35 साल पहले हिंदी साहित्य का वो नगीना जो कहीं खो गया, ऐसे थे भवानी प्रसाद मिश्र

देश
ललित राय
Updated Feb 20, 2020 | 06:30 IST

हिंदी साहित्य में जब कुछ महान शख्सियतों की बात करते हैं तो भवानी प्रसाद मिश्र बरबस याद आते हैं। आज ही के दिन 35 साल पहले वो इस नश्वर जगत को छोड़ गए। लेकिन उनकी यादें हर किसी के जेहन में अंकित है।

35 साल पहले हिंदी साहित्य का वो नगीना जो कहीं खो गया, ऐसे थे भवानी प्रसाद मिश्र
20 फरवरी 1985 को भवानी प्रसाद मिश्र का हुआ था निधन( साभार- yourstory.com) 
मुख्य बातें
  • भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी के मुर्धन्य साहित्यकार थे, मध्य प्रदेश में हुआ था जन्म
  • गद्य और पद्य दोनों विधाओं में महारत थी हासिल, बुनी हुई रस्सी के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार
  • 20 फरवरी 1985 को इस नश्वर संसार को छोड़ा

नई दिल्ली। भवानी प्रसाद मिश्र हिंदी साहित्य जगत के वो नाम थे जिनके बिना आधुनिक साहित्य की कल्पना संभव नहीं है। 20 फरवरी के दिन 35 साल पहले वो इस दुनिया को छोड़ गए। लेकिन उनकी यादें आज भी हर हिंदी भाषी खास तौर से साहित्य में रुचि रखने वालों की जेहन में ताजा है। मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में जन्मे मिश्र न केवल आंचलिक साहित्य को मजबूत करने की दिशा में अपना योगदान दिया था बल्कि अपनी विधा के जरिए हर किसी के दिल और दिमाग में अपनी छाप अंकित कर गये। 1972 में बुनी हुई रस्सी के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया था। 

अगर उनकी कुछ कृतियों पर नजर डालें तो गीत फरोश, चकित है दुख, गाँधी पंचशती, अँधेरी कविताएँ, बुनी हुई रस्सी , व्यक्तिगत, खुशबू के शिलालेख, परिवर्तन जिए, त्रिकाल संध्या, अनाम तुम आते हो, इदंन मम्, शरीर कविता फसलें और फूल, मान-सरोवर दिन, संप्रति, नीली रेखा तक, कालजयी ये सब खास थीं। धरती का पहला प्रेमी, ऐसा हो जाता है, दरिंदा श्रम की महिमा के जरिए उन्होंने सामाजिक अनुभवों को शब्दों में गढ़ा।
हो दोस्त या कि वह दुश्मन हो,
हो परिचित या परिचय विहीन
तुम जिसे समझते रहे बड़ा
या जिसे मानते रहे दीन
यदि कभी किसी कारण से
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,
तो सख्त बात कह उठने की
रे, तेरे हाथों हो न भूल ।

मत कहो कि वह ऐसा ही था,
मत कहो कि इसके सौ गवाह,
यदि सचमुच ही वह फिसल गया
या पकड़ी उसने ग़लत राह-
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से
काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह अरे,
देकर देखो ।

कितने भी गहरे रहे गत',
हर जगह प्यार जा सकता है,
कितना भी भ्रष्ट ज़माना हो,
हर समय प्यार भा सकता है,
जो गिरे हुए को उठा सके
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,
दे प्यार उठा पाए न जिसे
इतना गहरा कुछ पतन नहीं ।

देखे से प्यार भरी आँखें
दुस्साहस पीले होते हैं
हर एक धृष्टता के कपोल
आँसू से गीले होते हैं।
तो सख्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।

तुमको शपथों से बड़ा प्यार,
तुमको शपथों की आदत है,
है शपथ गलत, है शपथ कठिन,
हर शपथ कि लगभग आफ़त है,
ली शपथ किसी ने और किसी के
आफत पास सरक आई,
तुमको शपथों से प्यार मगर
तुम पर शपथें छायीं-छायीं ।

तो तुम पर शपथ चढ़ाता हूँ
तुम इसे उतारो स्नेह-स्नेह,
मैं तुम पर इसको मढ़ता हूँ
तुम इसे बिखेरो गेह-गेह।
हैं शपथ तुम्हें करुणाकर की
है शपथ तुम्हें उस नंगे की
जो भीख स्नेह की माँग-माँग
मर गया कि उस भिखमंगे की ।

है सख़्त बात से नहीं
स्नेह से काम ज़रा लेकर देखो,
अपने अन्तर का नेह
अरे, देकर देखो ।

(साभार-कविता कोश)

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