रामचरित मानस विवाद से क्या पिछड़ों और दलितों की सियासत को साधने की हो रही कोशिश
Ramcharitmanas Controversy: 2014 से पहले देश में सेकुलर नाम से बहुसंख्यक की अनदेखी कर अल्पसंख्यकों को सर आंखों पर बिठाने का दौर चल रहा था। लेकिन 2014 के बाद उस युग का समापन हो गया। अब देश में ऐसी सियासत की आधारशिला रखी गई जहा तुष्टिकरण की कोई जगह नही थी।
दलित राजनीति
Ramcharitmanas Controversy:रामचरितमानस की कुछ चौपाइयों को लेकर विवाद खड़ा करके राम को जातिवादी बनाने की कोशिश हो रही है। बिहार और यूपी के राजनेताओं ने राम को लेकर जो बयान दिए है क्या वो हिंदुत्व की सियासत की हवा निकालने का नया प्रयोग है। क्या बिहार में जातीय जनगणना और रामचरित मानस की चौपाइयों में पिछडे और दलित विरोधी भाव को हवा देने से पिछड़ों को हिंदुत्व ब्रांड से अलग करने की कोशिश की जा रही है ? क्या अस्सी के दशक में मुकाम पर पहुंची सामाजिक न्याय की लड़ाई को दोबारा छेड़ कर 2024 की सियासत साधने का प्लान बनाया जा रहा है ।
राम के गुरु वशिष्ठ जी जब अयोध्या से प्रस्थान कर रहे थे तब उन्होंने प्रभु श्री राम से कहा कि अब हम वन में चले वही राम नाम जपा करेंगे क्योंकि राम से बड़ा है राम का नाम । रामायण में इसका प्रणाम भी मिल जाता है जब लंका जाने के लिए सेतु बनाया जा रहा था तब नल और नील पत्थरों पर प्रभु राम का नाम लिखकर पानी में छोड़ते तो पत्थर तैरने लगते और जब खुद भगवान राम ने पत्थर पानी में डाला तो वो डूब गया। तबसे राम का नाम लेकर न जाने कितने लोग तर गए। सियासत में ही देख लें तो अटल आडवाणी ने राम के नाम की रट लगाकर 1980 में दो सांसदों की पार्टी को आज दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बना दिया।
सियासत करने वाले लोग बेहतर समझते होंगे कि राम ने सदैव जोड़ने का काम किया है। 1989 के दौर में जब मंडल की राजनीति ने देश को जातियों के खांचे में बांट दिया तो एक दशक बाद ही राम ने पूरे देश को एक धागे में पिरो दिया। ये राम ही है जिनके राज काज को अपनी सियासत का आधार बनाने की कोशिशों में हुकूमते लगी रहती है। राम नाम में बड़ी ताकत है जो नेता और पार्टियां अपनी सियासत से राम को एकदम दूर रखा करते थे । राम की महिमा देखिए वो लोग आज जय सिया राम का का जाप करते दिखाई दे रहे है।
जिस राम नाम ने पूरे देश को एक सूत्र में ला दिया आज उन्ही राम की कहानी यानी रामचरित मानस पर सवाल खड़ा करके सन 89 की सियासत को एक बार फिर साधने की पटकथा तैयार की जा रही है । दरअसल बिहार की नीतीश सरकार जातीय जनगणना को लेकर मन बना चुकी है । विपक्ष की मांग तो केंद्र सरकार से जातीय जनगणना देश भर में कराने की है । लेकिन बिहार ने अपने यहां कदम उठा लिया है। देश में आखिरी बार 1931 में अंग्रेजो के दौर में जातिगत आकड़े इकठ्ठे हुए थे। उसके बाद यूपीए राज में मनमोहन सिंह सरकार ने भी जातिवार जनगणना करवाई थी। कांग्रेस ने मुलायम सिंह और लालू यादव के दवाब में ये फैसला किया था। देश में पहली दफा एससी और एसटी के अलावा पिछड़ी जातियों में भी कौन कितनी संख्या में है इसका हिसाब किताब कराया गया था ।
