Ambedkar Jayanti 2023: पहली बार मुस्लिम लीग की सहायता से संविधान सभा पहुंचे थे आंबेडकर, दूसरी बार देनी पड़ी धमकी, तब मानी थी कांग्रेस
Ambedkar Jayanti 2023: बाबा साहेब आंबेडकर के जितना पढ़ा-लिखा नेता शायद आज की तारीख में भी कोई नहीं है। दलितों के उत्थान के लिए बाबा साहब आजीवन कोशिश करते रहे। इस मामले पर वो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से भी भिड़ते रहे, दोनों के बीच शुरुआत में तल्ख रिश्ते भी रहे।
Ambedkar Jayanti 2023: जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के रूप में शपथ लेते हुए बाबा साहेब डॉ अंबेडकर (फोटो- Wikimedia Commons)
संविधान सभा चुनाव में पहली हार
भारत के संविधान बनाने की जब कहानी शुरू हुई तब तक बाबा साहेब आंबेडकर राजनीति में आ चुके थे। आजादी से पहले 1936 में उन्होंने अपनी पार्टी- स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की थी और चुनाव भी लड़े थे और जीते भी थे। हालांकि जब 1946 में संविधान सभा का चुनाव हुआ तो वो हार गए। उन्हें यह हार वहां मिली थी, जहां उनका जन्म हुआ था, जहां से उन्होंने राजनीति की शुरुआत की थी, यानि कि महाराष्ट्र में।
मुस्लिम लीग की सहायता
बीबीसी के एक लेख में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रोफेसर मिर्जा असमेर बेग लिखते हैं कि कांग्रेस नहीं चाहती थी आंबेडकर संविधान सभा में पहुंचे। सरदार पटेल भी कुछ ऐसा ही चाहते थे। वो लिखते हैं कि उस समय के बॉम्बे के सीएम बीजी खेर ने पटेल के कहने पर यह सुनिश्चित किया था कि आंबेडकर ये चुनाव हार जाएं। इस हार के बाद आंबेडकर को मुस्लिम लीग से सहायता मिली और वो बंगाल से संविधान सभा पहली बार पहुंचे।
फिर हो गया खेल
प्रोफेसर मिर्जा असमेर बेग के अनुसार आंबेडकर जिन जिलों के वोटों के आधार पर संविधान सभा पहुंचे थे, वो बंटवारे के समय पाकिस्तान के पास चला गया। तब यह इलाका आज के बांग्लादेश में था। इस तरह आंबेडकर भी पाकिस्तान संविधान सभा के सदस्य बन गए। भारत में उनकी सदस्यता खत्म हो गई।
और जब आंबेडकर ने दी धमकी
इसके बाद जब लगा कि आंबेडकर संविधान सभा नहीं पहुंच पाएंगे तो उन्होंने बड़ी धमकी दे डाली। शायद वो इसके लिए मजबूर भी हो गए थे, एक ऐसा नेता जो उस समय सबसे ज्यादा पढ़ा लिखा था, 64 विषयों का मास्टर था, 9 भाषाओं की जानकारी रखता था, जिसके पास 32 डिग्रियां थीं, अगर वो भारत के निर्माण करने वाले संविधान से दूर रहे तो आहत होना स्वभाविक था। असमेर बेग बताते हैं कि इसके बाद आंबेडकर ने धमकी दे डाली कि अगर वो संविधान सभा में नहीं शामिल होते हैं तो वो इसका विरोध करेंगे और इसे राजनीतिक मुद्दा बनाएंगे। जिसके बाद कांग्रेस ने उन्हें संविधान सभा में जगह देने का फैसला किया और बाम्बे से आने वाले एक सदस्य एमआर जयकर को इस्तीफा दिलाकर उनकी जगह पर आंबेडकर को लाया गया। इसके बाद तो बाबा साहेब आंबेडकर ने इतिहास ही रच दिया।
नेहरू के साथ आंबेडकर के संबंध
आजाद भारत के पहले पीएम पंडित नेहरू के आंबेडकर के साथ संबंधों को लेकर ज्यादा कुछ लिखा नहीं गया है। इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने इसे लेकर यहां तक आरोप लगाया कि- "नेहरू-अंबेडकर के रिश्ते को अस्पष्ट बना दिया गया है। इसके बारे में कोई किताब नहीं है, न ही मेरी जानकारी में एक अच्छा विद्वत्तापूर्ण लेख भी है।" लेकिन कई मुद्दों पर भारी मतभेद के बाद भी आजाद भारत के प्रथम कानून मंत्री के रूप में नेहरू ने आंबेडकर को ही चुना था। नेहरू और अम्बेडकर विचारधारा के मामले में बहुत भिन्न नहीं थे, दोनों कई मुद्दों पर एक राय रखते थे, लेकिन उसके हल के बारे में उनके विचार एकदूसरे के काफी विपरीत थे। खासकर जातिगत आरक्षण, हिंदू कोड बिल, विदेश नीति और कश्मीर मुद्दे पर दोनों की राय काफी अलग थी। हालांकि, नेहरू तमाम मतभेदों के बाद भी आंबेडकर के लिए गहरा सम्मान रखते थे। लेकिन जब बात राजनीति की आती थी तो नेहरू, उन्हें चुनाव में हराने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे, यही कारण रहा कि आंबेडकर दो बार चुनाव लड़ने के बाद भी लोकसभा नहीं पहुंच पाए थे। पहली बार जब लोकसभा चुनाव हुआ तो नेहरू ने बाबा साहेब के पूर्व सहयोगी को उनके सामने उतार दिया, खुद प्रचार किया और आंबेडकर, नेहरू लहर में अपना चुनाव हार गए। उसके बाद एक उपचुनाव में भी उन्हें कांग्रेस के उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा था।
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