8000 साल पुराना है पॉपकॉर्न,मंदी में बना लोगों की पसंद, SC के फैसले से क्या होगा असर

Supreme Court Decision on Eating in Cinema Hall:पॉपकॉर्न और सिनेमा हाल का सैकड़ों साल पुराना नाता है। और 1930 के दशक में जब पूरी दुनिया मंदी के चपेट में थी, तो पॉप कॉर्न न केवल लोगों का सहारा बना।

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कैसे बना पॉपकॉर्न

Supreme Court Decision on Eating in Cinema Hall:सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा हॉल के अंदर खाने-पीने की चीजों की बिक्री को लेकर अहम फैसला सुनाया बै। कोर्ट ने कहा है कि सिनेमा हॉल का प्रबंधन अंदर खाने-पीने की चीजों की बिक्री के लिए नियम और शर्तें तय करने का पूरी तरह से हकदार हैं। इस फैसले के बाद जम्मू हाईकोर्ट का वह फैसला रद्द हो जाएगा, जिसमें उसने दर्शकों को सिनेमाघरों में बाहर से खाने-पीने की चीजों को ले जाने की इजाजत दी थी। इस फैसले के बाद इस बात पर बहस छिड़ गई है कि कैसे पॉपकॉर्न से लेकर दूसरी खाने-पीने की चीजें पर सिनेमा प्रबंधन मनमानी कीमतें वसूलता है। और इसमें सबसे ज्यादा चर्चा पॉप कॉर्न पर रहती है। असल में पॉपकॉर्न और सिनेमा हाल का सैकड़ों साल पुराना नाता है। और 1930 के दशक में जब पूरी दुनिया मंदी के चपेट में थी, तो पॉपकॉर्न न केवल लोगों का सहारा बना बल्कि सिनेमा हाल मालिकों को भी उम्मीद की किरण दिखाई।

8000 साल पुराना है इतिहास

वैसे तो पॉपकॉर्न आधुनिक समय में शहर की रेड़ियों से लेकर, शॉपिंग मॉल, सिनेमा हाल तक में लोगों की पसंद बना हुआ है। लेकिन इसका इतिहास करीब 8000 साल पुराना है। जो कि मक्के बना हुआ है। मक्का करीब 8000 साल पहले यह teosinte नाम की जंगली घास से बना था। जो कि मैक्सिको में पाई जाती थी। लेकिन बाद में इसका वाणिज्यिक उत्पादन होने लगा और यह पूरी दुनिया में लोकप्रिय होता गया। और ऐसे साक्ष्य हैं कि भारत में यह 16 वीं शताब्दी में पहुंचा।

पहली मशीन शिकागो में बनी

18वीं शताब्दी में पॉपकॉर्न ने अमेरिका के घर-घर में जगह बना ली। और उसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि शिकागो में दुनिया की पहली पॉपकॉर्न बनाने वाली मशीन बनाई गई। इसके बाद पॉप कॉर्न ने लोगों को ऐसे दीवाना बनाया कि यह सिनेमाहॉल से लेकर घर पर लोगों के टाइमपास की पहली पसंद बन गया। साल 1929-30 में जब दुनिया में आर्थिक मंदी तो लोगों की उम्मीद बन गया। लोग कम कीमत की वजह से इसे पसंद करने लगे। और बिजनेसमैन ने इसका फायदा उठाया। समय के साथ बदलते इन्नोवेशन का ही असर है कि आज भारत में भी गली मार्केट से लेकर सिनेमा हॉल और मॉल तक यह पहुंच गया है। और कई बार तो इसकी कीमतें आम आदमी की जेब पर भारी पड़ जाती हैं।

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प्रशांत श्रीवास्तव author

करीब 17 साल से पत्रकारिता जगत से जुड़ा हुआ हूं। और इस दौरान मीडिया की सभी विधाओं यानी टेलीविजन, प्रिंट, मैगजीन, डिजिटल और बिजनेस पत्रकारिता में काम कर...और देखें

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