लेकिन उस जनगणना के आंकड़े आज तक जारी नही हो पाए। अब आम चुनावों से पहले पिछड़ों की संख्या की गड़ना का मुद्दा बनाकर मोदी के तिलिस्म को चुनौती देने की योजना पर क्षेत्रीय दलो ने मंथन कर लिया है । बीते 8 सालो में बीजेपी ने सनातन परंपराओं का हवाला देकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की छतरी के नीचे अगड़ो और पिछड़ों और दलितों को जोड़ने में कामयाबी हासिल की है ।
विपक्ष और उसमे भी यूपी और बिहार के क्षेत्रीय दल सपा राजद और जद यू ने बीजेपी के इसी गणित को तोड़ने के लिए पिछड़ों की गड़ना का दांव चला है । 80 के दशक में वीपी सिंह के दौर में ये फॉर्मूला कामयाब भी हो चुका है । राजा नही फकीर है देश की तकदीर है , इस नारे ने कांग्रेस से मंत्री पद छोड़कर आए वीपी सिंह को देश का पीएम बना दिया । बोफोर्स घोटाले पर प्रहार करके वीपी सिंह देश की सियासत में मि क्लीन बनकर उभरे थे । और उन्होंने ही मंडल आयोग की सिफारिशों को मानकर पिछड़ों को आरक्षण देने वाला सामाजिक बदलाव का क्रांतिकारी प्रयोग देश की सियासत में किया था । वीपी सिंह का प्रयोग कारगर भी हुआ और वो पिछड़ों के मसीहा बनकर उभरे हालांकि सवर्णों के लिए वो खलनायक बन गए थे। मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के बाद देश में कांग्रेस की सियासत राज्यो से उखड़ती चली गई और यूपी बिहार सहित उत्तर भारत में कई क्षेत्रीय दलों ने पिछड़ों को एक साथ लेकर कांग्रेस के वोट बैंक को अपने साथ कर लिया। मंडल की राजनीति का ही असर है कि यूपी बिहार से गायब हुई कांग्रेस आज तक वहा संघर्ष कर रही है। अब उसी पैटर्न से बीजेपी को मात देने की तैयारी है ।पिछड़ों को साधकर बीजेपी के वर्चस्व को खत्म करने की योजना बनाई जा रही है । और बिहार के चंद्रशेखर और यूपी के स्वामी प्रसाद मौर्य का रामचरित मानस का विरोध पिछड़ों और दलितों को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से निकालने की रणनीति का ही ट्रायल नजर आता है ।
क्या राम की खिलाफत करने से विपक्षी दलों को हो सकता है नुकसान
2014 से पहले देश में सेकुलर नाम से बहुसंख्यक की अनदेखी कर अल्पसंख्यकों को सर आंखों पर बिठाने का दौर चल रहा था। लेकिन 2014 के बाद उस युग का समापन हो गया। अब देश में ऐसी सियासत की आधारशिला रखी गई जहा तुष्टिकरण की कोई जगह नही थी। अल्पसंख्यकों की अनदेखी तो नहीं की गई लेकिन बहुसंख्यकों के ऊपर उन्ही दी गई तरजीह को खत्म कर दिया गया। नई हुकूमत ने देश की सियासत में एक नई रवायत शुरू कर दी। और इस सियासत से पहले से चले आ रहे जीत के फॉर्मूले को धराशाई कर नया समीकरण तय कर दिया। इस नए बने रसायन में अल्पसंख्यकों की जरूरत नही थी। अब सियासत का तौर तरीका बदला तो विपक्ष को भी रणनीति बदलनी पड़ी। जिन दलो को बहुसंख्यकों की बात करने से ही अपनी सेकुलर छवि पर धब्बा नजर आने लगता था। अब नए दौर की सियासत के लिए मंदिर घूमना उनकी मजबूरी बन गया। अब मंदिर मंदिर जाने और राम राम करने में वो भी पीछे नहीं है। राम का कोई ठेकेदार नही है ऐसे बयान उन्ही दलों के नेताओ की तरफ से आ रहे है।
