कितनी बदल गई है सियासत? सुषमा स्वराज की इन बातों को नहीं भूल पाएगा देश

Sushma Swaraj Political Kissa: सियासत में कोई किसी का सगा नहीं है, ऐसा सदियों से कहा जाता है। भारत में राजनीति के अलग-अलग दौर देखे गए। पुराने पन्नों को पलटकर देखा जाए, तो देश की सियासत में ऐसे भी राजनेता रहे हैं जिन्होंने अपनी शालीनता और उदारता से राजनीति के असल मायने को समझाया। सुषमा स्वराज ऐसे नेताओं की लिस्ट में शुमार हुआ करती हैं।

जब सुषमा स्वराज का भाषण सुनकर संसद में विरोधी भी हुए उनके कायल।

Sushma Swaraj News: राजनीति में मतभेद हो सकते हैं, मगर मनभेद नहीं होने चाहिए। सियासत में नोक-झोंक और खींचतान का सिलसिला आम है, मगर विरोधी जब शत्रु की तरह व्यवहार करने लगे तो समझिए कि गहरे मंथन और चिंतन की जरूरत है। इन दिनों सियासत उसी मोड़ पर आती दिख रही है, जब मतभेद से ज्यादा मनभेद हो गए हैं और विरोधी एक दूसरे को अपना शत्रु मान बैठे हैं। लड़ाई अब मुद्दे और योजनाओं से ज्यादा निजी होती जा रही है। इस परिस्थिति में सुषमा स्वराज का वो वक्तव्य याद आता है, जब उन्होंने साल 2014 के चुनाव से पहले संसद में अपने भाषण के दौरान कहा था। सुषमा स्वराज की शैली का हर कोई कायल था, वो जब बोलना शुरू करती थीं तो क्या अपने और क्या विरोधी। सभी बड़े ही गौर से उन्हें सुनते और समझते थे।

सुषमा स्वराज ने विरोधियों को किया था आकर्षित

ये बात साल 2014 की है। देश में लोकसभा चुनाव के लिए बिगुल बज चुका था। 15वीं लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष के रूप में सुषमा स्वराज का वो आखिरी भाषण था। सुषमा स्वराज ने अपने जादुई शब्दों से अपने विरोधियों को भी अपना कायल कर दिया। उन्होंने जब बोलना शुरू किया, तो पूरा सदन उन्हें गौर से सुनने लगा। उस वक्त सुषमा ने एक जरूरी बात कही थी कि हम एक दूसरे के विरोधी हैं, मगर शत्रु नहीं हैं। नीचे पढ़िए कि उस वक्त सुषमा ने अपने संबोधन में क्या-क्या कहा था।

सुषमा स्वराज का पूरा संबोधन...

'मैं बहुत प्यार से कह रही हूं, मेरे भाई कमलनाथ अपनी शरारत से इस सदन को उलझा देते थे और आदरणीय शिंदे जी अपनी शराफत से उसे सुलझा देते थे। इस शरारत और शराफत के बीच बैठी हुई सोनिया जी की मध्यस्थता, आदरणीय प्रधानमंत्री जी की सौम्यता, आपकी सहनशीलता और आडवाणी जी के न्यायप्रियता के कारण ही ये सदन चल सका। आज के दिन मैं अपने पूर्व नेता सदन आदरणीय प्रणब मुखर्जी को भी याद करना चाहूंगी। लोकतांत्रिया संस्थाओं में जिनकी आस्था ने भी इस सदन को चलाने में बहुत कारगर भूमिका निभाई। ये इसलिए हुआ, क्योंकि भारतीय लोकतंत्र के मूल में एक भाव है और वो भाव क्या है? वो भाव ये है कि हम एक दूसरे के विरोधी हैं, मगर शत्रु नहीं हैं। हम विरोध करते हैं विचारधारा के आधार पर, हम विरोध करते हैं नीतियों के आधार पर, हम विरोध करते हैं कार्यक्रमों के आधार पर। अलग-अलग विचारधारा है, अलग-अलग नीतियां बनाती है, अलग-अलग सरकार अलग-अलग कार्यक्रम बनाती है। उस पर हम आलोचना करते हैं, वो आलोचना प्रखर भी होती है। लेकिन प्रखर से प्रखर आलोचना भी भारतीय लोकतंत्र में एक दूसरे के व्यक्तिगत संबंधों में आड़े नहीं आती है। भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष के रूप में आडवाणी जी से मैं मार्गदर्शन लेने जाती थी। वो हमेशा मुझे एक ही निर्देश देते थे, सदन के गरिमा के अनुरूप ही आचरण करना है। दलगत राजनीति से उपर उठकर हमेशा उन्होंने मुझे सुझाव दिया और आज मैं इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहूंगी कि नेता प्रतिपक्ष के रूप में जो भूमिका मैं निभा सकी वो आदरणीय आडवाणी जी के आशीर्वाद के कारण हुआ। अध्यक्ष जी अब हम चुनाव में जा रहे हैं। चुनाव में जाते समय चाहिए तो ये था कि मैं सबको विजयी भवः का आशीर्वाद देती, लेकिन वैसा करूंगी तो असत्य होगा। इसलिए मैं विजयी भवः का आशीर्वाद तो नहीं दे पा रही, लेकिन यशस्वी भवः का आशीर्वाद सबको दूंगी। मैं चाहूंगी यशस्विता से हम सब चुनाव लड़े। आपकी (मीरा कुमार, लोकसभा अध्यक्ष) तो मैं कायल हूं, जिस बात को वासुदेव जी ने सार्वजनिक रूप से कहा मैंने निजी रूप से बहुत बार कहा कि आपका स्वभाव और उस स्वभाव में क्रोध का ना आना इस सदन को चलाने में सबसे ज्यादा योगदान देता है। इसलिए मैं कहना चाहूंगी कि हम सब यशस्विता से चुनाव लड़ें। जनता जिसे जिताकर भेजे, क्योंकि लोकतंत्र में जनता की अदालत सबसे बड़ी अदालत होती है। विजय और पराजय का फैसला वही करती है।'
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