'प्रोग्रेसिव होने की कीमत: कहीं खोखले तो नहीं हो रहे हम?'

हम खुली सोच वाले बन गए हैं, लेकिन क्या हम भीतर से खोखले नहीं हो गए हैं? डिजिटल युग है। इसका उपयोग जरूर करें लेकिन अपने स्वास्थ्य और सामाजिक मूल्यों की कीमत पर नहीं। तकनीक हमारे हाथ में होनी चाहिए, न कि हम तकनीक की मुठ्ठी में। आधुनिकता जरूरी है, लेकिन जड़ों से कटना नहीं।

Social Values

तकनीक का सामाजिक मूल्यों पर पड़ा बुरा प्रभाव।

रवि रंजन। एक वक्त था जब जिंदगी में संसाधन सीमित थे। चाय बिस्किट का साथ ही किसी त्योहार जैसा लगता था। गर्मी की छुट्टियों में गांव जाना, संयुक्त परिवार में भाई-बहनों के साथ लूडो-व्यापारी खेलना, दादी-नानी की कहानियां सुनना, कागज की नावें और बगैर मोबाइल के शाम की कॉलोनी वाली क्रिकेट -यही असली खुशियां थीं। हमारे पास सब कुछ नहीं था, लेकिन जो था, उसमें सुकून था, अपनापन था।

रिश्ते जैसे 'लॉजिक' से चलने लगे हैं

अब संसाधन हैं। स्मार्टफोन से लेकर स्मार्ट होम तक-सब कुछ है लेकिन चेहरे पर वही मासूम मुस्कान गायब है। रिश्ते जैसे 'लॉजिक' से चलने लगे हैं 'इमोशन' अब आउटडेटेड लगने लगा है। पहले मोहल्ले के किसी अंकल से भी सतर्क रहना पड़ता था, ना जाने कब कौन सवाल पूछ ले, अब तो सब डिजिटल वर्ल्ड में मस्त हैं। आप अपने इर्द-गिर्द देखेंगे तो पाएंगे कि रिक्शावाला से लेकर बीएमडब्लू वाला सभी का ध्यान स्क्रीन पर टिका है, जैसे राहुल द्रविड़ क्रीज पर टिक कर भारत की पारी बचा रहे हों।

आजकल अखबार या सोशल मीडिया पर कुछ खबरें आम होती जा रही हैं

वो सास के साथ भाग गया,

वो नौकर के साथ चली गई,

पति ने बीवी की जासूसी के लिए AI लगाया,

बच्चे ने मां-बाप पर केस कर दिया।

अब हर चीज में 'स्पेस' चाहिए

ये घटनाएं केवल चटपटी हेडलाइंस नहीं हैं, ये एक गहरी सामाजिक दरार की झलक हैं। सवाल ये है: क्या हम प्रोग्रेसिव होते-होते अपने मूल्यों को पीछे छोड़ आए हैं? हम ‘मॉडरेट’ बनें, ठीक है-पर क्या इसका मतलब ये है कि हम रिश्तों की गर्माहट भूल जाएं? अब हर चीज में 'स्पेस' चाहिए, 'पर्सनल टाइम' चाहिए और 'बाउंड्रीज' का लेक्चर भी। लेकिन क्या उसी बहाने रिश्तों की गरिमा भी मिट रही है?

क्या हम भीतर से खोखले नहीं हो गए हैं?

हम खुली सोच वाले बन गए हैं, लेकिन क्या हम भीतर से खोखले नहीं हो गए हैं? डिजिटल युग है। इसका उपयोग जरूर करें लेकिन अपने स्वास्थ्य और सामाजिक मूल्यों की कीमत पर नहीं। तकनीक हमारे हाथ में होनी चाहिए, न कि हम तकनीक की मुठ्ठी में। आधुनिकता जरूरी है, लेकिन जड़ों से कटना नहीं। सवाल ये नहीं कि समाज कहां जा रहा है, सवाल ये है कि हम क्या खो रहे हैं उस 'प्रोग्रेस' के नाम पर?

(लेखक परिचय-यह आलेख रवि रंजन द्वारा लिखित है, जो सामाजिक मुद्दों पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए जाने जाते हैं।)

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