जब हालत ऐसे है जहा जीत का समीकरण बहुसंख्यकों के समर्थन पर आ टिक गया हो ऐसे में यूपी बिहार के क्षेत्रीय दलों ने बहुसंख्यकों की आस्था पर सवाल खड़े कर उसमे से पिछड़ों को अलग करने का जोखिम लिया हैं । हालांकि आवाज उठाने वाले नेता जरूर इसे अपनी व्यक्तिगत राय बता रहे हो लेकिन अगर पिछड़ों की चेतना में इन बयानों से हलचल हुई तो पिछड़े तबके के बाकी नेता भी सामाजिक न्याय के नाम से इसमें अपने सुर जोड़ देंगे। सालो से अपनी आबादी के सापेक्ष अपनी हिस्सेदारी तय करने को लेकर पिछड़ी जातियां संघर्ष कर रही है । कभी लालू और मुलायम जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी वाले नारे को बुलंद किया करते थे लेकिन अब मुलायम के निधन और लालू के सक्रिय सियासत में रहने से पिछड़ों की अगुवाई करने वाला नेताओ का अकाल है। ऐसे में बिहार में नीतीश कुमार के पास मौका है और तेजस्वी इस तरह की सियासत की नई पौध है और अगर इसे सही से खाद पानी मिल गया तो इस आंदोलन की अगुवाई बिहार करे तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। अखिलेश में संभावनाएं है जनता अखिलेश से खुद को जोड़ लेती है लेकिन अखिलेश इस मामले में सावधानी बरत रहे हैं। पिछड़ों के मसले पर खुलकर बात करने के बजाय उन्होंने संतुलन भरा रास्ता चुना है। इसलिए स्वामी प्रसाद मौर्य के बयान से सपा ने खुद को दूर कर लिया है। क्योंकि पिछड़ों को साधना तो है लेकिन इस बात का भी ध्यान पार्टी रख रही है कि जनता की आस्था से जुड़े इस मुद्दे का असर ऐसा न हो जाए की बाकी लोग पार्टी से छिटकने लगे। पिछड़ों को साधने के चक्कर में कही बहुसंख्यकों की नाराजगी भारी ना पड़ जाए।
तुलसीदास गोस्वामी की चौपाई जिनके अर्थ का अनर्थ कर खड़े किए जाते है सवाल
रामायण तो बाल्मिकी ने लिखी थी लेकिन संस्कृत में होने के चलते राम हर घर में नही पहुंच पाए। तुलसीदास गोस्वामी ने रामचरित मानस लिख कर घर घर तक राम पहुंचा दिए। आम परिवार से राम का नाता जोड़ दिया। एक त्यागी पुत्र, आदर्श राजा, बेहतर पति, अच्छा भाई , शानदार मित्र दरअसल खूबियों से अटा हुआ है राजा राम का पूरा जीवन चरित। तुलसीदास ने इस चरित को अवधी भाषा में पिरो कर एक ऐसा दस्तावेज बना दिया जो लोगो की जिंदगी का आधार बन गया। बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड और उत्तरकाण्ड इन सात कांडो में तुलसीदास ने पूरे राम को कह डाला। माना जाता है वाल्मिक जी की रामायण में उत्तरकाण्ड को बाद में शामिल किया गया वो लंका काण्ड में ही खत्म हो जाती है और राम चरित मानस में भी ऐसा ही है ।
दरअसल राम के राम के चरित पर वो लोग ही सवाल उठाते है जो राम को जानते ही नही । कैकई के राम, भरत के राम, सिया के राम, अयोध्या के राजा राम और इनसे भी कन्ही ज्यादा केवट के राम, निषादराज के राम, शबरी के राम, वनवासियों के राम, हनुमान के राम, अंगद के राम । जिन राम को शंबूक वध के लिए सवालों के घेरे में खड़ा किया जाता है उन्हे राम का वनवासी दलित पिछड़ों के प्रति प्रेम नजर नहीं आता। राम तो कोल, भील, किरात, आदिवासी, वनवासी, गिरीवासी, कपिश सबको साथ लेकर चले वनवास के दौरान इन्ही जातियों के साथ जीवन बिताया । लेकिन इसको नजरंदाज करके राम के भीतर जातिवादी भाव जैसी बातें कहकर विवाद खड़ा किया जा रहा है ।
