bhopal gas tragedy: अगर आप कल्याणकारी राज्य तो मुआवजा देने में देरी क्यों, केंद्र सरकार को 'सुप्रीम' लताड़
भोपाल गैस कांड मामले में मुआवजे के संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने कड़ी टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि अगर सरकार खुद को कल्याणकारी राज्य बताती है तो अतिरिक्त मुआवजा देने में इंतजार और देरी क्यों कर रही है।
भोपाल गैस कांड में अतिरिक्त मुआवजे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी
1984 भोपाल गैस कांड(Bhopal Gas Tragedy) के पीड़ितों को आज भी न्याय का इंतजार है। उनके जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश की गई। लेकिन गहरे जख्म भरने में कामयाबी नहीं मिली है। मुआवजे की लड़ाई पीड़ित सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे हैं और सरकारी उदासीनता का सामना भी कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी पक्ष से कहा कि अगर आप खुद को कल्याणकारी राज बताते हैं तो मुआवजा देने के लिए आगे आना चाहिए। आखिर आप अतिरिक्त मुआवजे के लिए यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री के भरोसे क्यों हैं। यही नहीं अदालत ने एटॉर्नी जनरल वेंकटरमणी से कहा कि रिव्यू याचिका का रिव्यू नहीं किया जा सकता है।
किसी और की जेब में डुबकी लगाना
किसी और की जेब में डुबकी लगाना और पैसे निकालना बहुत आसान है। अपनी खुद की जेब में डुबकी लगाओ और पैसा दो और फिर देखो कि क्या आप उनकी (Union Carbide) जेब में डुबकी लगा सकते हो या नहीं। यदि एक कल्याणकारी समाज के रूप में आप इतने चिंतित हैं तो आपको अधिक भुगतान करना चाहिए था, स्वयं पहल करने की जरूरत थी। न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी से कहा, आप कल्याणकारी राज्य के सिद्धांतों का आनंद लेना चाहते हैं, लेकिन फिर कहते हैं कि जब उनसे यानी यूनियन कार्बाइड से पैसा मिल जाएगा तो भुगतान करेंगे।
हर विवाद को कभी न कभी करना पड़ता है बंद
जस्टिस संजीव खन्ना, एएस ओका, विक्रम नाथ और जेके माहेश्वरी भी शामिल ने 2010 में केंद्र द्वारा दायर उपचारात्मक याचिका पर सुनवाई की थी। पीड़ितों के लिए 7,400 करोड़ रुपये से अधिक के अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई थी, इसने शीर्ष को बार-बार याद दिलाया। विधि अधिकारी ने कहा कि उपचारात्मक याचिका में अधिकार क्षेत्र का दायरा बेहद सीमित है और सरकार अदालत से पूरे मामले को फिर से खोलने की उम्मीद नहीं कर सकती है। सरकार की तरफ से एटॉर्नी जनरल ने कहा कि हम यूटोपिया में नहीं रहते। सरकार ने वही किया जो उसने उस समय उन लोगों के लिए सबसे अच्छा समझा जिन्हें सहायता की आवश्यकता थी। यह बदनामी नहीं बल्कि श्रेय है कि उन्होंने लोगों को तुरंत राहत पहुंचाने के लिए कुछ लिया। हर विवाद या त्रासदी को कभी न कभी बंद करना ही पड़ता है। उस समय (जब 1989 में सरकार द्वारा समझौता किया गया था) बंद करने पर विचार किया गया था। एक पुनर्विचार याचिका भी लाई गई जो 1991 में समाप्त हो गई। अब क्या हम बार-बार वही घाव खोल सकते हैं?
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ललित राय author
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