Akhilesh Yadav: अखिलेश यादव का 'शुद्र राग' क्या मंडल राजनीति की है वापसी

रामचरित मानस की चौपाइंयों को लेकर सियासत गरम है। सवाल यह है कि क्या सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव को यकीन हो चला है कि इसके जरिए ही वो अपने राजनीतिक सफर को आगे बढ़ा पाएंगे। क्या वो मंडल पॉलिटिक्स को आगे बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

अखिलेश यादव, सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष

आम चुनाव 2024 में अभी वक्त है लेकिन सियासी अखाड़े में पटखनी देने की तैयारी शुरू हो चुकी है। बागेश्वर धाम सरकार यानी धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जब चर्चा में आए तो रामचरित मानस की कुछ चौपाइयों का जिक्र कर आरजेडी और यूपी में सपा के स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि समाज के अगड़े तबकों ने क्या कुछ किया है यह बात किसी से छिपी नहीं है। स्वामी प्रसाद मौर्य ने मनुवादी व्यवस्था का जिक्र करते हुए बयानों के तीखे बाण चलाए। जब कुछ हिंदूवादी संगठनों ने उनके बयान पर आपत्ति जताई तो सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव से सवाल हुआ कि पार्टी का क्या रुख है। अखिलेश यादव ने कहा कि रामचरित मानस पर वो कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते हैं। रामचरित मानस का अपमान नहीं किया जा सकता है लेकिन खुद को ना उन्होंने शूद्र अखिलेश यादव बताया बल्कि स्वामी प्रसाद मौर्य को संगठन में बड़ी जगह दी। सवाल यह है कि क्या वो मंडल पॉलिटिक्स में अपना भविष्य देख रहे हैं।

1989-90 और मंडल कमीशन

यहां पर 1989-90 का जिक्र करना जरूरी हो जाता है जब राजनीतिक वर्चस्व को बचाए रखने के लिए तत्कालीन पीएम वी पी सिंह में मंडल कमीशन का दांव खेला। मंडल कमीशन के दांव से वी पी सिंह को तो फायदा नहीं हुआ। लेकिन मुलायम सिंह, रामविलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव जैसे नेताओं के लिए राजनीतिक जमीन तैयार हो गई और उसका फायदा उन्हें मिला। सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव 1989-90 वाली राजनीति को फिर से विमर्श का हिस्सा बनाना चाहते हैं। अब इसके लिए 2014, 2017, 2019 और 2022 के नतीजों को समझना जरूरी है। 2014 के आम चुनाव में बीजेपी ने प्रचंड जीत हासिल कर यूपी में जातियों के समीकरण को तोड़ दिया। 2017 में यूपी विधानसभा चुनाव में भी 2014 का जादू चला और सपा सरकार से बाहर हो गई।

मंडल पॉलिटिक्स की ओर अखिलेश

2014 और 2017 के नतीजों के बाद यानी 2019 में सामाजिक समीकरणों को एकजुट करने के लिए सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा जोकि अपने आप में एक बड़ा प्रयोग था। राजनीति के जानकारों का मानना था कि बीजेपी की राह आसान नहीं होगी। लेकिन नतीजों ने साबित किया कि यूपी की जनता जाति के बंधन से खुद को आजाद कर रही है। 2019 के नतीजों के बाद सपा से ज्यादा फायदा बीएसपी को हुआ लेकिन मायावती ने माना कि समाजवाजी पार्टी अपने वोट को बीएसपी के पक्ष में ट्रांसफर कराने में नाकाम रही और उसका नतीजा यह हुआ कि बीएसपी गठबंधन से बाहर हो गई। समय का चक्र आगे बढ़ा 2022 का चुनाव हुआ। सपा और बसपा के अलग होने के बाद राजनीतिक तस्वीर क्या होगी इसका अंदाज करीब करीब हर किसी को हो चुका था। 2022 में योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में बीजेपी का दोबारा सत्ता में आना इस बात पर मुहर लगा गया कि अब जातियों पर एकाधिकार किसी खास दल का नहीं रहा। ऐसी सूरत में समाजवादी पार्टी के सामने चुनौती आन खड़ी हुई कि आगे का रास्ता क्या होगा।

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