चार सूबे, 40 लोकसभा और 160 विधानसभा सीटें...समझें- आखिर जाट फैक्टर को क्यों नजरअंदाज नहीं कर सकती है BJP

ऐतिहासिक रूप से देखें तो हम पाते हैं कि जाटों का उत्तर भारत की राजनीति में अच्छा-खासा प्रभाव रहा है। 1950 और 1960 के दशक में देवी लाल और रणबीर सिंह हुड्डा (हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा के पिता) (अविभाजित) पंजाब के प्रमुख जाट नेता थे, जबकि राजस्थान में नाथूराम मिर्धा थे और यूपी में चौधरी चरण सिंह (अजीत सिंह के पिता) थे।

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तस्वीर का इस्तेमाल सिर्फ प्रस्तुतिकरण के लिए किया गया है। (फाइलः iStock)

तस्वीर साभार : टाइम्स नाउ ब्यूरो

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सांसद और भारतीय कुश्ती महासंघ (WFI) के निवर्तमान अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह (Brij Bhushan Sharan Singh) के खिलाफ पहलवानों के प्रदर्शन (Wrestlers Protest) ने न सिर्फ भगवा पार्टी को प्रेशर में ला दिया बल्कि उसके जाट वोटबैंक (Jat Votebank) के दिमाग पर भी असर डाला है। चूंकि, आने वाले समय में कई चुनाव (Assembly Elections + Lok Sabha Elections) हैं, इस लिहाज से बीजेपी के लिए यह बड़ा मसला है। आइए, समझते हैं कि आखिरकार भाजपा के लिए जाट फैक्टर क्यों इतना मायने रखता और वह उसे इसे नजरअंदाज नहीं कर सकती है:

अंग्रेजी अखबार 'दि इंडियन एक्सप्रेस' के मुताबिक, भाजपा को इस बात का अहसास है कि वह हरियाणा में तो जाट फैक्टर को अनदेखा कर सकती है, मगर यूपी में उनके बीच उसके समर्थन के आधार का क्षरण पहले से ही महंगा पड़ रहा है। यादव फैक्टर को नकारने के लिए जाटों का इस्तेमाल करके बीजेपी ने राज्य में फायदा हासिल किया था।

साल 2022 के विधानसभा चुनावों के अलावा जहां जाट-आधारित रालोद ने आठ सीटों पर जीत हासिल की। वहीं, हाल ही में जाट गढ़ माने जाने वाले जिलों में नगर पंचायत और नगर पालिका अध्यक्षों के पदों के लिए हुए चुनावों में रालोद और उसकी सहयोगी समाजवादी पार्टी दोनों ने अच्छा प्रदर्शन किया था।

यही नहीं, बीजेपी ने उम्मीद के हिसाब से प्रदर्शन भी नहीं किया। प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी (मुरादाबाद से खुद एक जाट) और इसके अन्य जाट नेताओं जैसे संजीव बालियान (मुजफ्फरनगर) और सत्य पाल सिंह (बागपत) के जिलों में भी यही ट्रेंड बनी रहा। पार्टी ने जाट बहुल जिलों में 56 नगरपालिका अध्यक्ष सीटों में से केवल 20 और 124 नगर पंचायत अध्यक्ष सीटों में से 34 सीटें हासिल कीं।

रोचक बात है कि जब बीजेपी 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले ज्यादा से ज्यादा सीटें बंटोरने की कोशिश कर रही है, तब सूबे से आ रही यह खबर पार्टी के लिए चिंताजनक है। यूपी में जहां वे पश्चिमी जिलों में केंद्रित हैं और मुख्य रूप से गन्ने की खेती करते हैं। साथ ही राज्य के सबसे अमीर कृषक समुदाय भी हैं।

ध्यान देने वाली बात है कि एक दर्जन लोकसभा और लगभग 40 विधानसभा सीटों पर जाटों का महत्वपूर्ण प्रभाव है। मुकम्मल तौर पर देखें तो सियासी लिहाज से इस शक्तिशाली समुदाय (जाट) में लगभग 40 लोकसभा सीटों और लगभग 160 विधानसभा सीटों के परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता है, जो कि यूपी, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली में फैले हैं।

हालांकि, साल 2014 से पहले यादव और कुर्मी सरीखे बाकी कृषि-आधारित समुदायों के उदय के साथ जाटों का प्रभुत्व कम होता दिख रहा था। एक या दूसरे दल पर निर्भर लड़खड़ाती रालोद ने उन्हें बहुत कम राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिया। पर पश्चिम यूपी में 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद पूरा परिदृश्य बदल गया, जिसमें बड़े पैमाने पर जाट और मुस्लिम शामिल थे। 2014 के आम चुनावों में और फिर 2019 में अजीत सिंह और जयंत चौधरी की रालोद पिता-पुत्र की जोड़ी भाजपा उम्मीदवारों से हार गई।

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 15 जाट उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, जिनमें से 14 ने जीत हासिल की थी। रालोद के पुराने स्थापित जाट नेताओं का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने संजीव बालयान और सत्य पाल सिंह (एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी) जैसे नए लोगों को लाया और सफल भी रही। वैसे, 2022 के विधानसभा चुनावों के समय तक जाट समर्थन विभाजित हो गया था, जबकि भाजपा के पास मौजूदा समय में 10 जाट विधायक हैं, रालोद के चार और सपा के तीन हैं।

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अभिषेक गुप्ता author

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