रामचरित मानस में दो चौपाई है जिनको लेकर प्रभु राम को कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है । पहली है ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी ।
और दूसरी चौपाई है पूजहि विप्र सकल गुण हीना,
पूजहि न शूद्र गुण ज्ञान प्रवीणा।
पहली चौपाई के हिसाब से ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं । तुलसीदास जी का कहने का भाव है कि ढोलक, गवांर, वंचित, जानवर और नारी, यह पांच लोग पूरी तरह से जानने के विषय हैं और इन्हें जानें बगैर इनके साथ व्यवहार करने से सभी का नुकसान होता है। ढोलक को अगर सही से नहीं बजाया जाय तो उससे ठीक से आवाज नही निकलेगी। ऐसे ही अनपढ़ इंसान आपकी किसी बात का गलत मतलब सकता है। वंचित व्यक्ति को भी जानकर ही आप किसी काम में उसकी मदद कर सकते है। इसी तरह पशु हमारे व्यवहार क्रियाकलाप या किसी एक्टिविटी से डर जाते है या आहत हो जाते हैं और असुरक्षा का भाव उन्हें कुछ भी करने पर मजबूर कर सकता है। और इसी चौपाई में तुलसीदास गोस्वामी ने नारी शब्द का इस्तेमाल किया है यहां उनका आशय है कि नारी की भावना को समझे बगैर उसके साथ आप जीवन यापन नहीं कर सकते। ऐसे में आपसी सूझबूझ बहुत जरूरी है। हालांकि कई धर्म गुरुओं सुंदर काण्ड की इस चौपाई के बारे में कहते है कि इस चौपाई में बदलाव किया गया है। असली चौपाई कुछ ऐसे थी ढोल गवार क्षुब्द पशु रारी यह सब ताड़न के अधिकारी। इसमें ढोल का मतलब बेसुरा ढोलक , गवार मतलब अनपढ़ इंसान और क्षुब्द पशु से आशय आवारा जानवर है जो लोगों को नुकसान कर सकते हैं। और रार का मतलब होता है कलह करने वाले।
दूसरी चौपाई का मतलब कुछ ऐसे निकाला जाता है कि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान और गुण से दूर हो तब भी वो पूजा के योग्य है। और शूद्र यानी दलित चाहे कितना भी गुणी हो ज्ञानी हो लेकिन फिर भी वो सम्मान योग्य नही है । यहां भी विप्र और शुद्र का मतलब गलत निकाला गया । विप्र का मतलब है वो इंसान जिसका आत्मा से सीधे साक्षात्कार हो गया हो जो सभी बंधनों मोह और माया से मुक्त हो गया लेकिन बाहरी रूप से जड़ स्वरूप हो । संभव है बाहर से उसमें कोई गुण भी ना दिखाई दे तो भी वो पूज्यनीय है । और ऐसा इंसान जो कि किताब पढ़कर ज्ञान तो बांटता फिरे लेकिन असल में ना तो उसे शास्त्रों के अर्थ का पता हो और ना ही वो उसके व्यवहार और सोच में उसका कोई असर हो तो ऐसा व्यक्ति कभी भी पूज्यनीय नहीं हो सकता।
दरअसल जातिवादी सोच के चलते चौपाईयो को सही संदर्भ में ना लेकर उसका गलत अर्थ निकालने की परंपरा सी बन गई है। प्राचीनकाल में वर्ण काम के आधार पर तय होते थे शुद्र का बेटा भी ब्राह्मण हो सकता था और ब्राह्मण का बेटा भी शुद्र । गुरुओ के आश्रम में बिना किसी भेद भाव के हर जाति और हर तबके के विधार्थियों को शिक्षा दी जाती थी।
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