससे साफ हो जाता है कि बांग्लादेश की आजादी में उनके योगदान को नकार दिया गया है। ये तस्वीर बहुत से संभावित समीकरणों कट्टरपंथी ताकतों के पनपे से जुड़ाका पूर्वाभास दे रही हैयानि छद्म लोकतांत्रिक सरकार बांग्लादेश को नियंत्रित कर सकती है।
सभी हितधारकों की भूमिका रहेगी अहमअंतरिम सरकार को शांति और स्थिरता में तेजी लाने के साथ प्राइवेट और पब्लिक इदारों को वापस पटरी पर लाना होगाताकि अर्थव्यवस्था को फिर से मजबूत किया जा सके। कोटा विरोधी और प्रदर्शनकारियों को भी अपनी सियासी समझ से परे जाकर हालातों का सामान्य करने पर काम करना होगा। यूएन समेत पश्चिम ताकतों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि नई सरकार लोकतांत्रिक दायरे में ही आगे बढ़े।
भारत के लिए भी स्थिति चुनौतीपूर्ण नई दिल्ली के लिए स्थिति वेट और वॉच वाली बनी हुई है। इसी बुनियाद पर कूटनीतिक और रणनीतिक पहलों का खाका तैयार किया जायेगा। साथ ही कोलंबो और काठमांडू भी बीजिंग के प्रभाव में है। ऐसे में नई दिल्ली अपने पूरे सामर्थ्य के साथ कोशिश करेगा कि नई सरकार के साथ उसके रिश्ते पूर्ववर्ती ही रहे।
इस लेख के लेखक राम अजोर जो स्वतंत्र पत्रकार एवं समसमायिक मामलों के विश्लेषक हैं।
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