एक नाकाम एक्टर से मोदी सरकार 3.0 में मंत्री तक का सफर...दिलचस्प है चिराग पासवान के उदय की कहानी
अपने पिता राम विलास पासवान के मार्गदर्शन में चिराग ने 2014 में जमुई से लोकसभा में पदार्पण किया और 2019 के आम चुनावों में भी ये सीट बरकरार रखी।
चिराग पासवान का सफऱनामा
Chirag Paswan: बिहार में लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) प्रमुख चिराग पासवान ने रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में मंत्री पद की शपथ ली। हाजीपुर लोकसभा सीट से निर्वाचित चिराग पासवान ने 6.14 लाख वोटों के साथ शानदार जीत हासिल की और अपने आरजेडी उम्मीदवार को 1.7 लाख से अधिक वोटों से हराया। लोकसभा चुनाव उनकी राजनीतिक यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ, जिसने बिहार और फिर राष्ट्रीय मंच पर एक प्रमुख नेता के रूप में उनके उभरने में मदद की।
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हाजीपुर से चुनाव लड़ने का फैसला था अहम
हाजीपुर से चुनाव लड़ने का चिराग पासवान का फैसला कई मायनों में अहम था। इस सीट का प्रतिनिधित्व उनके दिवंगत पिता और बिहार के सबसे बड़े दलित नेता राम विलास पासवान ने आठ बार किया था। इसके अलावा, चिराग पासवान के नेतृत्व में लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने शानदार प्रदर्शन करते हुए बिहार में लड़ी गई सभी पांच लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की। यह जीत आंतरिक पारिवारिक झगड़े की पृष्ठभूमि में आई है। इस झगड़े ने एलजेपी को चिराग और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के नेतृत्व में दो गुटों में विभाजित कर दिया।
चिराग का सफरनामा
चिराग का जन्म 1982 में दिल्ली में हुआ था। पढ़ाई-लिखाई दिल्ली में ही हुई। इंजीनियरिंग के बाद उन्होंने बॉलीवुड में हाथ आजमाया। अपनी फिल्मी पारी में उन्होंने कंगना रनौत के साथ अभिनय किया था। साल 2010 से लेकर 2011 के बीच चिराग ने हिंदी सिनेमा में बतौर अभिनेता काम किया। इस दौरान मिले न मिले हम, वन एंड ओनली जैसी फिल्मों में एक्टिंग की। लेकिन इन फिल्मों को नाकामी मिली, जिसके बाद उन्होंने सियासत में एंट्री करना ही ठीक समझा।
2014 में जमुई से सियासत में प्रवेश
अपने पिता राम विलास पासवान के मार्गदर्शन में चिराग ने 2014 में जमुई से लोकसभा में पदार्पण किया और 2019 के आम चुनावों में भी ये सीट बरकरार रखी। 2020 में राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद चिराग और उनके चाचा पशुपति पारस के बीच पारिवारिक और राजनीतिक दरार उभर आई। चिराग अलग-थलग पड़ गए। सभी सांसदों ने उनका साथ छोड़ दिया। इन चुनौतियों के बावजूद चिराग ने 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में एनडीए से अलग रहते हुए चुनाव लड़ने का विकल्प चुनते हुए अपनी पार्टी का नेतृत्व किया। अपने उम्मीदवार मैदान में उतारने की उनकी रणनीति ने नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू के प्रदर्शन पर काफी असर डाला। जेडीयू की सीटों की संख्या 2015 में 70 से घटकर 2020 में सिर्फ 43 रह गई। इस साहसिक कदम ने चिराग को बिहार में चतुर राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित कर दिया।
2021 में एलजेपी में बड़ी फूट
2021 में चिराग और उनके चाचा के बीच गहराते झगड़े ने एलजेपी को विभाजित कर दिया। पारस एलजेपी के छह में से पांच सांसदों को अपने साथ ले गए। अब चिराग के साथ सिर्फ एक सांसद रह गया जबकि कोई भी विधायक साथ नहीं रहा। भाजपा ने शुरू में पारस का पक्ष लिया और उन्हें केंद्रीय मंत्री बनाया। इसने चिराग को मुश्किल में डाल दिया, वह न सिर्फ एनडीए से बाहर हो गए, बल्कि पार्टी का चुनाव चिन्ह भी उनके चाचा के गुट के पास चला गया। हालांकि, चिराग नरेंद्र मोदी के प्रति अपनी वफादारी पर कायम रहे। उन्होंने आशीर्वाद यात्रा शुरू की, जिसे पूरे बिहार में बड़े पैमाने पर समर्थन मिला।
चिराग का राजनीतिक उदय
चिराग के बढ़ते प्रभाव को पहचानते हुए भाजपा ने 2023 में उनका एनडीए में वापस स्वागत किया। लोकसभा चुनाव के लिए सीट बंटवारे की बातचीत में चिराग ने पारस गुट को दरकिनार करते हुए हाजीपुर सहित बिहार की सभी पांच लोकसभा सीटें हासिल कर लीं। चिराग ने अपनी जमुई सीट छोड़ दी और हाजीपुर से चुनाव लड़ा। यह एक प्रतिष्ठा की लड़ाई थी जिसे उन्होंने शानदार ढंग से जीता। इस जीत ने अपने पिता की राजनीतिक विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी के रूप में चिराग के दावे को मजबूत कर दिया। मोदी 3.0 कैबिनेट में शामिल होने के साथ चिराग पासवान राष्ट्रीय मंच पर कदम रखते हुए बिहार से परे अपना असर बढ़ाने के लिए तैयार हैं।
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